Click here to Download Linga Purana PDF in Hindi having PDF Size 14.4 MB and No of Pages 390.
सृष्टि का प्रारम्भ सूतजी कहते हैं – प्राथमिक रचना का जो समय है वह ब्रह्म का एक दिन है और उतनी ही रात्रि है। संक्षेप से वह प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन है। वह प्रभु दिन में सृष्टि करता है और रात्रि में प्रलय करता है। इस उपचार से ब्रह्मा का सृष्टि करने का समय रात कहलाता है। दिन में विकार (१६ प्रकार के) विश्वेदेवा, सभी प्रजापति, सभी ऋषि स्थिर रहते हैं। रात्रि में सभी प्रलय को प्राप्त होते हैं और रात्रि के अन्त में सभी फिर उत्पन्न होते हैं। ब्रह्मा का एक दिन ही कल्प है और उसी प्रकार की रात्रि है।
Linga Purana PDF Book
Name of Book | Linga Purana |
PDF Size | 14.4 MB |
No of Pages | 390 |
Language | Hindi |
Buy Book From Amazon |
About Book – Linga Purana PDF Book
हे ब्राह्मणो! चारों युगों के हजार बार बीतने पर १४ मनु होते हैं। चार हजार वर्ष वाला सतयुग कहा है, उतने ही सैंकड़ा तक तीन, दो एक शतक क्रम से संध्या और संध्यांश होते हैं। संध्या की संख्या छः सौ है जो संध्यांश के बिना कही गई है। अब त्रेता, द्वापर आदि युगों को कहता हूँ। १५ निमेष की एक काष्ठा होती है। मनुष्यों के नेत्रों के ३० पलक मारने के समय को कला कहते हैं। हे ब्राह्मणो! ३० कला का एक मुहूर्त होता है। १५ मुहूर्त की एक रात्रि तथा उतना ही दिन होता है।
फिर पित्रीश्वरों के रात दिन, महीना और विभाग कहते हैं। कृष्ण पक्ष उनका दिन तथा शुक्ल पक्ष उनकी रात है। पित्रीश्वरों का एक दिन रात मनुष्यों के ३० महीना होते हैं । ३६० महीनों का उनका एक वर्ष होता है। मनुष्यों के मान से जब १०० वर्ष होते हैं तब पित्रीश्वरों मनवन्तर और उनके अन्तरों के व्यासों तथा रुद्रों को इस समय आपसे कहता हूँ। वेद पुराण और ज्ञान के प्रकाशक व्यासों को यथाक्रम इस समय आपसे कहता हूँ।
Click here to Download Linga Purana PDF Book |
ऋतु, सत्य, भार्गव, अंगिरा, सविता, मृत्यु, शतकृतु, वशिष्ठ, सारस्वत, त्रिधात्मा, त्रिवृत, स्वयं, धर्म, नारायण, तरक्षु, अरुणि तथा कृतंजय, तृण, बिन्दू, रुक्ष, मुनि, शक्ति, पाराशर, जातुकर्ण्य और साक्षात् विष्णु स्वरूप श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनि व्यास हुए। अब आप लोग योगेश्वरों को क्रम से सुनिए- कल्पों और कल्पान्तरों में कलियुग में रुद्र और व्यासों के अवतारों के गौरव से असंख्य योगेश्वर हुए हैं। वाराह कल्प के वैवस्वत अन्तर के योगेश्वरों के अवतारों को इस समय कहता हूँ तथा पुनः औरों से कहूँगा ।
ऋषि बोले- इस समय आप वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर तथा ऊर्ध्व कल्प के सिद्धों को ही कहिये । रोमहर्षण जी बोले- हे ब्राह्मणो! स्वायंभू मुनि सबसे प्रथम इसके बाद स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, धर्मसावर्णि, विशंग, अविशंग, शबल, वर्णक नाम के मनु हुए। अकार से लेकर औकार तक मनु कहे गए हैं। श्वेत, पाण्डु, रक्त, सनक, सनन्द, सनातन, ऋभु सनत्कुमार, सुधामा, विरजा, शंखपाद, वैरज, मेघ, सारस्वत सुवाहन।
For More PDF Book Click Below Links….!!!
मेघवाह, महाद्युति, कपिल, आसुरि तथा पंचशिखामुनि, महायोगी धर्माता बाल्कल, महातेजस्वी, गर्ग, भृगु, अंगिरा, बलबन्धु, निरामित्र, तपस्वी केतु शृङ्ग, लम्बोदर, लम्ब, लम्बाक्ष, लम्बकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि साध्य, सर्व, सुधामा, काश्यप, वशिष्ठ, विरजा, अत्रि, देवसद, श्रवण, श्रविष्टक, कुणि, कुणबाहु, कुशरीर कुनेत्रक, कश्यप, उपनाश, च्यवन, बृहस्पति, उतश्यो, वामदेव, वाचश्रवा, सुधीक, श्यावाश्व, हिरण्यनाभ, कौशल्य।
लीगक्षि, कुशुमि, सुमन्तु, बर्बरी, विद्वान कबन्ध, कुशिकन्धर, प्लक्ष, वाल्भ्य, यणि, केतुमान, गोपन, भल्लावी, मधुपिङ्गश्नेतकेतु, उशिक वृहदश्व, देवल, शालिहोत्र, अग्निवेश, युवनाश्व, शरद्वस, छगल, कुण्डकर्ण, कुम्भ, प्रवाहक, उलूक, विद्युत, मण्डूक, आश्वलायन, अक्षपाद, कुमार, उलूकवत्स, कुशिक, गर्भ मित्र, क्रौरुष्य आदि इतने योगीश्वरों के शिष्य सभी आवर्ती के हुए हैं। ये सभी विमल, ब्रह्म भूमिष्ठ तथा ज्ञान और योग में परायण हैं तथा सभी पाशुपत हैं, सिद्ध हैं और अपने शरीर को भस्म में लपेटे रहते हैं।
इन शिष्यों के शिष्य प्रशिष्य तो सैकड़ों और हजारों हैं। जो पाशुपत योग को प्राप्त करके रुद्रलोक में स्थित हैं। ३६ मात्रा के ही कहे हैं। आनन्द की उत्पत्ति के योग के लिए प्रस्वेद, कम्पन, उत्थान, रोमांच, ध्वनि, अङ्गों का मोटन तथा कम्पन गर्भ में क्रमानुसार जप करना चाहिए। न्यायपूर्वक योग का सेवन करता हुआ स्वस्थपने को प्राप्त करता है। जैसे जंगल का मतवाला सिंह, हाथी तथा आठ पैर वाला शरभ नाम का पशु स्वस्थ घूमते हैं, वैसे ही योगी भी निर्द्वन्द विचरते हैं। Linga Purana PDF Book
योग के अभ्यास से व्यसन (शौक) नहीं लगते। इसका अभ्यास करते हुए मुनि लोगों को मन और वाणी से उत्पन्न दोषों को जला देना चाहिए। बुद्धिमान लोग प्राणायाम से भली भांति दोषों को नष्ट करते हैं तथा स्वाँस के द्वारा उन्हें जीर्ण ॐ श्री लिंग पुराण कर लेते हैं। प्राणायाम से ही दिव्य शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति तथा प्रसाद आदि सिद्धियों को साथ लेते हैं। हे द्विजो! इन चारों में प्रथम शान्ति कही गई है। सहज ही आये हुए पापों को नष्ट कर देना ही शान्ति है।
भली प्रकार वाणी के द्वारा संयम करना अशान्ति है। प्रकाश को दीप्ति कहा गया है। बुद्धि के द्वारा सभी इन्द्रियों को तथा वायु को भी वश में करना प्रसाद कहा गया है। इन चारों में प्रसाद तो अपने अन्दर ही होता है। इसमें प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कुकर, देवदत्त, धनंजय आदि दस पवनों को भी जीतना पड़ता है। प्रयाण ( चलना) करती है, इससे वायु को प्राण वायु कहते हैं। आहार आदि क्रम से जो वायु नीचे की तरफ जाये, वह अपानवायु (पाद) है।
व्यान नाम की वायु अड़ों में व्याधियों पैदा करती है तथा ऊपर की ओर चलती है। मम को जो झकझोरती है वह उदान नाम की वायु कहती है। अट्टो को जो समान रूप से ले जाती है वह समान नाम की वायु है उद्गार सूतजी बोले- तीसवाँ कल्प रक्त नाम का कल्प कहा जाता है। इस कल्प में महान तेजस्वी ब्रह्मा लाल रंग को धारण करते हैं। पुत्र की कामना से महान तेजस्वी ब्रह्मा जी ने परमेष्ठी शिव का ध्यान किया तब एक महान तेजस्वी कुमार प्रगट हुए। Linga Purana PDF Book
जो लाल रंग के आभूषण और लाल ही वस्त्र तथा माला पहने हुए थे। उनके लाल नेत्र थे तथा वे बड़े ही प्रतापवान थे। रक्त वस्त्र पहने हुए उन महान आत्मा कुमार को देखकर ध्यान के सहारे से ये देव ईश्वर हैं, ऐसा जान लिया और उनको ब्रह्मा जी ने प्रणाम किया। उम वामदेव भगवान की ब्रह्मा जी ने ब्रह्म मानकर स्तुति की। हृदय में प्रतीत हुए उन वामदेव ने ब्रह्मा जी से यह कहा कि हे पितामह! आपने मुझे पुत्र की कामना से ध्यान किया है तथा यहा जानकर बड़ी भक्ति से मेरी स्तुति की है।
इससे आप हर एक कल्प में ध्यान योग्य के बल को प्राप्त करके मुझ सभी लोकों के दाता ईश्वर को जान सकोगे। इसके बाद उस महान आत्मा के द्वारा विशुद्ध ब्रह्म तेज से युक्त महान चार कुमार प्रकट हुए। उनके नाम विरिजा, विवाह, विशोक और विश्व भावना है। ये चारों बड़े भारी ब्रहाण्य और ब्रह्म के समान ही वीर और अध्यवसायी हुए, जो रक्त दाब और रक्त माला को धारण करने वाले तथा लाल चन्दन का लेपन करने वाले हैं। बीज तथा योनी तीनों ही नाम वाले भगवान महेश्वर हैं।
इस लिंग में अकार तो बीज है प्रभु ही बीजी हैं तथा उकार योनि है। अन्तरिक्ष आदि एक सोने के पिंड में लिपटा हुआ एक अण्ड था। अनेकों वर्षों तक वह दिव्य अण्ड भली भांति रखा रहा। हजारों वर्षों के बाद उस अण्ड के दो भाग हो गये। उस सुवर्ण के अण्ड का ऊपर का कपाल जैसा भाग आकाश कहलाया तथा नीचे का कपाल जैसा भाग रूप, रस, गन्ध आदि पाँच लक्षणों सहित पृथ्वी जाननी चाहिये। उस अण्ड से अकार नाम वाले चतुर्मुख ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए हैं, जो सम्पूर्ण लोकों के रचने वाले हैं। Linga Purana PDF Book
इस प्रकार वेदों के जानने वाले ऋषि लोग उस ॐ का वर्णन करते हैं। इस प्रकार यजुर्वेद के जानकारों के वचनों को सुनकर ऋण और सामवेद के ज्ञाता भी आदर सहित यही कहते हैं कि वह ऐसा ही है। अकार उस ब्रह्म का मूर्धा अर्थात् दीर्घ ललाट है। इकार दायाँ नेत्र है ईकार वाम नेत्र है, उकार दक्षिण कान है, अकार बायाँ कान है, ऋकार उस ब्रह्म का दायाँ कपोल है, ऋकार उसका बायाँ कपोल है तथा लृ लृ उसके दोनों नाक के छेद हैं।
एकार उसका होंठ है, ऐकार उसका अधर है। ओ और औ क्रमशः उसकी दोनों दन्त पंक्ति हैं। अं उसका शाश्वत मेरा भी उदर है उसम मा प्रवेश करके आप सभी चीजों को देखेंगे तब उनकी विस्मय की आनन्दमयी वाणी को सुनकर ब्रह्माजी उन श्रीपते हरि के उदर में प्रवेश कर गए। उनके पेट में अनेकों वर्षों तक घूमते रहे, परन्तु उनका अन्त नहीं देखा। तब भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी की गति पहचान कर अपने शरीर के सभी द्वार बन्द कर लिए, यहाँ तक कि सूक्ष्म से सूक्ष्म छिद्र भी बन्द कर दिए।
सभी द्वारों को बन्द जान कर अपने शरीर को सूक्ष्म करके कमल की नली के द्वारा ब्रह्मा जी बाहर आये। तब दोनों में उस समुद्र के बीच में ही संघर्ष होने लगा। उसी अवसर पर शूलपाणी महादेव जी वहाँ आए। शीघ्रता से चलते हुए उनके पैरों से पीड़ित जल की बड़ी बड़ी बूंदें शीघ्र ही आकाश में उठ गई और अति गर्म और अति शीतल वायु चलने लगी। Linga Purana PDF Book Download
इस प्रकार का आश्चर्य देखकर ब्रह्मा जी विष्णु से बोले- जल की गर्म और ठण्डी बूंद और वायु कमल को भी कम्पायमान कर रही हैं, सो आप कहो कि आपसे अन्य यह और कौन है तथा आप क्या करने की इच्छा कर रहे हो। ब्रह्मा जी के द्वारा मुख से ऐसा कहने पर भगवान बोले कि कमल पर स्थित तुम को क्यों ऐसा संशय हो रहा है। इस पर वेद निधि ब्रह्मा जी बोले कि मैं पूर्व तुम्हारे जानने की इच्छा से उदर में घुसा था। मेरे उदर में जैसे लोक हैं, हे प्रभो। वैसे ही मैंने आपके भी उदर में देखे।
तुमको वश में करने की इच्छा से हजार वर्ष तक घूमा तब है महाभाग ! आपके शरीर के सब द्वारा बन्द हो गए। तब तो विचार पूर्वक अपने तेज से नाभि प्रदेश कमल सूत्र से निकल कर बाहर आया। हे प्रभो। अब आपको कुछ भी खेद नहीं होना चाहिए। अब मेरे समान तेज वाले दीर्घ मुख वाले अद्भुत रूप शिवजी को देखकर ब्रह्मा नारायण से बोले- यह अप्रमेय शरीर वाला बड़े मुख और बड़े दाँतों वाला जिसके सिर के बाल बिखरे हुए हैं।
दश भुजा वाले, मूँज की मेखला वाले भयंकर शब्द करने वाले महान कान्ति से युक्त यह कौन है जो आकार से और ज्यादा व्याप्त हो रहे हैं ? यह कौन आ रहे हैं ? ब्रह्मा के पूछने पर नारायण बोले- – जिनके द्वारा वेग पूर्वक चलने से समुद्र का जल इनके पैर के तलों से उठकर आकाश में जलाशय हो गए हैं। ऐसा मालूम हो रहा है कि ये भवानी पति महादेव जी आ रहे हैं। जिस जल की मोटी मोटी जलधारा से तुम भीगे जा रहे हो तथा जिनकी श्वास की वायु से मेरी नाभि में स्थित कमल भी काँप रहा है। Linga Purana PDF Book Download
अतः ये प्रलय करने वाले श्री महादेव जी ही आ रहे हैं। आओ हम तुम दोनों वृषध्वज महादेव जी की स्तुति करें। यह सुनकर ब्रह्मा क्रुद्ध होकर विष्णु से बोले- कि आप अपने को लोक का स्वामी जानते हो और मुझको लोकों का रचने वाला ब्रह्मा जानते हो, हम दोनों के अतिरिक्त यह शंकर नाम वाला और कौन है ? ऐसे क्रोध के वचन ब्रह्मा के द्वारा सुनकर श्री विष्णु भगवान बोले- ऐसा कहकर महात्मा शंकर की निन्दा मत करो।
महा योगेश्वर दुराधर्ष वरप्रद इस जगत के कारण पुरुष बीजी ज्याति स्वरूप शंकर हैं, बालकों के खिलौने की तरह वह क्रीड़ा करते हैं। उसे ही प्रधान, अव्यक्त, योनी, अविनाशी, अव्यय कहते हैं, वह शिव ही है। ब्रह्मा जी ने पूछा-हे भगवान! आप योनि हो, मैं बीज हूँ। महेश्वर कैसे बीजी हैं? भगवान बोले- कि शिव से अधिक और कोई गुह्य वस्तु नहीं है। महत् का भी परम तत्व
भक्ति प्रदान की तथा ब्रह्मा जी से बोले-हे वत्स! तू. सभी लोकों का कर्त्ता होगा तेरा कल्याण हो। ऐसा कह कर भगवान शंकर ने ब्रह्मा को अंगुलियों से स्पर्श किया और पुनः कहा कि हे वत्स! तुम मेरे समान ही हो तुम पितामह की संज्ञा वाले भी होगे। ऐसा कहकर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये। भगवान शंकर के चले जाने पर पद्मयोनि ने गोविन्द भगवान से पितामह ऐसी नाम वाली संज्ञा प्राप्त की। प्रजा की रचना के लिये ब्रह्मा जी ने बड़ा उग्र तप किया किन्तु उस तप से कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। Linga Purana PDF Book Download
तब दीर्घकाल तक तप करने पर ब्रह्मा जी के नेत्रों से आँसू निकलने लगे तब उन आँसुओं से वात, पित्त, कफ से युक्त, स्वास्तिक से युक्त, बड़े-बड़े केशों सहित महा-विषैले सर्प उत्पन्न हुए। उन्हें देखकर ब्रह्मा जी बोले- कि मेरी तपस्या का ऐसा फल है तो मेरे लिए धिक्कार है क्योंकि यह लोकों को विनाश करने वाली प्रजा है। इस प्रकार क्रोध और पश्चाताप से ब्रह्मा जी को मूर्छा हो गई और उसी समय प्रजापति ब्रह्मा ने प्राणों को त्याग दिया।
किन्तु उनको इस प्रकार शरीर त्यागने पर उनके शरीर से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए, जो उत्पन्न होते ही रोने लगे। रोने के कारण ही वे रूद्र कहलाये। ये रुद्र ही ब्रह्मा के प्राण हैं तथा यह प्राणियों के भी प्राण हैं जो सभी जीवधारियों में समाये हैं। महाभाग साधु ब्रह्मा के इस उम्र कार्य से प्रसन्न होकर उन रूद्रों ने उन्हें फिर से प्राण देकर जीवित कर दिया।
तब तो प्रणों को प्राप्त कर ब्रह्म जी ने उन देवेश्वर भगवान शंकर की गायत्री के सहित पूजा उपासना की। उन विश्वेश्वर को सर्वलोकमय देखकर आश्चर्य पूर्वक बारम्बार प्रणाम किया और शिव से पूछने लगे कि हे तब मेरा तत्पुरुष नाम हुआ जो मुझ रुद्र को तथा वेद माता गायत्री रुद्राणी को तप से युक्त होकर जानेंगे वे फिर लौटकर नहीं आयेंगे। इसके बाद जब मैं कृष्ण वर्ण का उत्पन्न हुआ, तब वह कल्प भी कृष्ण नाम से कहा गया। Linga Purana PDF Book Free
उस समय मैं काल के सदृश तथा लोक प्रकाशक हुआ है ब्रह्मन्! तब मुझको घोर पराक्रमशाली तुमने जाना। उस समय गायत्री भी कृष्ण लोहिता और कृष्णांगी हुई। ब्रह्म संज्ञा वाली गायत्री जिस समय उत्पन्न हुई उस समय मैं पृथ्वी पर घोरत्व को प्राप्त हुआ ऐसा जो मुझको भूतल पर जानेंगे उनके लिए मैं अपोर शान्त तथा अविनाशी हूँगा। हे ब्रह्मन् जब मेरा विश्वरूप हुआ, तब तुमने मुझे परम समाधि से जान लिया। तभी लोक भारिणी विश्वरूपा गायत्री उत्पन्न हुई।
जो विश्वरूप वाले मुझको भूतल पर जानेंगे, उनके लिए मैं शिव और सौम्य हूँगा। ॐ श्रीलिंग पुराण इससे यह कल्प विश्वरूप नाम वाला कहा है और विश्वरूपा गायत्री कही है। सर्व रूप मेरे चार पुत्र हैं, जो लोक सम्मत हैं। जिससे प्रजा के सभी वर्ण उत्पन्न होंगे तथा सभी वर्णों में सर्व भक्ष्य और पवित्र भी होंगे। मोक्ष, धर्म, अर्थ और काम नाम वाले ये पुत्र हैं। वेद भी चार प्रकार के होंगे चार प्रकार के ही वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र) होंगे, आश्रम भी चार प्रकार के होंगे तथा धर्म के चार पाद, चार ही मेरे पुत्र हैं। इसलिए चतुर्युग अवस्था में चराचर जगत अवस्थित हैं।