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नमोनमः क्षये सृष्टी स्थितौ सत्त्वमयाय वा । नमो रजस्तमः सत्त्वत्रिरूपाय स्वयंभुवे ।। १ जितं भगवता तेन हरिणा लोकधारिणा । अजेन विश्वरूपेण निर्गुणेन गुणात्मना ॥२ ब्रह्माणं लोककर्त्तारं सर्वज्ञमपराजित्तम् । प्रभु भूतभविष्यस्य साम्प्रतस्य च सत्पतिम् ॥ ३ ज्ञानमप्रतिमं तस्य वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च सद्भिः सेव्यं चतुष्टयम् ॥४ इमान्तरस्य वे भावान्नित्यं सदसदात्मकात्र । अविनयः पुनस्तान्वें क्रियाभावार्थमीश्वरः ॥५॥
Brahmanda Purana PDF Book
Name of Book | Brahmanda Purana |
PDF Size | 76.4 MB |
No of Pages | 893 |
Language | Hindi |
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About Book – Brahmanda Purana PDF Book
लोककुल्लोकतत्त्वज्ञो योगमास्थाय योगवित् । असृजत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥६ तमहं विश्वकर्माणं सत्पति लोकसाक्षिणम् । पुराणाख्यान जिज्ञासुर्गच्छामि धारणं विभुम् ॥७ संसार के सृजन, उसके पालन अथवा उसके संहार काल में सत्व स्वरूप वाले के लिए बारम्बार नमस्कार है । रजोगुण तमोगुण और सत्व- गुण के तीन स्वरूप वाले भगवान् स्वयम्भू के लिए नमस्कार है |१| जन्म न धारण करने वाले, विश्व के स्वरूप वाले॥
गुणों से रहित और गुणों के रूप वाले, विश्व के स्वरूप वाले, गुणों से रहित और गुणों के रूप वाले, लोकों के धारण करने वाले उन भगवान् हरि ने जय प्राप्त किया है | २| समस्त लोकों के रचने वाले, सबके ज्ञाता, पराजित न होने वाले, भूत-भविष्यत् और वर्तमान काल के प्रभु सत्पति ॥३॥ अनुपम ज्ञान के स्वरूप और उन जगतों के स्वामी का ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वयं और धम्मं ये चारों सत्पुरुषों के द्वारा सेवन करने के योग्य हैं 1४1 नित्य हो भले ॥
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बुरे स्वरूप वाले मनुष्य के इन भावों की क्रिया के भाव के लिए ईश्वर ने फिर रचना की थी । ५। लोकों की रचना करने वाले और लोकों के तत्वों के ज्ञाता, योग के जानने वाले भगवाद ने योग में समास्थित होकर समस्त स्थावर (अचर) और जङ्गम (चर) जीवों की रचना की थी |६| पुराण के आख्यान की इच्छा वाले मैंने व्यापक सत्पति लोकों के साक्षी विश्वकर्मा उन प्रभु की शरण ग्रहण की है |७|
पुराणं लोकतत्त्वार्थमखिलं वेदसंमितम् । प्रशशंस स भगवान् वसिष्ठाय प्रजापतिः ॥८ तत्त्वज्ञानामृतं पुण्यं वसिष्ठो भगवानृषिः । पौत्रमध्यापयामास शक्तेः पुत्रं पराशरम् ॥६ पराशरश्च भगवान् जातूकर्ण्यमृषि पुरा । तमध्यापितवान्दिव्यं पुराणं वेदसंमितम् ॥१० अधिगम्य पुराणं तु जातूकर्ण्यो विशेषवित् । हूँ पायनाय प्रददौ परं ब्रह्म सनातनम् ॥११ पायनस्ततः प्रीतः शिष्येभ्यः प्रददौ बशी । लोकतत्त्वविधानार्थे पंचभ्यः परमाद्भुतम् ॥ १२ विख्यापनार्थं लोकेषु बह्वर्थं श्रुतिसंगतम् ।
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मुनियों के साथ संयुत होकर समस्त मुनियों को शिर झुकाकर प्रणाम किया या और परम भक्ति भाव से युक्त होकर प्रदक्षिणा की थी । १६] सम्पूर्ण विद्या को प्राप्त करके ये परम सन्तुष्ट हुए और फिर वे कुरुक्षेत्र में पहुँच गये थे। जहाँ पर एक विशाल यज्ञ होरहा था और पवित्र बहुत से यजमान तथा ऋषिगण विद्यमान थे । १७। सब याशिकों ने परम नम्रता से रोमहर्षण ऋषि से भेंट की थी। शास्त्रों के अनुसार विधि पूर्वक प्रज्ञा से अतिगमन किया था | १८ |
उस समय में उन समस्त ऋषियों ने भी रोमहर्षण मुनि का दर्शन प्राप्त कर अत्यन्त हर्ष प्राप्त किया था और सबके मन में विशेष प्रसन्नता हुई थी |११| सब ऋषियों ने उनका विशेष समादर एवं सत्कार करके अध्यंपाद्य आदि के द्वारा उनका समर्थन किया था। राजा के द्वारा आज्ञा प्राप्त करके समस्त मुनिगणों को प्रणाम किया था ।२०। कुणल-क्षेम पूछे जाने पर समस्त ऋषियों के द्वारा आज्ञा प्राप्त की थी।
सनातन ब्रह्म के तेज स्वरूप उन सब ऋषियों के समीप जाकर सदस्यों के द्वारा अनुमत अपने आसन पर विराजमान हो गये थे |२१| उपविष्टे तदा तस्मिन्मुनयः शंसितव्रताः । मुदान्विता यथान्यायं विनयस्थाः समाहिताः ।।२२ सर्वे ते ऋषयश्चन परिवार्य महाव्रतम् । परमप्रीतिसंयुक्ता इत्यूचुः सूतनंदनम् ॥२३ स्वागतं ते महाभाग दिष्ट्या च त्वां निरामयम् । पश्याम धीमन्नत्रस्थाः सुव्रतं मुनिसत्तमम् ॥२४ अशून्या मे रसाचैव भवतः पुण्यकर्मणः । भवांस्तस्य मुनेः सूत व्यासस्यापि महात्मनः ।।२५॥ Brahmanda Purana PDF Book
अनुग्राह्यः सदा धीमाञ्ञ, शिष्यः शिष्यगुणान्वितः । कृतबुद्धिश्च ते तत्त्वमनुग्राह्यतया प्रभो ॥२६ अवाप्य विज्ञानं सर्वतरिछन्नसंशयः । पृच्छतां नः सदा प्राज्ञ सर्वमाख्यातुमर्हसि ॥तदिच्छामः कथं दिव्या पौराणी भूतिभिताम् । श्रोतु धर्मायुक्तां तु एतद्व्यासाच्छ्रतं स्वया ॥२८अनुषंग उत्पोद्धात उपसंहार एव च । एवं पादास्तु चत्वारः समासात्कीर्तिता मया ।। ३९ वक्ष्यामि तान्पुरस्तात्तु विस्तरेणं यथाक्रमम् । प्रथमं सर्वशास्त्राणां पुराणं ब्रह्मणा श्रुतम् ॥४०॥
अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः । अङ्गानि धर्मशास्त्रं च व्रतानि नियमास्तथा ॥४१ अव्यक्तं कारणं यत्तन्नित्यं सदसदात्मकम् । महदादिविशेषांतं सृजामीति विनिश्चयः ॥४२ नैमिषारण्य के निवासी महात्मा मुनियों ने पहिले पूछा था। पुराण का लक्षण हो यह है-सर्ग अर्थात् सृष्टि और प्रतिसर्ग अर्थात् उस सृष्टि से होने वाली सृष्टि, वंशों का वर्णन, मन्वन्तर अर्थात् मनुओं का कथन तात्पर्य कौन-कौन मनु किस-किस के पश्चात् हुए 1३७1 वंशों में होने वालों का चरित
यह ही पांचों बातों का होना पुराण का लक्षण है। इसमें भी चार पाद होते हैं-प्रक्रिया पहिला पाद है जो कथा में परिग्रह होता है ३ अनुषङ्ग, उत्पोद्धात और उपसहार इस प्रकार से संक्षेप से मैंने चार पाद बतला दिये हैं |३९| अब पहिले उनको क्रम के अनुसार विस्तार के साथ बतलाऊँगा। सबसे प्रथम सभी शास्त्रों से पूर्व ब्रह्माजी ने पुराण का श्रवण किया था |४०| इसके पश्चात् उनके मुख से वेद निकले थे और वेद के अङ्ग शास्त्र, धर्मशास्त्र व्रत तथा नियम आदि उनके मुख से निकले थे ।४१। Brahmanda Purana PDF Book
जो अव्यक्त कारण है वह नित्य है और सत् तथा असत् स्वरूप वाला है । महत आदि लेकर विशेष के अन्त तक का मैं सृजन करता हूँ ऐसा विशेष निश्चय किया था ॥४२॥ अंडं हिरण्मयं चैव ब्रह्मणः सूतिरुत्तमा । अंडस्यावरण वाधिरपामपि च तेजसा ॥४३ वायुना तस्य वायोश्च खेन भूतादिना ततः । भूतादिमंहता चैव अव्यक्तेनावृतो महान् ॥४४ अन्तर्वति च भूतानामंडमेवोपवणितम् । नदीनां पर्वतानां च प्रादुर्भावोऽत्र पठ्यते ॥४५
भगवान् महेश्वर से और सती से दक्ष प्रजापति के लिए शाप की वर्णन है और परम बुद्धिमान भृगु आदि ऋषियों को जो प्रतिशाप दिया गया है उसका वर्णन होता है | ६३| प्रतिशापश्च दक्षस्य रुद्रादद्भुतकर्मणः । प्रतिषेधश्च वैरस्य कीत्यंते दोषदर्शनात् ।। ६४ मन्वन्तर प्रसंगेन कालाख्यानं च कीर्त्यते । प्रजापतेः कद्द मस्य कन्यायाः शुभलक्षणम् ॥५६ कृत्य-समुद्देश्य प्रियव्रतस्य पुत्राणां कीर्त्यते यत्र विस्तरः ।
तेषां नियोगो द्वीपेषु देशेषु च पृथक् पृथक् ॥ ६६ स्वायंभुवस्य सर्गस्य ततश्चाप्यनुकीर्त्तनम् । वर्षाणां च नदीनां च तद्भेदानां च सर्वशः ॥६७ द्वीपभेदसहस्राणामन्तर्भावश्च सप्तसु । हिमवान्हेमकूटश्च निबधो मेरुरेव च । विस्तरान्मण्डलं चैव जंबूद्वीपसमुद्रयोः ॥६८ प्रमाणं योजनाग्र ण कीत्यंते पर्वतैः सह । नीलः श्वेतश्च शृङ्गी च कोर्त्यन्ते सप्त पर्वताः ।।६६ तेषामन्तरविष्कंभा उच्छ्रायायामविस्तराः ॥७०॥ Brahmanda Purana PDF Book
अद्भुत कर्मों वाले भगवान् रुद्र से दक्ष के प्रतिशाप का कथन है और दोष के दर्शन से बेर के प्रतिषेध का कीर्त्तन किया जाता है ।६४। मन्वन्तर के प्रसङ्ग से काल का भी आख्यान कहा जाता है प्रजापति कम की कन्या का शुभ लक्षण बताया जाता है ।६५| जहाँ पर प्रियव्रत राजा के पुत्रों का विस्तार कीसित किया जाता है और द्वीपों में तथा देशों में पृथक्- पृथक उनके नियोग का वर्णन है ।६६।
इसके अनन्तर स्वायम्भुव मनु के स का वर्णन किया जाता है और सब वर्षों का नदियों का और समस्त उनके भेदों का अनुकीतन किया जाता है । ६७। फिर सहस्रों द्वीपों के भेदों का सात द्वीपों में ही जन्तर्भाव का वर्णन तथा जम्बू द्वीप और समुद्र के मण्डल का विस्तार से वर्णन किया जाता है ॥६] योजनों के अग्रभाग से पर्वतों के
श्रीसूतजी ने कहा- व्यक्त के आत्मा में अवस्थित होने पर और विकार के प्रति सहत हो जाने पर उस समय में प्रधान और पुरुष सहकर्मता के साथ अवस्थित हुआ करते हैं |१| तमोगुण और सत्वगुण ये दोनों समता से व्यवस्थित हुआ करते हैं। उसके साथ ये उद्रिक्त नहीं होते हैं और परस्पर से उसके अनुगामी रहा करते हैं । २। जब इन गुणों की समता होती है तो उस समय में लय जान लेना चाहिए और जब इनमें किसी भी अधि- कता अर्थात् परस्पर में विषमता होती है॥ Brahmanda Purana PDF Book Download
तो उस अवस्था में सृष्टि कही जाया करती है सत्य की वृद्धि में स्थिति हुई थी और ध्रुव पद्म शिखा में होता है और वह बीजों में जल के ही समान प्रवृत्तक होता है ॥४॥ ये गुण विषमता की दशा को प्राप्त करके प्रसङ्ग से प्रतिष्ठित होते हैं गणों के क्षोभ्यमाण होने से ये तीनों गुण बड़े आदर में जानने के योग्य होते हैं ।।५। ये शाश्वत अर्थात् नित्य रहने वाले है-परमगुह्य है-सबकी आत्मा है। और शरीरधारी है। सत्वग ण विष्णु है- रजोगुण प्रजापति ब्रह्मा है और तमोगुण साक्षात् रुद्र देव हैं |६|
रजोगुण के प्रकाशक विष्णु ब्रह्मा के स्रष्टा होने की अवस्था को प्राप्त किया करते हैं। जिस महान् ओज वाले से यह | विचित्र प्रकार की सृष्टि समुत्पन्न हुआ करती है तमः प्रकाशको विष्णुः कालत्वेन व्यवस्थितः । सत्त्वप्रकाशको विष्णुः स्थितित्वेन व्यवस्थितः ॥८ एत एव त्रयी लोका एत एव त्रयो गुणाः । एत एव जयो वेदा एत एव त्रयोऽग्नयः ॥ परस्परान्वया ते परस्परमनुव्रताः । अगं वियोगो न षां न त्यजति परस्परम् ।।११
परस्परेण वर्तते प्रश्यति परस्परम् ॥१० अन्योन्यमिथुनं ते अन्योन्यमुपजीविनः अराऽधिष्ठितात्पूर्वे तस्मात्सदसदात्मकान् ॥ १२ ब्रह्मबुद्धिविगत् । तस्मात्तमन्यतमयं ॥ तस्याभिध्यायतः स तदा वै मुद्धिपूर्वकम् ॥३० प्रधान समकाले च प्रादुर्भूतस्तमोमयः । तमो मोहो महामोहस्तामित्रो हा घसंज्ञितः ॥३१ अविद्या पाप्रादुभूता महात्मनः । पधावस्थित चैव बीजकुम्भलतावृताः । ६२ सर्वतस्तमसा चैन बीजकृम्भलतावृताः । वहितश्चाप्रकाणस्तथानिः संज्ञ एव च ॥३३॥ Brahmanda Purana PDF Book Download
यस्मासेषां कृता बुद्धि यानि करणानि च। तस्माच्च संवृतात्मानो नगा मुख्याः प्रकीर्तिताः ॥३४ मुख्यतयोद्भूतं रष्ट्वा ब्रह्मात्मसंभवः । अप्रतीतमनाः सोऽथ तदोत्पत्तिमयम्मत ||३५ अनेक प्रकार की प्रजाओं का सृजन करने की इच्छा वाले ब्रह्माजी ने जो स्वयम्भू भगवान हैं अनेक लोकों की कल्पना करके उन्होंने प्रजाओं का सृजन किया था 1२६| पहिले कल्प आदि में जो स्वरूप था उसी रूप की सृष्टि का सृजन किया था।
उस सृजन का अभिध्यान करते हुए उन्होंने बुद्धि पूर्वक ही सगँ किया था 1३० प्रधान के समकाल में तम से पूर्ण प्राभूत हुआ था। उस तम का मोह-महामोह- तामिस्र और अन्ध-ये सजाए बाँ ३१ उन महान मा वाले को पञ्च पर्वा अविद्या प्रादुभूत हुई थी एवं उन श्रभिमानी और ध्यान करने वाले ब्रह्माजी का वह सगँ भी पाँच प्रकार का व्यवस्थित हुआ था |३२| सभी ओर बीज-कुम्भ और लताएँ हम मे आवृत से और बाहिर तथा अन्दर प्रकाश नहीं था तथा सब निःसं ||३|
जिससे उनकी वृद्धि की गयी थी और दुःख तथा करण हुए थे और उससे संतापले नगर मुख्य कहे गये है ।१४1 अपने आप हो समु- नहुने उम समय में मुख्य वर्ग में उद्धृत को देखा था और अपने मन में प्रतीति करने वाले उन्होंने उस समय में उत्पति ही मान ५ तस्याभिध्यायश्चान्यस्ति यतोऽभ्यवर्तत । आराधना की थी और उसका अर्थ तथा दूसरी कथा को श्रवण करने की इच्छा की थी। Brahmanda Purana PDF Book Download
आज से लेकर कल्पेश प्रति सन्धि कहा जाता है |स बीत हुए कल्प का और वर्तमान कल्प की इन दोनों का अन्तर और जहाँ पर उन दोनों की प्रतिसन्धि है। यह मैं जानना चाहता हूँ क्योंकि आप ठीक प्रकार से यह बताने के लिए परम कुशल है 131 कापेय के द्वारा इस प्रकार से पूछे जाने पर प्रवचन करने वालों में श्रेष्ठ सूतजी ने यह सम्पूर्ण ही करने का उपक्रम किया था |४|
श्री सूतजी ने कहा था- है सुन्दर व्रतों वालो ! इस विषय में जो कुछ भी है वह सभी यथार्थ रूप से वर्णन करूंगा। कल्प जो हो गये हैं और आगे होने वाले हैं तथा इन दोनों की जो प्रति सन्धि है- इसको भी बताऊंगा 1५। इन कल्पों में जो-जो भी मन्वन्तर है और जो यह कल्प वर्तमान है वह इस समय कल्प परम शुभ वाराह है |६| इस कल्प से पूर्ण में होने वाला जो कल्प था जो कि सनातन व्यतीत हो गया है उसकी और इस कल्प की जो मध्य में होने वाली अवस्था है उसका ज्ञान अब प्राप्त करलो |ol
प्रत्यागते पूर्वकल्पे प्रतिसंधि विनाऽनघाः । अन्यः प्रवर्त्तते कल्पो जनलोकादयः पुनः ॥८ छिन्नप्रतिसंधिस्तु कल्पात्कल्पः परस्परम् । म्युच्यते प्रजाः सर्वाः कल्पांत सर्वशस्तदा ॥ तस्मात्कल्पात्तु कल्पस्य प्रतिसंधिनं विद्यते । मन्वंतरे युगाख्यानामविच्छिन्नास्तु संघयः ॥१० परस्परात् प्रवर्तते मन्यतरयुगंः सह । उक्त क्रियान पूर्वकल्पाः समासतः ॥ पराई कल्पानां पूर्वी यस्मात मः परः । आत्मा में परास्तु ॥२ भविष्या से पराय गुणीकृताः । प्रथमः प्रतस्तेषां कल्पो वर्तते Brahmanda Purana PDF Book Free
स्मिन् परा तु द्वितीयः पर उच् एका प्रत्याहारस्वतः स्मृतः सिद्ध और चारण निवास किया करते हैं। उनका अम्बर निष्कम्भ नौ सहस्र योजन कहा जाता है ।२३। मध्य में इलावृत नाम वाला गिरि है जो महामेर के समंतम है। यह भी इसी प्रकार से मो सहल ही सब ओर से विस्तार वाला है | २४| इसके मध्य में महा है जो धूम से रहित अग्नि के समान देवीप्यमान है मेट के बेदी का अर्थ दक्षिण है तथा उत्तर भाग उत्तर है |२| जो वर्ग है उनके जो वर्ष त है ऊंचाई से दो-दो सहस्र योजन विस्तीर्ण हैं ।२६।
जम्बू द्वीप के विस्तार से उनका आयाम कहा जाता है। वो गिरि यो सहम योजन वागत है ।२७ नील और निषध उन दोनों से जो दूसरे हैं ने हीन हैं। श्वेत-हेमकूट— हिमवान तथा बाद नवती अणीती सहस्राण्यायतास्तु तैः । तेषां मध्ये जनपदास्तानि वर्षाणि सप्त वै ।।२९ प्रपातविषमेतैस्तु पर्वतरावृतानि तु । पृथ्वी व्यायामविस्तर संततानि नदीमेरगम्यानि परम्परम् ॥३० वसति तेषु याति नानाजातीनि सर्वशः । इदं हैमवतं वर्ष भारतं नाम विश्रुतम् ॥३१ हेमकूटं परं यस्मान्नाम्ना किंपुरुषं स्मृतम् ।
हेमकूटा हरिवर्ष तदुच्यते ।।३२ हरिवर्षात्परं चापि मेरो तदिलावृतम् । इलावृतात्परं नीलं रम्यकं नाम विश्रुतम् ॥ ३३ रम्यकात्परतः श्वेतं विश्वतं तदिरण्मयम् । हिरण्मयात्परं चैव भवतः स्मृतम् ॥३४ धनुः संस्थे तु विज्ञेये वर्षे दक्षिणोत्तरे । दीर्घाणि तत्र चत्वारि मध्यमं तदिलावृतम् ।। ३५ उर मेहार-कोलाहलसमुख मैनाकबा आमिर और पापुर पर्यंत है॥ Brahmanda Purana PDF Book Free