Markandeya Purana PDF in Hindi – मार्कंडेय पुराण हिंदी

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मार्कण्डेयजी बोले- मुनिश्रेष्ठ! यह मेरे लिये संध्यावन्दन आदि कर्म करने का समय है। तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर विस्तारपूर्वक देना है, अतः उसके लिये यह समय उत्तम नहीं है। जैसिने में तुम्हें ऐसे पक्षियोंका परिचय देता हूँ, जो तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर देंगे और तुम्हारे सन्देहका निवारण करेंगे। द्रोण नामक पक्षीके चार पुत्र हैं, जो सब पक्षियोंमें श्रेष्ठ, तत्त्वज्ञ तथा शास्त्रोंका चिन्तन करनेवाले हैं। उनके नाम हैं-पिङ्गाक्ष, विबोध, सुपुत्र और सुमुख वेदों और शास्त्रोंके तात्पर्यको समझने में उनकी बुद्धि कभी कुण्ठित नहीं होती।

Markandeya Purana PDF Book

Name of Book Markandeya Purana
PDF Size 17.7 MB
No of Pages 296
Language  Hindi
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About Book – Markandeya Purana PDF Book

ये चारों पक्ष पर्वतको कन्दरामें निवास करते हैं। तुम उन्होंकि पास जाकर ये सभी बातें पूछो। जैमिनिने कहा- ब्रह्मन् ! यह तो बड़ी अद्भुत बात है कि पक्षियोंकी बोली मनुष्योंकि समान हो। पक्ष होकर भी उन्होंने अत्यन्त दुर्लभ विज्ञान प्राप्त किया है। यदि तिर्यक्-योनिमें उनका जन्म हुआ है, तो उन्हें ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ ? वे चारों पक्षी द्रोणके पुत्र कैसे बतलाये जाते हैं? विख्यात पक्षी द्रोण कौन है, जिसके चार पुत्र ऐसे ज्ञानी हुए? उन गुणवान् महत्मा पक्षियोंको धर्मका ज्ञान किस प्रकार हुआ ?

समयको घटना है। एक बार नारदजीने नन्दनवनमें देवराज इन्द्रसे भेंट की। उनकी दृष्टि पड़ते ही इन्द्र उत्तकर खड़े हो गये और बड़े आदर के साथ अपना सिंहासन उन्हें बैठनेको दिया। वहाँ खड़ी हुई अधाराओंने भी देवर्षि नारदको विनीत भातसे मस्तक झुकाया। उनके द्वारा पूजित हो नारदजीने इन्द्रके बैठ जानेपर यथायोग्य कुशल प्रथके अनन्तर बड़ी मनोहर कथाएँ सुनायीं। उस बातचीतके प्रसङ्गमें ही इन्द्रने महामुनि नारदसे कहा- ‘देवर्षे!

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इन अप्सराओंमें जो आपको प्रिय जान पड़े, उसे आज्ञा दीजिये, यहाँ नृत्य करे। रम्भा मिश्रकेशी, उवंशी, तिलोत्तमा, घृताची अथवा मेनका- जिसमें आपकी रुचि हो, उसौका नृत्य देखिये।’ इन्द्रको यह बात सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारदजीने विन्यपूर्वक खड़ी हुई अप्सराओंसे कुछ सोचकर कहा- ‘तुम सब लोगोंमेंसे जो अपनेको रूप और उदारता आदि गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ मानती हो, वही मेरे सामने यहाँ नृत्य करे। ‘

मार्कण्डेयजी कहते हैं- मुनिको यह यात सुनते ही वे विनीत अप्सराएँ एक-एक करके आपसमें कहने लगी- अरी! मैं ही गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ हूँ, तू नहीं।’ इसपर दूसरी कहती, ‘तू नहीं, में श्रेष्ठ हूँ।’ उनका वह अज्ञानपूर्ण विवाद देखकर इन्द्रने कहा-‘ अरी! मुनिसे ही पूलो, वे ही बतायेंगे व्यवस्था करके उन बच्चोंका पालन-पोषण करने। लगे। एक महीना बीतनेपर ये पक्षियोंके बच्चे गये जितने सूर्य रथके अपने जागेका मार्ग है।

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उस समय आश्रमवासी मुनिकुमार कौतूहलभरे चञ्चल नेत्रोंसे उन्हें देख रहे थे उन पक्षिशावकोंने नगर, समुद्र और बड़ी यदी सहित पृथ्वीको वहाँसे रथ के पहियेके बराबर देखा और फिर आश्रमपर लौट आये। तिर्यक्-योनिमें उत्पन्न हुए वे महात्मा पक्षी अधिक उड़नेके कारण परिश्रमसे थक गये थे। एक दिन महर्षि शमोक अपने शिष्योंपर कृपा करनेके लिये उन्हें धर्मके तत्व का उपदेश कर रहे थे।

उस समय वहाँ महर्षि प्रभावसे उन पक्षियोंकि अन्तः- करणमें स्थित ज्ञान प्रकट हो गया। फिर तो उन सबने महर्षिको परिक्रमा की और उनके चरणाम मस्तक झुकाया। उत्पक्षात् वे बोले-‘मुने! आपने भयानक मृत्युसे हमारा उद्धार किया है। आपने हमें रहनेके लिये स्थान, भोजन और जल प्रदान किया है। आप ही हमारे पिता और गुरु है। हमलोग जब गर्भमें थे, तभी माताकी मृत्यु हो गयी।

पिताने भी हमारी रक्षा नहीं की आपने ही पधारकर हमें जीवनदान दिया और शैशव- अवस्थामें हमलोगों की रक्षा की हम कोड़ों को तरह सूख रहे थे, आपने हाथीके घण्टेको उठाकर ये हमें ज्ञान भी हो गया; अतः आधा दोनिये हम आपको क्या सेवा करें?” – पुराण रहे थे और अनेक उपस्त्रियोंक रखनेसे जहाँकी रमन बहुत गी थी। प्रतिदिन और जल देकर तथा सब प्रकार रक्षाको पक्षी बोले- ‘मुनिवर प्राचीन कालमें विपुलस्थान नामक एक श्रेष्ठ मुनि रहते थे, जिनके दो पुत्र हुए और तुम्बुरु कृप अपने चितको वशमें रखनेवाले महात्मा थे। Markandeya Purana PDF Book

उन्होंने हम चार पुत्रोंका जन्म हुआ। हम सब लोग विनय, सदाचार एवं भक्तिवश सदा विनीत भावसे रहते थे। पिताजी सदा तपस्यामै संलग्न रहते और इन्द्रियोंको काबूमें रखते थे। उस समय उन्हें जब जिस वस्तुकी अभिलाषा होती, हम उसे उनकी सेवामें प्रस्तुत करते थे। एक दिनकी बात है, देवराज इन्द्र पक्षीका रूप धारण करके यहाँ आये। उनका शरीर बहुत बड़ा था, पंख टूट गये थे। बुढ़ापेने उनपर अधिकार जपा लिया था।

उनकी आँखें कुछ-कुछ लाल हो रही थीं और सारा शरीर शिथिल जान पड़ता था। वे सत्य, शौच और क्षमाका पालन करनेवाले अत्यन्त उदारचित महात्मा मुनिश्रेष्ठ सुकृषकी परीक्षा लेने आये थे। उनका आगमन ही हमारे लिये शापका कारण बन गया। पक्षिरूपधारी इन्द्र ने कहा- विप्रवर। मुझे बड़े जोरकी भूख सता रही है. मेरी रक्षा कीजिये; महाभाग में भोजन की इच्छासे यहाँ आया हूँ।

आप मेरे लिये अनुपम सहारा बनें मैं विन्ध्यपर्वतके शिखरपर रहता था वहाँसे किसी प्रबल पक्षीके पंखसे प्रकट हुई अत्यन्त वेगयुक्त वायुके झोंके हमारे सकूटका निवारण किया। अब हम बड़े हो । खाकर पृथ्वोंपर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। एक संवाहक मुझे होश नहीं हुआ। आठवें दिन मेरी चेतना लौटो सचेत होनेपर में भूखसे शरणमें आया हूँ। इस समय मुझे तनिक भी चैन नहीं है। मेरे मनमें बड़ी व्यथा हो रही है। विमल त्रुटियाले महर्षि अब आप मेरी रखके लिये भोजन दीजिये, जिससे मेरी जीवन-यात्रा चालू के। Markandeya Purana PDF Book

मोक अपने पुत्र ऋषिव्याकुल हो गया और भोजनको इन्छा आपकी समस्त शिष्योंसे भिरे हुए बैठे थे उन्होंने जब उन पकी यह शुद्ध संस्कृतमयी मष्ट वाणी सुनी उन्हें उनके गेमा हो आया। पड़ी। उसे सुनकर जैमिनि बड़े विस्भवमें पड़े और इस प्रकार सोचने लगे अहो ये पक्षी बहुत ही स्पष्ट उच्चारण करते हुए पाठ कर रहे। अरकाटालु आदि जो स्थान है उसका जहाँसे उच्चारण हो रहा है। बोलनेमें कितनी शुद्धता और सफाई है।

ये अविराम पाठ करते जा रहे हैं, रुककर सांसतक नहीं लेते। शासकी गतिपर इन्होंने विजय प्राप्त कर ली है। किसी भी शब्द के उच्चारणमें कोई दोष नहीं दिखायी देता ये यद्यपि निन्दित योनिको प्राप्त हुए हैं. तथापि सरस्वतीदेवी इनको नहीं त्याग रही हैं। यह मुझे बड़े आश्रयकी बात जान पड़ती है। बन्धुवान्धवजन, मित्रगण तथा घरमें और जो प्रिय वस्तुएँ हैं, वे सभी साथ छोड़कर चली जाती। है: परन्तु सरस्वती कभी त्याग नहीं करती”

इस प्रकार सोचते-विचारते हुए महर्षि जैमिनिने विन्ध्यपर्वतको कन्दरामै प्रवेश किया। वहाँ जाकर उन्होंने देखा, ये पक्षी शिलाखण्डपर बैठे हुए पाठ कर रहे हैं। उनपर दृष्टि पड़ते ही महर्षि जैमिनि हमें भरकर बोले—’ श्रेष्ठ पक्षियों! आपका कल्याण हो मुझे व्यासजीका शिष्य जैमिनि समझिये। मैं आपलोगों का दर्शन करनेके लिये उत्कण्ठित होकर यहाँ आया है। Markandeya Purana PDF Book

आपके पिताने अत्यन्त क्रोधमें आकर जो आपलोगोंको शाप दे दिया और आपकी पक्षियोंकी योनिमें आना पड़ा, उसके लिये खेद नहीं करना चाहिने; क्योंकि वह सर्वथा क्का हो विधान था। तपस्याका क्षय हो जानेपर मनुष्य दाता होकर भी याचक बन जाते हैं स्वयं मारकर भी दूसरकि हायसे मारे जाते हैं तथा पहले दूसरोंको गिराकर भी स्वयं दूसरोंके द्वारा भावाभावको परम्परासे संसारके लोग निरन्तर व्याकुल रहते हैं आपलोगों को भी अपने परमें ऐसा ही विचार करके कभी शोक नहीं करना चाहिये शोध और होना ही ज्ञानका फल है।’

तदनन्तर उन धर्मात्मा पक्षियोंने पारा और अयके द्वारा महर्षि जैमिनिका पूजन किया और उन्हें प्रणाम करके उनको कुशल पूछी। फिर अपने पंखोंसे हवा करके उनको दूर की । जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम ले चुके, तब पक्षियोंने कहा-‘ब्रह्मन्! आज हमारा जन्म सफल हो गया। यह जीवन भी उत्तम जीवन बन गया क्योंकि आज हमें आपके दोनों चरण कमलोका दर्शन मिला, जो देवताओंके लिये भी बन्दनीय हमारे शरीरमें पिताजीके क्रोधसे प्रकट हुई भ अग्नि जल रही है ।

वह आज आपके दर्शनरूपी जलसे सिंचकर शान्त हो गयी। ब्रह्मन्! आप कुशलसे तो हैं ? आपके आश्रम में रहने वाले मृग, पक्षी, वृक्ष, लता, गुल्म, बाँस और भाँति- भाँति इन सबको कुशल है न? उनपर कोई संकट तो नहीं है? अब हमपर कृपा कीजिये और यहाँ अपने आगमनका कारण बतलाइये। हमारा कोई बहुत बड़ा भाग्य था, जो आप इन नेत्रकि अतिधि हुए।’ Markandeya Purana PDF Book Download

जैमिनि बोले- ‘पक्षीगण। मुझे महाभारत- शास्त्रमें कई सन्देह हैं। उन सबको पूछने के लिये पहले में भृगुकुलश्रेष्ठ महात्मा मार्कण्डेय मुनि पास गया था। मेरे पूछनेपर उन्होंने कहा- ‘विभ्यपर्वतपर द्रोणके पुत्र महात्मा पक्षी रहते हैं। ने तुम्हारे प्रश्रोंका विस्तारपूर्वक उत्तर देंगे।’ आपको उस मदरअ स्मरण किया करते थे। अपना सर्वस्व नि जानेके कारण राजा बहुत व्याकुल रहते थे। कुछ कालके बाद राजा हरिमन्द्र चाण्डालके वशमें होनेके कारण श्मशानघाटपर मुदके कपड़े (फन) संग्रह करनेके काम में नियुक्त हुए।

भण्डा उन्हें आज्ञा दी थी कि तुम क आनेकी प्रतीक्षामें रात-दिन यहाँ रही। यह आदेश पाकर राजा काशीपुरीके दक्षिण शमशान भूमि बने हुए शवमन्दिर में गये। उस श्मशानमें वहा भवर शब्द होता था। वहाँ सैकड़ों सिपारिने भरी रहती थों चारों ओर मुद्दोंकी खोपड़ियाँ बिखरी पड़ी थीं सारा श्मशान दुर्गन्धसे व्यास और अत्यन्त धूमसे आच्छादित था। उसमें पिशाच, भूत, बेताल डाकिनी और यक्ष रहा करते थे।

गिद्धों और गोदड़ोंसे भी वह स्थान भरा रहता था। झुंड के झुंड कुने उसे घेरे रहते थे। यत्र-तत्र कर लगे हुए थे सब ओरसे बड़ी दुर्गन्ध आतो थी। अनेको मृत व्यक्तियों बन्धुबान्धवोंक करुण- क्रन्दनसे वह शमशान भूमि बड़ी ही भयानक और कोलाहलपूर्ण रहती थी। हा पुत्र हा मित्र राजाकी बांध लिया और उन्हें डंडोंकी मारसे अचेत या करता हुआ वह अपने घरकी ओर से चला। उस समय राजाकी इन्द्रियाँ अत्यन्त व्याकुल हो गयी थीं। Markandeya Purana PDF Book Download

तदनन्तर राजा हरिचन्द्र चाण्डालके घरमें रहने लगे। ये प्रतिदिन सबो दोपहर और शामको निम्राङ्कित बातें गुनगुनाया करते थे। ‘हाय मेरी दीनमुखी पत्नी अपने आगे दीनमुख बालक रोहिता को देखकर अत्यन्त दुःखमें मग्र हो जाती होगी और उस समय इस आशासे कि राजा धन कमाकर हम दोनोंको छुड़ायेंगे, बारबार मेरा स्मरण करती होगी। उसे इसका पता न होगा ब्राह्मणको और भी अधिक धन देकर अत्यन्त संसर्ग जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।

राज्यका नाश, सुदोंका त्याग, पत्नी और पुत्रका विक्रय तथा अन्तमें महाकप्रामि अटो पह एकके बाद एक दुखों की परम्परा चल जाती है।’ जैमिनिने पूछा श्रेष्ठ पक्षियो। प्राणियोंकी उत्पत्ति और लय कहाँ होते हैं ? इस विषय में मुझे सन्देह है मेरे प्रखके अनुसार आपलोग इसका समाधान करें। जीव कैसे जन्म लेता है ? कैसे मरता है? और किस प्रकार गर्भमें पीड़ा सहकर माताके उदरमें निवास करता है? फिर गर्भसे बाहर निकलने पर वह किस प्रकार बुद्धिको प्राप्त होता है?

और मृत्युकालमें किस तरह चैतन्यस्वरूपके द्वारा शरीरसे विलग होता है। सभी प्राणी मृत्युके पश्चात् पुण्य और पाप दोनों का फल भोगते हैं; किन्तु वे पुण्य और माप किस प्रकार अपना फल देते हैं? ये सारी बातें मुझे बताइये, जिससे मेरा सब सन्देह दूर हो जाय। पक्षी बोले- महर्षे ! आपने हमलोगों पर बहुत बड़े प्रश्नका भार रख दिया। इसकी कहाँ तुलना नहीं है। महाभाग। इस विषयमें एक प्राचीन वृत्तान्त सुनिये पूर्वकालमें एक परम बुद्धिमान् भृगुवंशी ब्राह्मण थे। Markandeya Purana PDF Book Download

उनके सुमति नामका एक पुत्र था। वह बड़ा हो शान्त और जड़रूपमें रहनेवाला था। उपनयन संस्कार हो जानेके बाद उस बालकसे उसके पिताने कहा-‘सुमते। तुम सभी वेदोंको क्रमशः आद्योपान्त पढ़ो, गुरुको सेवामें लगे रहो और भिक्षाके अत्रका भोजन किया करो। इस प्रकार rest अवधि पूरी करके गृहस्थाश्रममें प्रवेश करो और वहाँ उत्तम उत्तम वज्ञोंका अनुष्ठान करके अपने मनके अनुरूप सन्तान उत्पन करो तदनन्तर वनको शरण लो और नस्के नियमोंका पालन करके पक्षात् परिग्रहरहित, सर्वस्वत्यागी संन्यासी हो जाओ। ऐसा करने से तुम्हें उस को प्राप्ति होगी, जहाँ तुम शोकसे मुल हो जाओगे।’

इस प्रकार अनेकों बार कहनेपर भी सुमति जड़ होनेके कारण कुछ भी नहीं बोलता था। पिता भी स्नेहवश बारंबार अनेक प्रकारसे ये बातें उसके सामने रखते थे। उन्होंने पुत्रप्रेमके कारण मीठी वाणीमें अनेक बार उसे लोभ दिखाया। इस प्रकार उनके बार-बार कहनेपर एक दिन सुमतिने हँसकर कहा-‘पिताजी! आज आप जो उपदेश दे रहे हैं, उसका मैंने बहुत बार अभ्यास किया है। इसी प्रकार दूसरे दूसरे शास्त्रों और भाँति- भौतिकी शिल्पकलाओंका भी सेवन किया है।

इस समय मुझे अपने दल हजारसे भी अधिक जन्म स्मरण हो आये हैं। खेद, सन्तोष, क्षय, वृद्धि और उदयका भी मैंने बहुत अनुभव किया है। शत्रु मित्र और पत्लोके संयोग वियोग भी मुझे देखनेको मिले हैं। अनेक प्रकारके माता-पिताके भो दर्शन हुए हैं। मैंने हजारों बार मुख और दुःख भोगे हैं कितनी ही स्त्रियोंके विद्या और मूचसे भरे हुए गर्भ निवास किया है। Markandeya Purana PDF Book Free

पाशोंसे बाँध लेते हैं और डंडांकी मारसे व्याकुल करते हुए दक्षिण दिशाकी ओर खींच ले जाते हैं। उस मार्गपर कहो तो कुश जसे होते हैं, कहीं काँटे फैले होते हैं, कहीं बाँबीको मिट्टियाँ जमी होती हैं, कहीं लोहेकी कोलें गड़ी होती हैं और कहीं पथरीली भूमि होनेके कारण वह पथ अत्यन्त कठौर जान पड़ता है। कहाँ जलती हुई आपकी लपटें मिलती है तो कहीं सैकड़ों गढकि कारण वह मार्ग अत्यन्त दुर्गम प्रतीत होता है।

कहाँ सूर्य इतने तपते हैं कि उस शहरो जानेवाला जीव उनकी किरणोंमे जलने लगता है। ऐसे सबसे यमराजके दूत उसे घसीटकर ले जाते हैं। ये दूत और शब्द करनेके कारण अत्यन्त भयङ्कर पढ़ते हैं। जिस समय वे जीवको वसोटकर ले जाते हैं. सैकड़ों गोदड़ियाँ जुटकर उसके शतीरको नोच नोचकर खाने लगती हैं। पापी जी ऐसे ही भयंकर मार्गसे यमलोकको यात्रा करते हैं।

जो मनुष्य छाता, जूता, वस्त्र और अन्न-दान करनेवाले होते हैं, वे उस मार्गपर सुखसे यात्रा करते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकारका कष्ट भोगता हुआ पीड़ित जीवविवश होकर बारह दिनोंमें धरान नगरतक पहुँचाया जाता है उसके अनामय शरीर जलाये जानेपर जीव स्वयं भी अदरका अनुभव करता है, उसी प्रकार मरे और काटे जानेपर भी उसे अत्यन्त भयङ्कर वेदना होती है। अधिक देतक जलमें भिगोये जानेके कारण भी जीवको भारी दुःख उठाना है। इस प्रकार दूसरे शरीरको प्राप्त होनेपर भी उसे अपने कप भोगने पड़ते हैं उसके भाई-बन्धु जो तिल और जलकी अञ्जलि देते तथा पिण्डदान करते हैं, वही उस मार्गपर जाते समय उसे खाने को मिलता है। Markandeya Purana PDF Book Free

भाई- बन्धु यदि अशौचके भीतर तेल लगावें और उबटन मलवावें तो उससे जोवका पोषण किया जाता है अधांत वह मैल ही उन्हें खानी पड़ती है। [ अतः ये वस्तुएँ वर्जित हैं] इसी प्रकार बान्धवगण जो कुछ खाते-पीते हैं, वह मृतक जीवको मिलता है; अतः उन्हें भोजनकी शुद्धिपर भी ध्यान रखना चाहिये। यदि भाई-बन्धु भूमिपर शयन करें तो उससे जीवको कष्ट नहीं होता और यदि वे उसके निमित्त दान करें तो उससे मृत जीवको बड़ी होती है। यमदूत जब उसे साथ लेकर जाते हैं तो वह बारह दिनोंतक अपने घरकी और देखता रहता है। उस समय पृथ्वीपर उसके निमित जो जल और पिण्ड दिये जाते हैं. उन्होंका वह उपभोग करता है।