Agni Purana PDF in Hindi – अग्नी पुराण हिंदी

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सूर्यनारायणकी द्वादश मूर्तियोंका वर्णन राजा शतानीकने कहा- महामुने! साम्बके द्वारा चन्द्रभागा नदीके तटपर सूर्यनारायणको जो स्थापना की गयी है, वह स्थान आदिकालसे तो नहीं है, फिर भी आप उस स्थानके माहात्म्यका इतना वर्णन कैसे कर रहे हैं ? इसमें मुझे सुमन्तु मुनि बोले- राजन् साम्बने नारदजीसे पुनः कहा- महामुने! आपने भगवान् सूर्यनारायणके अत्यन्त आनन्दप्रद माहात्यका वर्णन किया, जिससे मेरे हृदयमें उनके प्रति दृढ़ भक्ति उत्पन्न हो गयी।

Agni Purana PDF Book

Name of Book Agni Purana
PDF Size 57 MB
No of Pages 842
Language  Hindi
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About Book – Agni Purana PDF Book

अब आप भगवान् सूर्यनारायणकी पत्नी महाभागा राशी एवं निशुभा तथा दिण्डी और पिंगल आदिके विषयमें बतायें। नारदजीने कहा- साम्ब भगवान् सूर्यनारायणकी राजी और निक्षुभा नामकी दो पत्रियाँ हैं। इनमेंसे राशीको द्यौ अर्थात् स्वर्ग और निक्षुभाको पृथ्वी भी कहा जाता है। पौष शुरू सप्तमी तिथिको चौके साथ और माघ कृष्णपक्षकी सप्तमी तिथिको निक्षुभा (पृथ्वी) के साथ सूर्यनारायणका संयोग होता है I

जिससे राशी द्यौसे जल और निशुभा – पृथ्वीसे तीनों लोकोके कल्याणके लिये अनेक प्रकारकी सस्य सम्पत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। सस्य (अत्र ) को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता से ब्राह्मण हवन करते हैं। स्वाहाकार तथा स्वधाकारसे देवताओं और पितरोंकी तृप्ति होती है। जिस प्रकार राशी अपने दो रूपोंमें हुई और ये जिनकी पुत्री हैं तथा इनकी जो संतानें हुई उनका हम वर्णन करते हैं, इसे आप सुनें

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साम्ब ! ब्रह्माके पुत्र मरीचि, मरीचिके कश्यप, कश्यपसे हिरण्यकशिपु हिरण्यकशिपुसे प्रह्लाद प्रह्लादसे विरोचन नामका पुत्र हुआ। विरोचनकी बहिनका विवाह विश्वकमकि साथ हुआ, जिससे संज्ञा नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। मरीचिकी सुरूपा नामकी कन्याका विवाह अंगिरा ऋषिसे हुआ, जिससे बृहस्पति उत्पन्न हुए बृहस्पतिकी ब्रह्मवादिनी बहिनने आठवें प्रभास नामक वसुसे पाणिग्रहण किया, जिसका पुत्र विश्वकर्मा समस्त शिल्पोंको जाननेवाला हुआ।

उन्होंका नाम त्वष्टा भी है जो देवताओंके बढ़ई हुए। इन्हींकी कन्या संशाको राशी कहा जाता है। इन्हींको द्यौ त्वाष्ट्री प्रभा तथा सुरेणु भी कहते हैं। इन्हीं संज्ञाको छायाका नाम निक्षुभा है। सूर्य भगवान्‌को संज्ञा नामक भार्या बड़ी ही रूपवती और पतिव्रता थी। किंतु भगवान् सूर्यनारायण मानवरूपमें उसके समीप नहीं जाते थे और अत्यधिक तेजसे परिव्याप्त होनेके कारण सूर्यनारायणका वह स्वरूप सुन्दर मालूम नहीं होता था।

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अतः वह संज्ञाको भी अच्छा नहीं लगता था संज्ञासे तीन संतानें उत्पन्न हुई, किंतु सूर्यनारायणके तेजसे व्याकुल होकर वह अपने पिताके घर चली गयी और हजारों वर्षतक वहाँ रही। जब पिताने संज्ञासे पतिके घर जानेके लिये अनेक बार कहा, तब वह उत्तर कुरुदेशको चली गयी। वहाँ वह अश्विनीका रूप धारण करके तृण आदि चरती हुई समय बिताने लगी।

सूर्य भगवान् के समीप संज्ञाके रूपमें उसकी छाया निवास करती थी। सूर्य उसे संज्ञा ही समझते थे। इससे दो पुत्र हुए और एक कन्या हुई। श्रुतश्रवा तथा श्रुतकर्मा – ये दो पुत्र और अत्यन्त सुन्दर तपती नामकी कन्या छायाकी संतानें हैं। श्रुतश्रवा तो सावर्णि मनुके नामसे प्रसिद्ध होगा और श्रुतकमनि शनैश्चर नामसे प्रसिद्धि प्राप्त की संज्ञा जिस प्रकारसे अपनी संतानोंसे स्नेह करती थी, वैसा स्नेह छायाने नहीं किया।

इस अपमानको संज्ञाके ज्येष्ठ पुत्र सावर्णि मनुने तो सहन कर लिया, किंतु उनके छोटे पुत्र यम (धर्मराज) सहन नहीं कर सके छायाने जब बहुत ही फ्रेश देना शुरू किया, तब क्रोधमें आकर बालपन तथा भावी प्रबलताके कारण उन्होंने अपनी विमाता छायाकी भर्त्सना की और उसे मारनेके लिये अपना पैर उठाया यह देखकर क्रुद्ध विमाता छायाने उन्हें कठोर शाप दे दिया- ‘दुष्ट! Agni Purana PDF Book 

तुम अपनी माँको पैरसे मारनेके लिये उद्यत हो रहे हो, इसलिये तुम्हारा यह पैर टूटकर गिर जाय’ छायाके शापसे विह्वल होकर थम अपने पिताके पास गये और उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया। पुत्रकी बातें सुनकर सूर्यनारायणने कहा- ‘पुत्र ! इसमें कुछ विशेष कारण होगा, क्योंकि अत्यन्त धर्मात्मा तुझ जैसे पुत्रके ऊपर माताको क्रोध आया है। सभी पापोंका तो निदान है, किंतु माताका शाप कभी अन्यथा नहीं हो सकता।

पर मैं तुम्हारे ऊपर अधिक स्नेहके कारण एक उपाय कहता हूँ यदि तुम्हारे पैरके मांसको लेकर कृमि भूमिपर चले जायें तो इससे माताका शाप भी सत्य होगा और तुम्हारे पैरकी रक्षा भी हो जायगी।’ सुमन्तु मुनिने कहा- राजन्! इस प्रकार पुत्रको आश्वासन देकर सूर्यनारायण छायाके समीप जाकर बोले- ‘छाये! तुम इनसे स्नेह क्यों नहीं करती हो ? माताके लिये तो सभी संताने समान ही होनी चाहिये।’

यह सुनकर जो मनुष्य विविध सुगन्धित पुष्पों तथा पत्रोंसे सूर्यकी अर्चना करता है और विविध स्तोत्रोंसे सूर्यका संस्तवन-गान आदि करता है, वह उन्हीं लोकको प्राप्त होता है जो पाठक और चारणगण सदा प्रातःकाल सूर्यसम्बन्धी ऋचाओं एवं विविध स्तोत्रोंका उपगान करते हैं, वे सभी स्वर्गगामी होते हैं। जो मनुष्य अश्वोंसे युक्त, सुवर्ण, रजत या मणिजटित सुन्दर रथ अथवा दारुमय रथ सूर्यनारायणको समर्पित करता हैI Agni Purana PDF Book 

वह सूर्यके वर्णके समान किंकिणी जालमाला से समन्वित विमानमें बैठकर द्वितीय पारणामें प्रबोध’ धूप, शर्कराखण्डसे मिश्रित पुरका नैवेद्य सूर्यनारायणको अर्पित करनेका विधान है। खाँड़मिश्रित भोजनसे ब्राह्मणोंको भोजन भी कराना चाहिये। निम्ब-पत्रका प्राशन करनेके पश्चात् स्वयं भी मौन होकर भोजन करना चाहिये। तृतीय पारणा में भगवान् भास्करको प्रसन्न करनेके लिये नील या श्वेत कमल और गुग्गुलके धूप तथा पायसका नैवेद्य अर्पित करना चाहिये।

प्राशनमें तथा विलेपनमें भी चन्दनके उपयोगकी विधि कही गयी है। मनुष्योंको सदा पवित्र करनेवाले भगवान् सूर्यनारायणके नामोंको भी सुनें- विष्णु, भग तथा धाता ये उनके नाम हैं। प्रत्येक पारणामें क्रमशः ‘विष्णुः प्रीयताम्’ इत्यादि उच्चारण करना चाहिये। इस विधिसे जो मनुष्य दत्तचित्त होकर भगवान् भास्करकी पूजा करता है, वह इस लोकमे अपनी कामनाओंको पूर्ण करके अनन्तकालतक आनन्दित रहता है।

तत्पश्चात् सूर्यलोकमें जाकर वह वहाँ भी आनन्दको प्राप्त करता है। ब्रह्माजी बोले- शुरू पक्षमें सप्तमी तिथिको जब हस्त नक्षत्र हो तो वह भद्रा सप्तमी कही जाती है। उस दिन भगवान् सूर्यदेवको पहले घीसे, अनन्तर दूधसे तत्पश्चात् इक्षुरससे स्नान कराकर चन्दनका लेप करना चाहिये। तत्पश्चात् उन्हें गुग्गुलका धूप दिखाये चतुर्थी तिथिको एकभुक्त तथा पञ्चमी तिथिको नक्तवत करनेका विधान है। Agni Purana PDF Book 

षष्ठी तिथिको अयाचित रहकर सप्तमी तिथिको उपवास रखना श्रेष्ठ कहा गया है। सप्तमी व्रतका पालन करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह उस व्रतके दिन पाखण्डी, सत्कमोंसे दूर करनेवाले, विडाल-वृत्तिका आचरण करनेवाले मनुष्योंसे दूर रहे बुद्धिमान् व्यक्ति सप्तमी- व्रतका पालन करते हुए दिनमें शयन न करे। इस विधिसे जो मनुष्य भद्रा सप्तमीका व्रत करता है, उसे ऋभु नामक देवता सदा समस्त कल्याणको वस्तुएँ प्रदान करते हैं।

जो मनुष्य इस तिथिको शालिचूर्णसे भद्र (वृषभ) बनाकर सूर्यदेवको समर्पित करता है, उसको भद्र पुत्र प्राप्त होता है औरसूर्यनारायणका मन्दिर पूर्वाभिमुख बनवाना चाहिये, पूर्वकी ओर द्वार रखनेका स्थान न हो तो पश्चिमाभिमुख बनवाये। परंतु मुख्य पूर्वाभिमुख ही है। स्थानकी इस प्रकारसे कल्पना करे कि मुख्य मन्दिरसे दक्षिणकी ओर भगवान् सूर्यका स्नान गृह और उत्तरकी ओर यज्ञशाला रहे।

भगवान् शिव और मातृकाका मन्दिर उत्तराभिमुख, ब्रह्माका पश्चिम और विष्णुका उत्तर-मुख बनवाना चाहिये। भगवान् सूर्यके दाहिने पार्श्वमै निक्षुभा तथा बायें पार्श्वमें राज्ञीको स्थापित करना चाहिये। सूर्यनारायणके दक्षिणभागमें पिङ्गल, वामभागमे दण्डनायक, सम्मुख श्री और महाश्वेताकी स्थापना करनी चाहिये। देवगृहके बाहर अश्विनीकुमारोंका स्थान बनाना चाहिये। Agni Purana PDF Book Download

मन्दिरके दूसरे कक्षमें राश और औष, तीसरे कक्षमें कल्माष और पक्षी, दक्षिणमें दण्ड और माठर, उत्तरमे लोकपूजित कुबेरको स्थापित करना चाहिये। कुबेरसे उत्तर रेवन्त एवं विनायककी स्थापना करनी चाहिये या जिस दिशामें और अर्घ्य प्रदान करनेके लिये दो मण्डल बनवाये। उदयके समय दक्षिण मण्डलमें और अस्तके समय वाम मण्डलमें भगवान्‌को अर्घ्य दे चक्राकार पीठके ऊपर स्नानगृहमें चार कलशोंसे भगवान् सूर्यकी प्रतिमाको सविधि स्नान कराये।

खानके समय शङ्ख आदि मङ्गल वाद्य बजाने चाहिये। तीसरे मण्डलमें सूर्यनारायणकी पूजा करे सूर्यनारायणके सामने दिण्डीकी स्थानक (खड़ी हुई) प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये। सूर्यनारायणके सम्मुख समीपमें ही सर्वदेवमय व्योमकी रचना करनी चाहिये। मध्याह्नके समय वहाँ सूर्यको अर्ध्य देना चाहिये अथवा मध्याह्नमें अर्घ्य देनेके लिये चन्द्र नामक तृतीय मण्डल बनाये प्रथम खान कराकर बादमें अर्घ्य दे भगवान् सूर्यके समीप ही उचित स्थानपर पुराणका पाठ करनेके लिये स्थान बनाना चाहिये।

यह देवताओंके स्थापनका विधान है। गृहराज और सर्वतोभद्रये दो प्रासाद सूर्यनारायणको भुवलॉकके वायु और स्वलॉकके स्वामी सूर्य हैं। मरुद्गण भुवलॉकमें रहते हैं और रुद्र, अश्विनीकुमार, आदित्य, वसुगण तथा देवगण स्वलॉकमें निवास करते हैं। चौथा महलोंक है, जिसमें प्रजापतियों सहित कल्पवासी रहते हैं पांचवें जनलोक में भूमिदान करनेवाले तथा छठे तपोलोक में ऋभु सनत्कुमार तथा वैराज आदि ऋषि रहते हैं। Agni Purana PDF Book Download

सातवें सत्यलोकमें पुरुष रहते हैं, जो जन्म-मरणसे मुक्ति पा जाते हैं इतिहास पुराणके वक्ता तथा श्रोता भी उस लोकको प्राप्त करते है। इसे ब्रह्मलोक भी कहा गया है, इसमें न किसी प्रकारका तपोलोक और सत्यलोक – ये सात लोक कहे गये हैं। भूमिके नीचे जो सात लोक हैं, वे इस प्रकार हैं-तल, सुतल, पाताल, तलातल, अतल, वितल और रसातल काञ्चन मेरु पर्वत भूमण्डलके मध्यमें फैला हुआ चार रमणीय से युक्त तथा सिद्धगन्धवसे सुसेवित है।

इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। यह सोलह हजार योजन भूमिमें नीचे प्रविष्ट है। इस प्रकार सब मिलाकर एक लाख योजन मेरुपर्वतका मान है। उसका सौमनस नामका प्रथम शृङ्ग सुवर्णका है. ज्योतिष्क नामका द्वितीय शुङ्ग पद्मराग मणिका है। चित्र नामका तृतीय शृङ्ग सर्वधातुमय है और चन्द्रौजस्क नामक चतुर्थ शृङ्ग चाँदीका है। गाङ्गेय नामक प्रथम सौमनस शूङ्गपर भगवान् सूर्यका उदय होता है, सूर्योदयसे ही सब लोग देखते है, अतः उसका नाम उदयाचल है।

उत्तरायण होनेपर सौमनस शूङ्गसे और दक्षिणायन होनेपर ज्योतिष्क शूङ्गसे भगवान् सूर्य उदित होते हैं। मेष और तुला संक्रान्तियोंमें मध्यके दो में सूर्यका उदय होता है। इस पर्वतके ईशानकोणमें ईश और अग्रिकोणमें इन्द्र, नैर्ऋत्यकोणमें अद्रि और वायव्यकोणमें मरुत् तथा मध्यमें साक्षात् ब्रह्मा ग्रह एवं नक्षत्र स्थित है। इसे व्योम कहते हैं। व्योममें सूर्यभगवान् स्वयं निवास करते हैं, अतः यह व्योम सर्वदेवमय और सर्वलोकमय है। राजन् ! Agni Purana PDF Book Download

पूर्वकोणमें स्थित शुङ्गपर शुक्र हैं, दूसरे शृङ्गपर हेलिज (शनि) तीसरेपर कुबेर, चौथे शृङ्गपर सोम हैं मध्यमं ब्रह्मा, विष्णु और शिव स्थित हैं। पूर्वोत्तर शृङ्गपर पितृगण और लोकपूजित गोपति महादेव निवास करते हैं। पूर्वाग्रेय शृङ्गपर शाण्डिल्य निवास करते हैं। अनन्तर महातेजस्वी हेलिपुत्र यम निवास करते हैं। नैर्ऋत्यकोणके शृङ्गमें महाबलशाली विरूपाक्ष निवास करते हैं।

उसके बाद वरुण स्थित है, अनन्तर महातेजस्वी महाबली धीरमित्र निवास करते हैं। सभी देवीके नमस्कार्य वायव्य शृङ्गका आश्रयणकर नरवाहन कुबेर निवास करते हैं, मध्यमें ब्रह्मा, नौचे अनन्त, उपेन्द्र और शंकर अवस्थित हैं। इसीको मेरु, व्योम और धर्म भी कहा जाता है। यह व्योमस्वरूप मेरु वेदमय नामसे प्रसिद्ध है। चारों शृङ्ग चारों वेदस्वरूप हैं विष्णुभगवान्ने ब्रह्माजी से पूछा- ब्रह्मन् संसारमें मनुष्य विष, रोग, ग्रह और अनेक प्रकारके उपद्रवोंसे पीड़ित रहते हैं I

यह किन कमका फल है, कृपाकर आप कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे जीवोको रोग आदिकी बाधा न हो। ब्रह्माजीने कहा- जिन्होंने पूर्वजन्ममें व्रत-उपवास ब्रह्माजीने कहा- हे वासुदेव! जो मनुष्य मिट्टी, लकड़ी अथवा पत्थरसे भगवान् सूर्यके मन्दिरका निर्माण करवाता है, वह प्रतिदिन किये गये यज्ञके फलको प्राप्त करता है। भगवान् सूर्यनारायणका मन्दिर बनवानेपर वह अपने कुलकी सौ आगे और सौ पीछेकी पीढ़ियोंको सूर्यलोक प्राप्त करा देता है। Agni Purana PDF Book Download

सूर्यदेवके मन्दिरका निर्माण कार्य प्रारम्भ करते ही सात जन्मोंमें किया गया जो थोड़ा अथवा बहुत पाप है, वह नष्ट हो जाता है। मन्दिरमें सूर्यकी मूर्तिको स्थापित कर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और उसे दोष फलकी प्राप्ति नहीं होती तथा अपने आगे और पीछेके कुलोंका उद्धार कर देता है। इस विषयमें प्रजाओंको अनुशासित करनेवाले यमने पाशदण्डसे युक्त अपने किंकरोसे पहले ही कहा है कि ‘मेरे इस ही त्याग देना।’

आदेशका यथोचित पालन करते हुए तुमलोग संसारमें विचरण करो, कोई भी प्राणी तुमलोगोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं कर सकेगा। संसारके मूलभूत भगवान् सूर्यको उपासना करनेवाले लोगोंको तुमलोग छोड़ देना, क्योंकि उनके लिये यहाँपर स्थान नहीं है। संसारमें जो सूर्यभक्त है और जिनका हृदय उन्हींमें लगा हुआ है, ऐसे लोग जो सूर्यकी सदा पूजा किया करते हैं, उन्हें दूरसे ही छोड़ देना।

बैठते-सोते, चलते-उठते और गिरते पड़ते जो मनुष्य भगवान् सूर्यदेवका नाम संकीर्तन करता है, वह भी हमारे लिये बहुत दूरसे ही त्याज्य है। पुष्कर कहते हैं- अब मैं ज्ञान और मोक्ष आदिका साक्षात्कार करानेवाले संन्यास धर्मका वर्णन करूँगा। आयुके पौधे भागमें पहुँचकर सब प्रकारके सङ्गसे दूर हो संन्यासी हो जाय। जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन घर छोड़कर चल दे संन्यास ले ले। Agni Purana PDF Book free

प्राजापत्य इष्टि (यज्ञ) करके सर्वस्वी दक्षिणा दे दे तथा आहवनीयादि अग्नियोंको अपने-आपमें आरोपित करके ब्राह्मण परमे निकल जाय संन्यासी सदा अकेला ही बिचरे। भोजनके लिये ही गाँवमें जाय। शरीरके प्रति उपेक्षाभाव रखे। अत्र आदिका संग्रह न करे। मननशील रहे। ज्ञानसम्पन्न होवे कपाल (मिट्टी आदिका खप्पर) ही भोजनपात्र हो, वृक्षकी जड़ ही निवास स्थान हो, लंगोटीके लिये मैला कुचैला वस्त्र हो, साथमें कोई सहायक न हो तथा सबके प्रति समताका भाव हो यह जीवन्मुक्त पुरुषका लक्षण है।

न तो मरनेकी इच्छा करे, न जोनेकी जीवन और मृत्युमेंसे किसीका अभिनन्दन न करे ॥१५॥ जैसे सेवक अपने स्वामीको आज्ञाकी प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार वह प्रारब्धवश प्राप्त होनेवाले काल (अन्तसमय) की प्रतीक्षा करता रहे मार्गपर दृष्टिपात करके रखे अर्थात् रास्ते में कोई कोड़ा-मकोड़ हड्डी आदि नहीं है, यह भलीभाँति देखकर पैर रखे। पानीको कपड़ेसे छानकर पीये सत्यसे पवित्र की हुई|

वाणी बोले मनसे दोष-गुणका विचार करके कोई कार्य करे। तौकी, काठ, मिट्टी तथा बस ये हो सके पात्र हैं। जब गृहस्यके पर धूआँ निकलना बंद हो गया हो, मुसल रख दिया गया हो, आग बुझ गयी हो, घरके सब लोग भोजन कर चुके हों और जूठे शराव (मिट्टी के प्याले) फेंक दिये गये हो, ऐसे समय संन्यासी प्रतिदिन के लिये जाय। भिक्षाप प्रकारको मानी गयी है मधुकरी (अनेक प थोड़ा-थोड़ा अम मोगलाना) (जिसके विषयमें पहलेसे कोई संकल्प या निश्चय न हो, ऐसी पहले तैयार रखी हुई भिक्षा I Agni Purana PDF Book free

अयाचित (बिना मांगे जो अन्न प्राप्त हो जाए, वह) और तत्काल उपलब्ध (भोजनके समय स्वतः प्राप्त)। अथवा करपात्री होकर रहे अर्थात् हाथहीनें लेकर भोजन करे और हाथमें ही पानी पीये दूसरे किसी पात्रका उपयोग न करे। पात्रसे अपने हायरूपी पात्रमें भिक्षा लेकर उसका उपयोग करे। मनुष्योंकी कर्मप्राप्त होनेवाल यमयातना और नरकपात आदि गाडिका चिन्तन करे जिस किसी भी आजममें स्थित रहकर मनुष्यको शुद्धभावसे आधिका करना चाहिये I सब भूभा केवल आश्रम-चिह्न धारण कर लेना ही धर्मका हेतु नहीं है उस आवयके लिये विहित कर्तव्यका पालन करनेसे ही धर्मका अनुष्ठान होता है।