Kurma Purana PDF in Hindi – कुर्मा पुराण हिंदी

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स्वाध्याये चैव निरतो वनस्थस्तापसो मतः। तपसा कर्षितोऽत्ययस्तु ध्यानपरो भवेत्॥ ८२॥ मांन्यासिकः स विज्ञेयो वानप्रस्थाश्रमे स्थितः। योगायोः ॥८२॥ ज्ञानाय वर्तते भिक्षुः प्रोच्यते पारमेष्ठिकः । यस्यात्मरतिरेव स्यात् महामुनिः ॥८३॥ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः स योगी मिक्षिरुच्यते । ज्ञानसंन्यासिनः केोऽपरे। सर्वेषु वेदशास्त्रेषु नो एवं वर्णाश्रमान् देवः॥८८॥ दहावा विविधाः प्रजाः। ब्रह्मणो वचनात्पुत्रा दक्षाद्या मुनिसत्तमाः ॥ ८९ ॥ असृजन प्रजाः सर्वे देवाः इत्येव भगवान् ब्रह्मा त्वे संव्यवस्थितः ॥ ९० ॥

Kurma Purana PDF Book

Name of Book Kurma Purana
PDF Size 21.6 MB
No of Pages 398
Language  Hindi
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About Book – Kurma Purana PDF Book

अहं वै पालयामीदं संहरिष्यति शूलभृत्। रजः सत्त्वतमोयोगात्परस्य परमात्मनः । कुटुम्ब के भरण-पोषण में तत्पर रहने वाला गृहस्थ साधक होता है और जो तीन प्रकार के ऋण को दूर करके पत्नी और धन आदि का त्याग कर मोक्ष के इच्छुक जो एकाकी विचरता है उसे उदासीन कहते है। जो बन में तपस्या करता है, देवों की पूजा तथा यज्ञ करता है और स्वाध्याय में तत्पर रहता है, उस तपस्वी को वानप्रस्थी कहते हैं।

जो तप के द्वारा क्षीणकाय होकर ध्यानमग्न रहता है उसे वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाला संन्यासी समझना चाहिए। जो सदा योगाभ्यास में निरत, जितेन्द्रिय, अपने लक्ष्य पर आरोहण के इच्छुक और ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नात भिक्षुक पारमेष्ठिक कहा जाता है। जो आत्मा में हो रमण करने वाला, सदा आनन्दमग्न अत्यन्त मननशील और सम्यग् दर्शन सम्पन है वह योगी भिक्षु कहलाता है। उनमें भी कोई ज्ञानसंन्यासी हुआ करते हैं और कोई वेदसंन्यासी होते हैं।

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अन्योन्यमनुरक्तास्ते ह्यन्योन्यमुपजीविनः ॥ १२ ॥ अन्योन्यप्रणताव लीलया परमेश्वराः । ब्राह्मी माहेश्वरी चैव तथैवाक्षरभावना ॥ ९३॥ तिस्तु भावना रुद्रे वर्त्तन्ते सततं द्विजाः। प्रवर्तते मय्यजत्रामाद्या त्वक्षभावना ।। ९४ ।। द्वितीया ब्रह्मणः प्रोक्ता: देवस्याक्षरभावना अहं चैव महादेवो न भिन्नः परमार्थतः ॥ ९५ ॥ समस्त वेदशास्त्रों में पंचम आश्रम की गणना नहीं है। इस प्रकार देवाधिदेव, निरंजन, विश्वात्मा प्रभु ने वर्णाश्रमों की सृष्टि करके दक्ष आदि ऋषियों से कहा- आप लोग अब विविध प्रजाओं का सृजन करें।

ब्रह्मा के वचन सुनकर उनके पुत्र दक्ष आदि मुनिवरों ने सब देवता, मनुष्य आदि विविध प्रजा की सृष्टि की। इस प्रकार सृष्टि के कार्य में संव्यवस्थित होकर भगवान् ब्रह्मा ने कहा- मैं हो सृष्टि का पालन करूंगा और शंकर इनका संहार करेंगे। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमो गुण 1 के योग से उस परम पिता परमात्मा की तीन मूर्तियां है। जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहते हैं। ये एक दूसरे में अनुरक्त और परस्पर उपजीवी है। परमेश्वर को लीला से पे एक-दूसरे की ओर प्रणत रहते हैं। ब्राह्मी, माहेरी और

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कन्या के पापेक्षिकाः। योगी यो ज्ञेयो भौतिक सांख्य एव च॥८५॥ तृतीय प्रयोगमुत्तममाश्रितः। प्रभाव पूर्वे भावना॥८६॥ तृतीयलिया का भावना परमेश्वरी यस्मात्तिर्यक् प्रवृत्तः स तिर्यक्त्रोत: वतः स्मृतः । पचादयस्ते विख्याता उत्पत्राहिणो द्विजाः ॥ ६ ॥ द्विजश्रेष्ठो ये पाँच प्रकार की प्रमुख सर्ग कहे गये हैं। उनमें महत् से उत्पन्न प्रथम सृष्टि (सर्ग) है, उसीको ब्रह्मा तन्मात्राणां द्वितीयस्तु भूतसर्गो हि संस्मृतः । वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः ।। १४ ।।

तमप्यसाधकं ज्ञात्वा सर्वमन्यं ससर्ज ह। अवस्रोत इति प्रोको देवसर्गस्तु सात्त्विकः ॥ ७ ॥ तन्मात्र की द्वितीय सृष्टि है, जिसे भूतसर्ग कहा गया है। तीसरी वैकारिक सृष्टि ऐन्द्रियक नाम से कही गई है। इत्येष प्राकृतः सर्गः संभूतो बुद्धिपूर्वकः । मुख्यस्तु मुख्या वै स्थावराः स्मृताः ॥ १५ ॥ उसको भी असाधक समझकर उन्होंने अन्य सृष्टि का सम्पादन किया। वह सात्विक (सत्वगुणप्रधान) देवसृष्टि थी, जिसे ऊर्ध्वखोतस् कहा गया। से सुखप्रतिबला बहिरन्तस्त्वनावृताः ।

यह प्राकृत सर्ग बुद्धिपूर्वक संभूत है। वह चतुर्थ मुख्यसर्ग है। वे मुख्य ही स्थावर कहे गये हैं। तिर्यक्त्रोतस्तु यः प्रोक्तस्तिर्यग्योन्यः स पञ्चमः। तयोर्ध्वस्रोतसां षष्ठो देवसर्वस्तु स स्मृतः ॥ १६ ॥ प्रकाशा वहिरन्त स्वभावादेवसंज्ञिताः ॥ ८ ॥ वे सभी अधिक सुखमय एवं प्रोति वाले थे और बाहर- भीतर से अनावृत एवं स्वभावतः बाहर और भीतर प्रकाशित होने वाले थे। से देवसंज्ञा को प्राप्त हुए। जो तिर्यक स्रोत कहा गया है, वह तियं योनि (पशुपक्षी आदि) वाली पंचम सृष्टि है। उसी प्रकार Kurma Purana PDF Book

ततोऽभिध्यायतस्तस्य सत्याभिध्याविनस्तदा। उर्ध्वस्रोत वालों का हा देवसर्ग कहा गया है। ततोऽस्रोतसां मर्गः सप्तमः स तु मानुषः। अष्टमो भौतिकः सर्गो भूतादीनां प्रकीर्तितः ॥ १७ ॥ तदनन्तर सत्य का चिन्तन करते हुए वे उस समय ध्यान करने लगे। तब व्यक्त से अर्वाक् स्रोतः साधक सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ था। उसके बाद अवांक स्रोत वालों को सातवीं मानुषी सृष्टि है। अष्टम भूतादियों की भौतिक सृष्टि कही गई है। दुःखोत्कटाः सत्ययुता धनुष्याः परिकीर्तिताः ॥ १० ॥

नवम्व कौमारः प्राकृता वैकृतास्त्वमे वहाँ उत्पन्न हुए प्रकाशबद्दल, तम उद्रिक्त, रज को अधिकता वाले, दुःखोत्कट, (फिर भी कुछ) सत्वयुक्त से मनुष्य नाम से कहे गये। प्राकृतास्तु त्रयः पूर्वे सर्गास्ते बुद्धिपूर्वकाः ॥ १८ ॥ होने नवम कौमार सृष्टि है जो प्राकृत और वैकृत दोनों हैं। पूर्व में तीनों प्राकृत सर्ग बुद्धिपूर्वक सम्पन्न हुए हैं। मुख्यादिसर्ग-कथन) कूर्म उवाच एवं भूतानि सृष्टानि स्वावराणि चराणि चा यदास्य ताः प्रजाः सृष्टा न व्यवर्द्धन धीमतः ॥ १॥ यो विजन्मनः ॥८॥ सा देवी शतरूपाख्या तपः कृत्वा वरम्॥ 

कूर्म बोले- इस प्रकार स्थावर और चररूप भूतों की सृष्टि हुई। परन्तु धीमान् प्रजापति द्वारा उत्पन्न उन प्रजाओं की तस्माच्च शतरूपा सा पुत्रइयमसूक्त ॥ १०॥ वह नारी योग के ऐश्वर्य तथा बल से युक्त थी और ज्ञान विज्ञान से भी युक्त थी। अव्यक्तजन्मा पुरुष से जो विराद पुत्र हुआ, वही देवपुरुष मुनि स्वायंभुव मनु हुए। शतरूपा नामवाली उस देवी ने कठोर दुश्वर तप करके प्रदोष यश वाले मनु को ही पति के रूप में प्राप्त किया। उस मनु सेKurma Purana PDF Book

तब तमोगुण से आवृत ब्रह्मा दुःखी होकर शोक करने लगे। अनन्तर उन्होंने प्रयोजन को पूर्ण करने में समर्थ बुद्धि का अनुसरण किया। शतरूपा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। अवात्मनि समात्योमात्रा नियामिकाम्। रजः सत्त्वं च संवृतं वर्तमानं स्वधर्मतः ॥ ३ ॥ मनुष्यम्। तयोः प्रसूति दक्षाय मनुः कन्यो ददे पुनः ॥ ११॥ उन दोनों के नाम प्रियवत और उत्तानपाद थे और दो अनन्तर उन्होंने नियामिका तमोमात्रा को अपनी आत्मा में देखा और अपने धर्म से संवृत रजोगुण और सत्त्वगुण को भी वर्तमान देखा।

उत्तम कन्यायें भी हुई। उनमें से प्रसूति नामक कन्या को मनु ने दक्ष को प्रदान कर दो। प्रजापतिरथाकृति मानम्रो जगृहे रुचिः। तमस्तु व्यनुदत्यचाद्रः सत्वेन संयुतः। ततमः प्रति वै मिथुनं समजायत॥ ४॥ पक्षात् तम का परित्याग कर दिया। रजस् सत्व से संयुक्त आकृत्या मिथुनं जज्ञे पारसस्य रुः शुभम् ॥ १२ ॥ हुआ। तम के क्षीण हो जाने पर वह मिथुन रूप में प्रकट यच दक्षिणां चैव दायां यज्ञस्य दक्षिणाय च पुत्रा दस जनिरे॥ १३ ॥

हुआ। आचरण विद्या हिंसा शुभक्षणा इसके बाद ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रजापति रूप ने आकृति नाम वाली (दूसरी) कन्या को ग्रहण किया। रुचि के आकृति से मानवसृष्टिरूप एक शुभलक्षण मिथुन का जन्म हुआ। उनका नाम पत्र और दक्षिणा था, जिन दोनों से यह संपूर्ण संसार संबंधित हुआ। दक्षिणा में यह के बारह पुत्रों ने तनुं स ततो ब्रह्मा तामपोहत भास्वरा॥५॥ है द्विजगण वह हिंसा अधर्म आचरण वालो और अशुभलक्षणा थी। तत्पात् ब्रह्मा ने अपनी उस भास्वर देह को बैंक लिया। Kurma Purana PDF Book

उवाच देवं ब्रह्माणं मेघगम्भीरनिःस्वनः ।। १५ ।। उस समय शेषशायी भगवान् विष्णु ने उनके मुख से उनके यह वचन सुनकर गरुडध्वज विष्णु ने कुछ हँसकर बाहर निकलकर पितामह से इस प्रकार कहा मेघ के समान गंभीर स्वर वाले होकर ब्रह्मदेव से कहा। भवनयेवमेवाहि प्रविश्य लोकान्पश्यैताविचित्रवर्ण।। २४ ।। भो भो नारायणं देवं लोकानां प्रभवाव्ययम्। महायोगीश्वरं मां वै जानीहि पुरुषोत्तमम् ॥ १६ ॥

हे ब्रह्मन्! आप मुझे लोकों की उत्पत्ति का स्थान हे पुरुषर्षभ। आज आप भी मेरे इस शात उदर में प्रवेश , करके इन विचित्र लोकों का अवलोकन करो। अविनाशी, महायोगीश्वर पुरुषोत्तम नारायण जानें। मयि पश्य जगत्कृत्स्नं त्वं च लोकपितामह। ततः प्रहादिनी वाणीं श्रुत्वा तस्याभिनन्द्य चा श्रीपतेरुदरं भूयः प्रविवेश कुशावजः ॥ २५ ॥ तदनन्तर मन को प्रसन्न करने वाली वाणी सुनकर और उनका अभिनन्दन करके पुनः कुशध्वज ने लक्ष्मीपति के पर्वतमहाद्वीप समुद्रः सप्तभिर्वृतम्।। १७ ।।

आप लोकपितामह हैं। इस सारा जगत् जो पर्वत और महाद्वीपों से युक्त तथा सात समुद्रों से घिरा हुआ है, उसे उदर में प्रवेश किया। तानेव लोकानार्थस्वानपश्यत्सात्यविक्रमः। पर्यटत्वा देवस्य ददृशेऽन्तं न वै हरेः ॥ २६ ॥ एवमाभाष्यविश्वात्मा प्रोवाच पुरुषं हरिः। जानपि महायोगी को भवानिति वेधसम् ॥ १८ ॥ सत्यपराक्रमी ने उनके अन्दर स्थापित सब लोकों को इस प्रकार कहकर विवात्मा हरि ने जानते हुए भी देखा। अनन्तर भ्रमण करते हुए उन्हें भगवान् हरि का अन्त नहीं दिखाई पड़ा। Kurma Purana PDF Book Download

पुराण- पुरुष ब्रह्माजी से पूछा- आप महायोगी कौन है? ततः प्रहस्य भगवान् ब्रह्मा वेदनिधिः प्रभुः। प्रत्युवाचासस्थित लक्ष्णया गिरा ॥ १९ ॥ तब कुछ हँसते हुए वेदनिधि प्रभु भगवान् ब्रह्मा ने मधुर अनन्तर महात्मा जनार्दन ने सारे द्वार दन्द कर दिये। तब ततो द्वाराणि सर्वाणि पिहितानि महात्मना। जनानिन ब्रह्मासी नाभ्यां द्वारमविन्दत ।। २७॥

वाणी में कमल की आभा के समान सस्मित विष्णु को उत्तर ब्रह्माजी को नाभि में द्वार प्राप्त हुआ। तब योगबलेनासौ प्रविश्य कस्काण्डः उज्जहारात्मक रूपं पुष्कराराननः ॥ २८ ॥ अहं धाता विधाता च स्वयम्भूः प्रपितामहः। मय्येव सस्थित विप्रं ब्रह्मावितोमुखः ॥ २० ॥ में ही पाता, विधाता और स्वयंम्भू प्रपितामह हूँ। मुझमें वहाँ हिरण्यगर्भ चतुर्मुख ब्रह्मा ने योग के बल से अपने स्वरूप को पुष्कर से बाहर निकाला।

ही यह विश्वसंस्थित है। मैं ही सर्वतोमुख ब्रह्मा हूँ। श्रुत्वा वा च भगवान्विष्णुः सत्यपराक्रमः। योगेन प्रविष्टो ब्रह्मणस्तनुम् ॥ २१ ॥ विरार पि अनुज्ञाप्याय सत्यपराक्रम भगवान विष्णु ने यह वचन सुनकर पुनः पितामह भगवान् बाधा परा के अन्दर को कान्ति के समान उस समय कमल के भीतर वर्तमान जगद्योनि, स्वयम्भू उपदेश गरि ब्रह्मवादिभिः॥ २४७॥ यन्मे साक्षात् परं रूपमैश्वरं दृष्टमुत्तमम्। सर्वशक्तिसमायुक्तमनन्तं प्रेरकं परम्॥ २४८ ॥ Kurma Purana PDF Book Download

ज्ञानः समाहितः स्वित्परो भूत्वा तदेव शरणं व्रजः॥ २४९ ॥ उस धर्माचरण से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति से परमतत्त्व मोक्ष प्राप्त होता है। श्रुति स्मृति द्वारा प्रतिपादित वह धर्म यज्ञ आदि रूप में माना गया है। नान्यतो जायते धर्मो वेदाद्धर्मो हि निर्व तस्मार्मार्थी दू वेदमाश्रयेत् ॥ २५६ ॥ श्रीदेवी बोली- हे गिरिश्रेष्ठ! यह सर्वप्रथम गोपनीय ईश्वरगोचर तथा ब्रह्मवादियों से सेवित मेरा उपदेश सुनो, जो मेरा सर्वशक्तिसम्पत्र, अनन्त, परम अद्भुत एवं श्रेष्ठ प्रेरक ऐश्वर्यमय रूप है॥

उसमें निष्ठा रखते हुए शान्त, और समाहितचित्त होकर मान एवं अहंकार से वर्जित तथा उसी में निष्ठावान् एवं तत्पर होकर आप उसी की शरण में जाओ। भक्त्या वयात पद्भावं परमाश्रितः। अन्य किसी मार्ग से धर्म उत्पन्न नहीं होता। वेद से धर्म उत्पन्न हुआ है। इसलिए मुमुक्ष और धर्मार्थी को मेरे बेद स्वरूप का आश्रय लेना चाहिए। परा शक्तिर्वेदज्ञा पुरातनी ऋग्यजुः सामरूपेण सर्गादी संप्रवर्तते ॥ २५७ ॥ (क्योंकि) वेद नाम वाली मेरो ही पुरातनी श्रेष्ठ शक्ति है।

सृष्टि के प्रारंभ में यही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद रूप से सर्वयज्ञतपोदानैस्तदेवाय सर्वदा ॥ २५० ॥ हे तात! अनन्य भक्ति के द्वारा मेरे परम भाव का आश्रय ग्रहण करके सभी यहाँ तप एवं दानों द्वारा सदा उसी का अर्चन करें। तेषामेव च गुपर्व वेदानां भगवानजः । ब्राह्मणादीन्सस स्वे स्वे कर्मण्ययोजयत्॥ २५८ ॥ उन्हों वेदों के रक्षार्थ भगवान् अज ने ब्राह्मण आदि की ने सृष्टि को और उन्हें अपने-अपने कर्म में नियोजित किया। Kurma Purana PDF Book Download

तदेव मनसा पश्य तद्व्यायस्व यजस्व तत्। ममोपदेशान्संसारं नाशयामि तवान।। २५ ।। अस्यां परया भक्त्या ऐश्वयोगस्थितम्। संसारसागरादस्माद्धराम्यचिरेण ॥ २५२॥ मास्तरांस्तामिखादीनकल्पयत्॥ २५९॥ जो मेरे धर्म का आचरण नहीं करते हैं, उनके लिए ब्रह्मा द्वारा निर्मित अत्यन्त निम्नकोटि के शामिल आदि नरकों को मन से उसी को देखें, उसी का ध्यान करें और उसी का वजन करें। हे निष्याप! मैं अपने उपदेश से आपको संसारबुद्धि का नाश कर दूंगी।

परम भक्ति के कारण ऐवर बनाया गया है। योग में संस्थित आपका में इस संसार सागर से शीघ्र उद्धार यो रमते सोऽसन सम्मा द्विजातिथिः ॥ २६० ॥ कर्मयोगेन भवत्या ज्ञानेन चैव हि। विकको २५३॥ वेद से अतिरिक्त इस लोक में अन्य कोई भी शास्त्र धर्म का प्रतिपादक नहीं है। जो व्यक्ति इसे छोड़कर अन्य शाख में रमता रहता है, उसके साथ डिजातियों को बात नहीं कार्यहए।

हे गिरिखेड ध्यान, कर्मयोग, भतिज्ञान के द्वारा मुझे प्राप्त करना संभव है, अन्य प्रकार से करोड़ो कर्म करने। भविष्यति इषीकेशः स्वावितोऽपि परामुखः ॥ ३२ ॥ तुम लोग अपने संपूर्ण तपोबल का त्याग करके पुनः स जातमात्र देवेशमुपतस्थे कृताञ्जलिः ॥ ४० ॥ नरकों को प्राप्त हो जाओ अपना आश्रय बने भगवान् इपोकेश भी विमुख हो जायेंगे। Kurma Purana PDF Book Free

वीरभद्र इति ख्यातं देवदेवसमन्वितम्। वह महादेव की कान्ति से समन्वित वीरभद्र नाम से विख्यात था। वह जैसे ही उत्पन्न हुआ, हाथ जोड़कर देवेश्वर एवमुक्त्वा विप्रर्षिर्विराम तपोनिधिः । जगाम मनसा मशेषापविनाशनम्॥ ३३ ॥ के समीप खड़ा हो गया था। तमाह दक्षस्य मखं विनाशस्य शिवोऽस्तु ते।। एवमुक्त्वा तु भगवान् सपत्नीकः सहानुगः ॥ ७९॥ अदर्शनमनुप्रओ दक्षस्याधिततेजसः। अन्नास्ति महादेवे शंकरे पद्मसम्भवः ॥ ८० ॥

व्याजहार स्वयंप उनका ही समाराधन करो और यत्नपूर्वक अपनी ही आत्मा का विनाश करने वाली ईश की निन्दा का परित्याग कर दो। भवन्ति सर्वदोषाया निन्दकस्य क्रिया हि ताः । यस्तु चैव महायोगी रक्षको विष्णुरव्ययः ॥ ८७॥ स देवो भगवान्द्रो महादेवो न संशयः। तब तक मेरे आदेश से अपने अधिकारों से निवृत होते शिव की निन्दा करने वाले को वे सब क्रियाएँ केवल दोष के लिए ही हुआ करती है। यह जो महायोगी अव्यय विष्णु रक्षा करने वाले हैं॥

वह देव भगवान् रुद्र महादेव ही हुए स्थित रहो। इस प्रकार कहकर अपनी पत्नी तथा अपने अनुचरों के सहित भगवान् शम्भु उन अमित तेजस्वी दक्ष के लिए अदृश्य हो गये। महादेव शंकर के अन्तर्धान हो जाने हैं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है। पर पद्मसंभव ब्रह्मा जी ने स्वयं पूर्ण रूप से इस जगत् के हितकर वचन दक्ष प्रजापति से कहा। मन्यन्ते ते जगद्योनिं विभिन्नं विष्णुमीश्वरात्॥८८॥ Kurma Purana PDF Book Free

मोहादवेद नित्या यान्ति नरके नराः। वेदानुवर्तिनो रुद्रं देवं नारायणं तथा ॥ ८९ ॥ एकीभावेन पाति मुक्तिम यो विष्णुः स स्वयं रुद्रो यो रुद्रः स जनार्दनः ।। ९० ।। ब्रह्मोवाच- मोहः ॥८१॥ यदा च स स्वयं देवः पालयेामतन्द्रितः। सर्वेषामेव भूतानां इयेष परमेश्वरः॥८२॥ जो लोग जगत् के योनिरूप विष्णु को इंसर से भित्र मानते हैं, इसका कारण एकमात्र मोह हो होता है और वे मनुष्य अवेदनिष्ठ होने से नरक को प्राप्त करते हैं।

जो वेदों के अनुवर्ती मनुष्य होते हैं वे रूद्र देव और भगवान् नारायण को एकीभाव से हो देखा करते हैं और वे निक्षय हो मुक्ति के भाजन होते हैं। जो विष्णु हैं वे हो स्वयं रुद्र है और जो रुद्र है ये हो भगवान् जनार्दन है। जी ने कहा- जब वृषभध्वन शंकर प्रसन्न हो गये है, तब आपको यह मोह कैसा ? क्योंकि ये देव स्वयं अतन्द्रित होकर आपका पालन कर रहे हैं। यह परमेश्वर सभी भूतों के हृदय में विराजमान रहते हैं।