Matsya Purana PDF in Hindi – संपूर्ण मत्स्य पुराण हिंदी

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जब व्यास जी बहुत कुछ उहापोह करने पर भी इस प्रश्न का सन्तोष जनक उत्तर न पा सके तो उन्होंने निश्चय किया कि इसका निर्णय केवल तप द्वारा हो सकता है तब वे सुमेरु पर्वत को एक गुफा में जा बैठे और दीर्घमाल तक समाधि अवस्था में ध्यान करते रहे । अन्त में उनके सम्मुख वेद मूर्तिमान रूप में प्रकट हुए और उन्होंने कहा- हे व्यास ! आप महान प्राश हैं, शरीर धारण करने पर भी आप ‘विष्णु आत्मा’ हैं। आप अजन्मा होकर भी संसारी प्राणियों के उद्धार की इच्छा से यह सब कर रहे हैं।

Matsya Purana PDF Book

Name of Book Matsya Purana
PDF Size 52.8 MB
No of Pages 984
Language  Hindi
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About Book – Matsya Purana PDF Book

हमारा ठीक अर्थ वही है जो आपने प्रकट किया है। पुराणों, इतिहासों और सूत्र ग्रन्थों में उसे आपने अनेक प्रकार से प्रकट किया है (ऐसा पात्र भेद से किया गया है। तो भी हम आपके प्रश्न का उत्तर देते हैं कि परब्रह्म ही अविनाशी तत्व है और बही कारणों का भी कारण है। वह आत्मस्वरूप पुष्प की गन्ध की भाँति सदैव स्थिर रहता है। महाप्रलय हो जाने पर उस अक्षर ब्रह्म से परे केवल ‘रस’ रहता है। पर हम शब्दात्मक होने से उस शब्दातीत तत्व का वर्णन करने में समर्थ नहीं है।”

जिक्र नहीं किया गया है, वरन् खास तौर पर इस विषय का व्याव हारिक ज्ञान दिया गया है। यद्यपि वर्तमान वैज्ञानिक युग में ये बातें बहुत अधिक बदल गई है तलवार तथा तीरों के युद्ध के बजाय वायु- यामों से बम वर्षा और राकेटों से युद्ध होने का जमाना आ गया है तो भी अब से दो चार सौ वर्ष पहले तक भारतीय नरेशों के लिये राज्य व्यवस्था और शासन संचालन के ये नियम और विधियाँ ही उपयोग में आती थीं।

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प्राचीनकाल में राज्य का पूरा अस्तित्व एक मात्र राजा पर ही रहता था। यदि उसे किसी भी उपाय से नष्ट कर दिया जाय तो सारी राजव्यवस्था खण्ड-खण्ड हो जाती थी। इसलिए अन्य बातों के साथ राजा को अपनी सुरक्षा के लिये भी सदैव सजग रहना पड़ता था । इस सम्बन्ध में ‘मत्स्य पुराण’ का निम्न वर्णन दृष्टव्य है। “राजा को सदैव कौए के समान शंका युक्त रहना चाहिये । बिना परीक्षा किये राजा को कभी भोजन और शयन नहीं करना चाहिये।

इसी भाँति पहले से ही परीक्षा करके वस्त्र, पुष्प, अलंकार तथा अन्य वस्तुओं को उपयोग में लाना चाहिये। कभी भीड़भाड़ में न घुसना चाहिये और न अज्ञात जलाशय में उतरना चाहिये। इन सबकी परीक्षा पहले विश्वासी पुरुषों द्वारा करा लेनी चाहिये। राजा को उचित है कि जनजान हाथी और घोड़े पर कभी सवार न हो और न किसी अज्ञात स्त्री के सम्पर्क में आये । देवोत्सव के स्थान में उसे निवास करना नहीं चाहिये।

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अपने राज्य तथा दूसरे राज्यों में भी उसको जाने हुये विवरण बुद्धि वाले और संकट से बने वाले परों (स) को नियुक्त करना चाहिए जो उसे सब प्रकार के रहस्यों की सूचना देते रहें। फिर भी राजा को किसी एक ही गुप्तचर के कदम पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिये। जब दो-चार गुप्तचरों की रिपोर्ट से उस बात का समर्थन हो जाय तब उस पर भरोसा करे।” अन्य लोगों के संघर्ष करने वाले दूसरों का स्तस्य अपहरण करने वाले शासकों की स्थिति ऐसे खतरे में ही रहती है।

पुरानी बातों को छोड़ दीजिये वर्तमान समय में भी जर्मनी के डिस्टेटर हिटलर को अपनी रक्षा के लिये अपनी शकल सूरत मे मिलते हुए और वैसी ही पोशाक तथा रंग ढंग वाले कई शक्ति अपने निवास स्थान में रखने पड़ते थे, जिससे कोई जल्दी ही असली हिटलर को पहिचान कर आक्रमण न कर सके। इसी प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था बालकन प्रदेश के और भी कई शासक रखते थे।

जहाँ पट्यन्त्रकारियों और गुप्त पातकों का अधिक जोर था अब भी ऐसे बद शासकोंके प्राथनाथ के लिए तरह-तरह की चालाकियों से काम लिया जाता है। रूस के जार को मारने के लिये पत्रकारियों ने बड़ी चष्टा पट्टी तैयार की थी जिसके भीतर डाइना माइट का भयंकर बम छुपा था। इस घड़ी को गुप्त रूप से राजमहल (विष्टर पैलेस) के किसी कमरे से लगवा दिया गया। एक नियत समय पर जब उसका घण्टा बना तो उसको चोट से बम फूट गया और महल का एक भाग उड गया। Matsya Purana PDF Book

जब इस जन-जागृति के युग में ऐसी घटनाएँ सम्भव हैं तो प्राचीनकाल के एकतन्त्र नरेशों को सावधान रहने की कितनी अधिक आवश्यकता थी, इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा । प्राचीन काल की संनिक व्यवस्था- यह तो हुआ अपनी शारीरिक रक्षा का वर्णन । अब राज्य की रक्षा के लिये इससे कहीं अधिक तैयारियां करनी पड़ती है। ‘मत्स्य- पुरान’ के अनुसार दुर्ग या बिले प्रकार के होते है-धन्दु-महीदुर्ग मरदुर्ग, वर्ग, जलदुर्ग और गिरिदुर्ग इनमें से अपनी परिस्थिति के अनुसार।

किसी एक प्रकार का किला बनवाकर उसमें रक्षा की सब प्रकार की सामग्री इकट्ठी करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में पुराणकार ने तथा अन्य सामग्री की जो सूची दी है, उससे हम प्राचीन काल के गुटों का बहुत कुछ अनुमान कर सकते हैं!

पुरुषार्थ की प्रधानता-

हमारे उपरोक्त मन्तब्य की पुष्टि पुराणकार ने भी एक अन्य प्रकार से की है। उसने ‘राज-धर्म के प्रसंग में एक अध्याय में यह प्रश्न उठाया है कि “देव और प. स्वार्थ में कौन बड़ा है ?” इसके उत्तर में मत्स्य भगवान् द्वारा कहलाया गया है कि “देव नाम वाला जो फल प्राप्त होता है वह भी अपना पूर्व कर्म ही होता है, इसलिए विद्वानों की सम्मति में परुषार्थ ही सर्व प्रधान है। यदि देव प्रतिकूल भी होता है, तो उसका पौष के द्वारा हनन हो जाता है। Matsya Purana PDF Book

जो श्रेष्ठ आचार वाले और सदैव उत्थान का प्रयत्न करने वाले व्यक्ति होते हैं पुरुषार्थ से प्रतिकूल देव को बदल डालते हैं यह सत्य है कि कुछ उदाहरणों में अनेक व्यक्तियों को बिना पुरुषार्थ भी अच्छा फल, सौभाग्य युक्त स्थिति प्राप्त हो जाती है, जिसे पूर्व जन्मों के प्रारब्ध का परिमाण माना जाता है। पर यदि वर्तमान में भी पुरुषार्थ और सत्कर्म न किये जायें तो वह स्थिति प्रायः थोड़े ही समय रहती है।

इसलिए हम कह सकते हैं कि दैब, पुरुषार्थ और काल (परिस्थितियां) ये तीनों मिलकर ही मनुष्य को फल देने वाले हुआ करते हैं। पर इनमें भी पुरुषार्थ को ही प्रधान समझना चाहिये, क्योंकि कहा गया है – नालसः प्राप्नवन्त्यर्थान् न च देव परायणः । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन आचरेद्धर्ममुत्तमम् ॥ वर्षात्- “जो व्यक्ति आपसी होते हैं अथवा जो केवल देव (भाग्य) के ही भरोसे रहते हैं, वे धनोपार्जन में सफल नहीं हो सकते।

इसीलिए सदैव प्रयत्न पूर्वक उत्तम धर्म (१. स्यार्थ का पालन करना चाहिए।” जो लोग समझते हैं कि पुराने धर्म ग्रन्थों में भाग्य को हो प्रधान बताकर भारतवासियों को ‘प्राम्यवादी’ बना दिया है उनको ‘शब’ के उपरोक्त वचन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए परिचय दिया है। हो सकता है ब्रह्मा, विश्वाकर्मा, कुमार आदि की नाम इस विषय में भी देवताओं की प्रधानता दिखाने के लिए शामिल कर दिया हो, तो भी प्राचीन समय में कितने ही उच्चकोटि के विद्वानों ने इस विषय पर भी लिखा था, इसमें सन्देह नहीं । Matsya Purana PDF Book

अब भी उनमें से ‘मानसार’ आदि दो-एक ग्रन्थ देखने में आते हैं जिनको जानकर लोगों से बड़ी प्रशंसा सुनने में आती है । ‘मय’ तो ‘दैत्य’ जाति वालों को प्रसिद्ध शिल्प शास्त्र ज्ञाता प्रसिद्ध है। महाभारत के अनुसार महाराज युधिष्ठिर के लिये इन्द्रप्रस्थ की अपूर्व राज सभा उसी ने बनाई थी। संभव है जिस प्रकार आर्य जाति में शिल्प विज्ञान के ज्ञाता को ‘विश्वकर्मा’ की पदवी दी गई, उसी प्रकार आर्यों की विरोधी दैत्य जाति में शिल्प- कला के प्रमुख ज्ञाता को ‘मय’ के नाम से पुकारा जाता हो।

और पांडवों को संयोगवश उसी जाति का कोई शिल्प विद्या विशारद मिल गया हो। कुछ भी हो जित्स्य पुराण’ में सामान्य गृह, महल, भवन, प्रासाद, स्तम्भ, दर्बाजे, मंडप, वेदी, आदि के जितने भेद बतलाये हैं और विस्तार पूर्वक उनकी विशेषताओं का वर्णन किया है, उससे यह अवश्य सिद्ध होता है कि उस जमाने में भी इस कला की काफी खोज- बीन की गई थी और तदनुसार अनेक छोटे-बड़े गृहों का निर्माण भी किया जाता था। विभिन्न प्रकार की आकृति के गृहों का वर्णन करते हुए पुराणकार ने लिखा है-

“सबसे उत्तम गृह वह होता है जिसमें चारों तरफ दरवाजे और दालान होते हैं। उनका नाम ‘सर्वतोभद्र’ कहा जाता है और देवालय तथा राजा के निवास के लिये वही प्रशस्त होता है। जिसमें तीन तरफ द्वार और दालान होते हैं पर पश्चिम की तरफ द्वार नहीं होता वह ‘नन्यावत’ कहलाता है। जिस भवन में दक्षिण की तरफ द्वार नहीं होता वह ”मान’ कहा जाता है। पूर्व की तरफ बिना दरवाजा वाला ‘स्वास्तिक’ नाम से प्रसिद्ध है। Matsya Purana PDF Book Download

उत्तर की तरफ द्वार से ” कहा जाता है।” वर्णन किया गया है वह इस दृष्टि से भी उसके लेखक की विद्वता को प्रकट करता है। वैसे साधारण रूप से भी इस पुराण की भाषा कितने ही अन्य पुराणों और उपपुराणों अधिक परिष्कृत जान पड़ती है, पर कवि की विशेषता राजवंश, ऋषिवंश पूजा उपासना की निधि प्रायश्चित के ‘W’ विधान बादि विषयों का वर्णन करने में नहीं जानी जा सकती। इनमें तो उपयोगिता की दृष्टि से तुकबन्दी की जैसी ही रचना करना पड़ती है।

पर जहाँ कहीं प्राकृतिक शोभा के वर्णन का अवसर आ जाता है वहाँ कवि की कल्पना और प्रतिमा ऊंची उड़ान लेने लगती है और योग्य कवि अपनी विशेषता को प्रकट कर सकता है। ‘मत्स्य पुराण’ में हिमालय पर्वत, कैलाश, नर्मदा, वाराणसी को शोभा का जो वर्णन किया है उसको गणना भाषा और भाव की दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्तम कविता में की जा सकती है।

यद्यपि इस प्रकार की पौराणिक रचनाओं की तुलना कालिदास, भवभूति माथ आदि जैसे कवियों की रचनाओं से नहीं की जा सकती, जिनका मुख्य उद्देश्य कविता की उत्कृष्टता को हो दिखलाना होता है और जो कवि-कर्म को अपने जीवन का चरम ध्येय मानते हैं । पुराण रचयिता इसके बजाय अपना मुख्य उद्देश्य लोगों को सरल भाषा में धर्मोपदेश देना और विविध प्रकार के विधि विधानों का यया था वर्णन करना समझते है, और उसी उङ्ग की करते हैं। Matsya Purana PDF Book Download

इसलिये साहित्यिक गरिमा किन्हीं पुराणों में विशेष स्थलों पर ही दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिये हम ‘मत्स्य पुराण’ के हिमालय वर्णन का कुछ अंश नीचे देते है- “परम पुष्यमयी सरिता का अवलोकन करता और उसके समोप विधान करता हुआ पथिक जब महागिरि हिमालय के निकट पहुंचता है तो उसका दर्शन करके भक्ति होता है। इस हिमवान पर्वत के भूरे रंग राजेश बाकाश को छूते प्रतीत होते हैं। वे इतने अपेकि भी नहीं पहुँच सकते।

मरीचिरभवत्पूर्वततोऽत्रिर्भगवान् ऋषिः ।

अङ्गिराश्चाभवत्पश्चात् पुलस्त्यस्तदनन्तरम् ॥६

ततः पुलहनामा वै ततः क्रतुरजायत । प्रचेताश्च ततः पुत्रो वशिष्ठश्चाभवत् पुनः ॥७

सब वेदों मनु ने कहा -लोकों के पितामह के आपने चार मुख बतलाये हैं सो इनके ये चार मुख कैसे हो गये थे ब्रह्म के बेत्ताओं में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्माजी ने इन सब लोकों को सृजन किस प्रकार से किया था ? कृपा कर आप हमको यह बतलाइये |१| भगवान् मत्स्य ने कहा था-देवों के पितामह ने सबसे प्रथम तो तपश्चर्या की थी। इसके अन्तर का आविर्भाव हुआ था जो अपने अङ्ग शास्त्र उपाङ्ग तथा पद एवं क्रम से संयुक्त थे |२| ह्याजी

के द्वारा प्रथम समस्त शास्त्रों के पुराण कहे गये हैं जो नित्य-पुष्य शब्दमय और सो करोड़ विस्तार वाला है |३| इसके उपरान्त ब्रह्माजी के मुखों से वेद निकले थे जो मीमांसा न्याय विद्या से संयुत और आठ प्रमाणों से समन्वित थे |३| ब्रह्माजी उस समय में सर्वदा वेदों के ही अभ्यास करने में निरत रहा करते थे। ऐसी दशा में जब उनकी प्रजा के समुत्पन्न करने की कामना हुई तो उनसे मानस सृष्टि समुत्पन्न हुई थी। क्योंकि सर्व प्रथम मन से ही सृजनहुआ था इसीलिये ये मानस सम्भूत होने वाले कहलाये थे ।४-५। Matsya Purana PDF Book Download

सबसे पहिले ब्रह्माजी की मानस सृष्टिमें मरीचि महर्षि उत्पन्न हुई थे। इसके पश्चात् भगवान् अत्रि ऋषि की उत्पत्ति हुई थी। फिर अङ्गिरा ऋषि और इनके पश्चात् पुलस्त्य महर्षि का उद्भव हुआ था। इसके अनन्तर पुलह नाम वाले समुत्पन्न हुये और इनके पीछे ऋतु की समु- हुई थी।  अब आप लोक उन देवों की माताओं के परम शुभ नामों का तथा आदि से प्रजा के विस्तार का श्रवण करो-धर्म को जो कन्यायें दश दी गयी थी उन धर्म की पत्नियों के नाम मरुत्वती-वसूर्यामी-लम्बा ये भानु – अरुन्धती -सङ्कल्पा मुहूर्ता-साध्या-विश्वा और भामिनी ये थे।

सब धर्म की पत्नियां समाख्यात हुई थीं। अब उन दशों पत्नियों के उदर से जो पुत्र समुत्पन्न हुए थे उनको भी जान लो ।१५-१६ विश्वा के विश्वेदेवा पुत्र हुए थे और साध्या ने साध्यों को जन्म दिया था । reat में मरुत्वायों ने जन्म ग्रहण किया था और वसू से बसुगण समुत्पन्न हुये थे । १७। भानु से भानुगण और उसी भाँति महूर्त्ता में मुहकों ने जन्म लिया था। लम्बा नाम की पत्नी में घोष नाम वाले पुत्र हुए थे तथा यामि से जन्म लेने वाले नागवीथी थे।

अरुन्धती में पृथ्वी तत सम्भूत का जन्म हुआ था । सङ्कल्पा से सङ्कल्प समुत्पन्न हुआ था। अग वमुकी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करलो ।१८-१६। ज्योति- ध्यान जो देव व्यापक है और सभी दिशाओं में है वे हो सब वसुगण नाम से समाख्यात हुए थे। अब हमसे जो सृष्टि हुई है उसको भी आप लोग समझलो | २०| आप अर्थात् जल, प्रब, सोम, घर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास ये आठ वसुगण कीर्तित किये गये हैं । २१ । Matsya Purana PDF Book Free

श्री सूतजी ने कहा- अब मैं कश्यप ऋषि की पनियों से जो पुत्र और पौत्र आदि हुए हैं उनका हाल बतलाने को जा रहा हूँ । कश्यप महर्षिकी पत्तियों के नाम अदिति-दितिदनु-अरिष्टा सुरसा सुरभि विनता ताम्राको वणा इरा कडू-विश्वा मुनि-ये थे । अब इन पत्नियोंके उदर से जो पुत्र समुत्पन्न हुए थे उनको भी आप लोग जान लीजिये ॥१-२॥ बिना नाम वाले जो देवता चाक्षुष मन के अन्तर में हुए थे ये ही सब वैवस्वत मन्वन्तर में बारह आदित्य कहे गये हैं। ३।

उन द्वादश आदित्यों के नाम इन्द्र-धाता भग- स्वष्टा- मित्र त्रमुगण-यम-विवस्वान सविता-पूपा अशुमान विष्णु ये हैं ये ही सहस्त्र किरणों वाले बारह आदित्य कहे गये है। मारीच कश्यप महर्षि से मदिति ने परमोतम पुत्रों को प्राप्त किया था ४-५ भगास्व ऋषि के पुत्र देव प्रहरणं कहे गये थे। हे विप्रों ! ये सब देवगण प्रत्येक मन्वन्तर में हुए हैं । ६ । ये सब उत्पन्न “हुआ करते हैं और प्रलीन भी होते रहते हैं और कल्प-कल्प में ऐसा ही होता रहता है। दिति नाम की जो महार्षि कश्यपजी की एक पत्नीची उसने कश्यप से दो ही पुत्रों की प्राप्ति की थी-ऐसा सुना गया है ।