Narad Puran PDF in Hindi – संपूर्ण नारद पुराण हिंदी

Narad-Puran-PDF

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सदा पाका जप एवं करते सूर्यके समान प्रताप धर्मशास्त्रार्थतत्य तप करते थे उनमे से कुछ लोग वहाँद्वारा यज्ञपति भगवान् विष्णुका वजन करते थे। कुछ लोग ज्ञानयोग के साधनोंद्वारा ज्ञानस्वरूप श्रीहरिको उपासना करते थे और कुछ लोग भक्ति मार्गपर चलते हुए परा-भक्तिके द्वारा भगवान् रामको पूरा करते थे। नारायणको एक समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका उपाय जाननेको इच्छासे उन बे महात्माओंने एक बड़ी भारी सभा को उसमें उस हार अविरत (नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले मुनि सम्मिलित हुए थे।

Narad Puran PDF Book

Name of Book Narad Puran
PDF Size 46.9 MB
No of Pages 751
Language  Hindi
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About Book – Narad Puran PDF Book

उनके शिष्य प्रशिष्योंकी संख्या तो बतायी हो नहीं जा सकती। पवित्र अन्तःकरणवाले वे महातेजस्वी महर्षि लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये हो एकत्र हुए थे। उनमें राग और मात्सयंका सर्वथा अभाव था। वे शौनकजोसे यह पूछना चाहते थे कि इस पृथ्वीपर कौन- कौन से पुण्यक्षेत्र एवं पवित्र तीर्थ हैं। त्रिविध तापसे पीड़ित चित्तवाले मनुष्योंको मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है।

लोगोंको भगवान् विष्णुको अविचल भक्ति कैसे प्राप्त होगी तथा सात्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारके कमौका फल किसके द्वारा प्राप्त होता है। उन मुनियोंको अपने इस प्रकार प्रभु करनेके लिये उद्यत देखकर उत्तम बुद्धिवाले शौनकी विनयसे झुक गये और हाथ जोड़कर बोले। और बड़ा है। भा मधुसूदन प्रत्येक युगधा देख होते और एक ही बेट अनेक विभाग करते हैं।

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गण हम स शास्त्रोंमें यह सुना है कि वेदव्यास मुनि साक्षात् भगवान् नारायण हो हैं उन्हीं भगवान् ने सूतजीको पुराणोंका उपदेश दिया है। बुद्धिमान् वेदव्यास द्वारा भी उपदेश सब धर्मो के ज्ञाता हो गये हैं। संसारमें उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि इस लोकों सूतजी हो पुरानो अर्थको जाननेवाले और बुद्धि हैं। उनका स्वभाव शान्त है। वे मोक्षधर्मज्ञाता तो है हो, कर्म और भक्तिके विविध साधनको भी जानते हैं।

मुनीश्वरो वेद, वेदाङ्ग और शास्त्रों से सारभूत तत्व है, वह सब मुनिवर व्यासने जगत् हितके लिये पुराणोंमें बता दिया है और ज्ञानस्यगर सूतजी उन सबका यथार्थ तत्व जाननेमें कुशल है, इसलिये हमलोग उन्होंने सब बातें पूछें। इस प्रकार शौनकजीने मुनियोंसे जब अपय अभिप्राय निवेदन किया, तब ये सब महर्षि विद्वानोंमें श्रेष्ठ शौनकजीको आलिङ्गन का बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें साधुवाद देने लगे।

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तदनन्तर सब मुनि वनके भीतर पवित्र सिद्धा गये और वहाँ उन्होंने देखा कि सूतजी यज्ञके द्वारा अनन्त अपराजित भगवान्ना जन कर रहे हैं। उन कजीने कहा- मह महात्माओंका यथोचित स्वागत-सत्कार किया गौण रहते हैं। वहाँ पानसे वैवा उमा और भारतो (सरस्वती) आदि नाम देते हैं। भगवान् विष्णुको वह परा शकि जगत्‌को आदि करनेवाली है। वह व्यक्त और अव्यक्तरूपसे सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त करके स्थित है।

जो भगवान् अखिल विश्वकी रक्षा करते हैं, वे हो परम पुरुष नारायण देव हैं। अतः जो परात्पर अविनाशी तत्त्व है, परमपद भी वही है यहाँ अक्षर, निर्गुण, शुद्ध, सर्वत्र परिपूर्ण एवं सनातन परमात्मा हैं; वे परसे भी परे हैं। परमानन्दस्वरूप परमात्मा सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित हैं। एकमात्र ज्ञानयोगके द्वारा उनके तत्वका बोध होता है। ये सबसे परे हैं। सत्, चित् और आनन्द ही उनका स्वरूप है। वे स्वयं प्रकाशमय परमात्मा नित्य शुद्ध स्वरूप है तथापि तत्व आदि गुणोंके भेदसे तीन स्वरूप धारण करते हैं।

उनके ये हो तीनों स्वरूप जगत्‌को सृष्टि, पालन और संहारके कारण होते हैं। मुने। जिस स्वरूपसे भगवान् इस जगत्‌को सृष्टि करते हैं, उसीका नाम ब्रह्मा है। ये ब्रह्माजी जिनके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं, वे ही आनन्दस्वरूप परमात्मा विष्णु इस जगत्का पालन करते हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण जगत्के अन्तर्यामी आत्मा हैं। समस्त संसारमें वे ही व्याप्त हो रहे हैं। वे सबके साक्षी है। हम और अभिन्न रूपये स्थित परमेश्वर है। Narad Puran PDF Book

उन्होंकी शक्ति महामाया है, जो जगत्‌को सत्ताका विश्वास धारण कराती है। frent उत्पत्तिका आदिकारण होनेसे विद्वान् पुरुष उसे प्रकृति कहते हैं। आदिमुटके समय अनन्त परमेश्वर हो कालरूपमें स्थित है। ह सत्य र उप-रूप तीनों में विराज रहे हैं तथा गुणोंके आधार भी वे ही हैं। वे सर्वव्यापी परमात्मा हो इस जगत्‌के आदि-स्रष्टा है। जगदगुर पुरुषोत्तमके समीप स्थित दुई प्रकृति ज (चञ्चलता) को प्राप्त हुई, तो उससे महत्तत्वका प्रादुर्भाव हुआ जिसे समष्टि बुद्धि भी कहते हैं।

फिर उस महत्तत्त्वसे अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकारसे मूक्ष्म तन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुई। तत्पश्चात् तन्मात्राओंसे पच महाभूत प्रकट हुए, जो इस स्थूल जगत्के कारण हैं। नारदजी! उन भूतोंके नाम हैं- आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी ये क्रमशः एक-एकके कारण होते हैं। तदनन्तर संसारको सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीने तामस सर्गको रचना की। तिर्यग्योनिवाले पशु-पक्षी तथा मृग आदि जन्तुओंको उत्पन्न किया।

उस सर्गको पुरुषार्थका साधक न मानकर ब्रह्माजीने अपने सनातन स्वरूपसे देवताओंको (सात्त्विक सर्गको) उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उन्होंने मनुष्योंको (राजस सर्गको) सृष्टि की। इसके बाद दक्ष आदि पुत्रोंको जन्म दिया, जो सृष्टिके कार्यमें तत्पर हुए। ब्रह्माजीके इन पुत्रोंसे देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों सहित यह सम्पूर्ण जगत् भरा हुआ है। भूलोक क्लॉक, स्वलॉक, महलोक, जनलो तपलोक तथा सत्यलोक ये सात लोक क्रमशः एकके ऊपर एक स्थित है। Narad Puran PDF Book

विप्रवर अतल तिल सुतल, तलतल, महातल, रसातल तथा पातालये सात पाताल क्रमश: एकके नीचे एक स्थित हैं। नन्दी तथा जातकर्म संस्कार करे पुत्र | जन्मके अवसरपर किया जानेवाला वृद्धिश्राद्ध सुवर्ण या रजतसे करना चाहिये। सूतक व्यतीत होनेपर पिता मौन होकर आभ्युदयिक श्राद्ध करनेके अनन्तर पुत्रका विधिपूर्वक नामकरण-संस्कार करें। विप्रवर! जो स्पष्ट न हो, जिसका कोई अर्थ न बनता हो, जिसमें अधिक गुरु अक्षर आते हों अथवा जिसमें अक्षरोंकी संख्या विषम होती हो, ऐसा नाम न रखे।

तीसरे वर्षमें चूड़ा-संस्कार उत्तम है। यदि उस समय न हो तो पाँचवें, छठे, सातवें अथवा आठवें वर्षमें भी गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार उसे सम्पन्न कर लेना चाहिये। गर्भसे आठवें वर्ष में अथवा जन्मसे आठवें वर्षमें ब्राह्मणका उपनयन- संस्कार करना चाहिये। विद्वान् पुरुष सोलहवें वर्षतक उपनयनका गौणकाल बतलाते हैं। गर्भसे स्यारहवें वर्षमें क्षत्रियके उपनयनका मुख्यकाल है। उसके लिये बाईसवें वर्षतक गौणकाल निश्चित करते हैं।

गर्भसे बारहवें वर्षमें वैश्यका उपनयन संस्कार उचित कहा गया है। उसके लिये चौबीसवें वर्षतक गौणकाल बतलाते है। ब्राह्मणको मेखला जकी और क्षत्रियकी मेखला धनुषकी प्रत्यञ्चासे बनी हुई (सूतकी) तथा वैश्यको मेखला भेड़के उनकी बनी होती है। ब्राह्मणके लिये पलाशका और क्षत्रियके लिये गुलरका तथा वैश्यके लिये बिल्वदण्ड विहित है। Narad Puran PDF Book

ब्राह्मणका दण्ड केशतक, क्षत्रियका ललाटके मधु मांस, स्त्री, नमक पार दत्तवर उचि मुनीश्वर ब्रह्मचारी प्रातःकाल न करे और प्रतिदिन सबेरे ही गुरुके लिये समिधा, कुशा और फल आदि ले आवे मुनिश्रेष्ठ यज्ञोपवीत, मृगचर्म अथवा दण्ड जब नष्ट या अपवित्र हो जाय तो मन्त्रसे नूतन यज्ञोपवीत आदि धारण करके नष्ट- भ्रष्ट हुए पुराने यज्ञोपवीत आदिको जलमें फेंक दे। ब्रह्मचारीके लिये केवल भिक्षाके अमसे हो जीवन निर्वाह करना बताया गया है।

वह मन- इन्द्रियोंको संयममें रखकर श्रोत्रिय पुरुषके परसे भिक्षा ले आये। भिक्षा माँगते समय ब्राह्मणवाक्यके आदिमें, क्षत्रिय वाक्यके मध्यमें और वैश्य वाक्यके अन्तमें ‘भवत्’ शब्दका प्रयोग करे जैसे ब्राह्मण ‘भवति! भिक्षां मे देहि’ (पूजनीय देवि! मुझे भा दीजिये), क्षत्रिय ‘भिक्षां भवति! मे देहि’ और वैश्य ‘भिक्षां मे देहि भवति’ कहे। जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातः काल शास्त्रीय विधिके अनुसार अग्रिहोत्र (ब्रह्मयज्ञ) तथा तर्पण करे जो 1 अग्रिहोत्रका परित्याग करता है।

उसे विद्वान् पुरुष पतित कहते हैं। ब्रह्मयज्ञसे रहित ब्रह्मचारी ब्रह्महत्या कहा गया है। वह प्रतिदिन देवताको पूजा और गुरुकी उत्तम सेवा करे। ब्रह्मचारी नित्यप्रति भिक्षाका ही अन्न भोजन करे किसी एक घरका अत्र कभी न खाय वह इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए बे ब्राह्मणोंके घरसे भिक्षा लाकर गुरुको समर्पित कर दे और उनको आसे मौन होकर भोजन करे। Narad Puran PDF Book Download

उदाहरणोंमें क्रमश: ‘विध’ एवं ‘भक्त’ प्रत्यय हुए हैं। भौरिक्यादि तथा ऐपुकार्यादि शब्दोंसे ‘विध’ एवं “धक’ प्रत्यय होनेका नियम है। उत्कट इसकी सिद्धिका नियम पहले बताया गया है. किरको निचाई व्यक्त करनेके लिये ‘अव’ उपसर्गसे’ ‘टीट’, ‘नाट’ और ‘भ्रट’ प्रत्यय होते हैं। तथा नि उपसर्गसे ‘विड’ और ‘विरोस’ प्रत्यय होते हैं। इसके सिवा ‘नि’ से ‘इन’ और ‘पिट’ प्रत्यय भी होते हैं ‘इन’ प्रत्यय परे होनेपर ‘नि’के स्थानमें चिकू आदेश हो जाता है और ‘पिट ‘प्रत्यय परे होनेपर ‘नि के स्थानमें ‘चि’ आदेश होता है।

मूलोत उदाहरण इस प्रकार हैं-अवटीट:, अवनाट: (अवट) -नीची नाकवाला पुरुष निविडम् (नीची नाक), निविरीसम्, चिकिनम् चिपिटम्, चिकम् इन सबका अर्थ नीची नाक है। जिसके आँखसे पानी आता हो, उसको ‘चिल्ल’ और ” कहते हैं। ल प्रत्यय है और क्लिन शब्द प्रकृति है जिसके स्थानमें चिह्न और पिल्ल आदेश हुए हैं। पैदा करनेवाले खेतके अर्थमें – शाकट और शाकिन प्रत्यय होते हैं। जैसे कम् ‘इक्षुशाकिनम्’ उसके द्वारा है, इस अर्थ चन्तु और चण होते हैं। जो विद्या है, उसे अनु

बाचक है. इसे शिचात सिद्ध बताया जा चुका है। ऐश्वर्यवाचक स्व-शब्दसे आमिन् प्रत्यय होता है-स्व.आमिन् स्वामी (अधीश्वर या मालिक)। ‘रूप’ शब्दसे आहत और प्रशंसा अर्थ ‘व’ प्रत्यय होता है। यथा विषमम् आहतं वा रूपमस्यास्तीति-मप्यः कार्षापण: (खराब पैसा, रूप्यम् आभूषणम् (खराब आभूषण) इत्यादि। ‘उप’ और ‘अधि’ से त्थक प्रत्यय होता है, क्रमश: समीप एवं ऊँचाईको भूमिका बोधक होनेपर पर्वतके पासको भूमिको ‘उपत्यका (तराई) कहते हैं । Narad Puran PDF Book Download

और पर्वतके ऊपरी (सी) भूमिको ‘अधित्यका’ कहते हैं। ‘वात’ शब्द से ‘कल’ प्रत्यय होता है, असहन एवं समूहके अर्थमें वातं न सहते वातूलः जो हवा न सह सके, वह ‘वातूल’ है। बात-उल, अलोप वातूलः । वातके समूह (आंधी) को भी ‘वाल’ कहते हैं। ‘कुतू’ शब्दसे ‘डुप’ प्रत्यय होता है, डकार इत्संज्ञक, खिलोप ह्रस्वा कुतुः कुतुपः (चमड़ेका तैलपात्र- कुप्पी)। बलं न सहते (बल नहीं सहता ) – इस अर्थ में बल शब्दसे ‘ऊल’ प्रत्यय होता है।

बल ऊल-बलूलः। हिमं न सहते (हिमको नहीं सहता) इस अर्थ में हिमसे एलु प्रत्यय होता है। हिम-एल-हिमेलुः। अनुकम्पा- अर्थमें मनुष्यके नामवाचक शब्दसे ‘इक’ एवं ‘अड’ आदि प्रत्यय होते हैं तथा स्वरादि प्रत्यय परे रहनेपर पूर्ववर्ती शब्द के द्वितीय स्वरसे आगे के सभी अक्षर लुप्त हो जाते हैं। यदि द्वितीय स्वर सन्धि-अक्षर हो तो उसका भी लोप हो जाता है।

इन यदि समभाव एकसे अधिक पापग्रह हो होतो तो भी स्त्री विधवा होती है, शुभ और पाप दोनों हों तो वह पुनर्भू होती है। यदि सप्तम भावमें पापग्रह निर्बल हो और उसपर शुभग्रहको दृष्टि न हो तो भी स्त्री अपने पतिद्वारा त्याग दी जाती है, अन्यथा शुभग्रहको दृष्टि होनेपर वह पतिप्रिया होती है ॥ ३०८७ एक होती है और हो गुलाओको जाननेवाली और अत्यन्त सुन्दरी होती है। लग्नमें तीन सुभग्रह हो तो वह अनेक प्रकार गुर और गुणोंसे युक्त होती है। ३१३- Narad Puran PDF Book Download

पापग्रह अष्टम भावमें हो तो वह स्वो अहमेश जिस ग्रहके नवमांशमें हो उस ग्रहके पूर्वकथित बल्य आदि में विधवा होती है। यदि द्वितीय भावमें शुभग्रह हों तो वह स्त्री स्वयं ही स्वामी के सम्मुख मृत्युको प्राप्त होती है। कन्या, वृक्षिक सिंह या वृष राशिमें चन्द्रमा हो तो स्त्री थोड़ी संततिवाली होती है। यदि शनि मध्यम वली तथा चन्द्रमा, शुक्र और बुध ये तीनों निर्बल हों तथा शेष ग्रह (रवि मङ्गल और गुरु) सबल होकर विषम राशि-लनमें हो तो वह स्त्री कुरूपा होती है ॥ ३१५- ३१००

मङ्गलके नवमांश शुक्र और शुक्र के नवमांशमें मङ्गल हो तो वह स्त्री परपुरुषमें आसक्त होती है। इस योग में चन्द्रमा यदि सप्तम भावमें हो तो वह अपने पतिकी आज्ञासे कार्य करती है ।। ३०९ ।। यदि चन्द्रमा और शुकसे संयुक्त शनि एवं मङ्गलको राशि (मकर, कुम्भ मेष और वृश्चिक) लग्रमें हों तो वह स्वी कुलटा-स्वभाववाली होती है। यदि उक्त लापर पापग्रहको दृष्टि हो तो वह स्त्री अपनी मातासहित कुलटा-स्वभाववाली होती है।

यदि सम्म भावमें मङ्गलका नवमांश हो और उसपर शनिको दृष्टि हो तो वह नारी रोगयुक्त योनिवाली होती है। यदि सप्तम भावमें शुभग्रहका नवमांश हो तब तो वह पतिकी प्यारी होती है। शनिको राशि या नवमांश सप्तम भावमें हो तो उस स्त्रोका पति वृद्ध और मूर्ख होता है। सम भावमें मङ्गलकी राशि या नवमांश हो तो उसका पति स्वीलोलुप और क्रोधी होता है। बुधको राशि या नवमांश हो तो विद्वान् और सब कार्य निपुण होता है। गुरुकी राशि या नवमांश हो Narad Puran PDF Book Free

गुरु, मङ्गल, शुक्र, बुध ये चारों बली होकर समराशि लग्नमें स्थित हों तो वह स्त्री अनेक शास्त्रोंको और ब्रह्मको जाननेवाली तथा लोकमें विख्यात होती है ॥ ३१८ ॥ जिस स्त्रीके जन्मलनसे सप्तममें पापग्रह हो और नवम भावमें कोई ग्रह हो तो स्त्री पूर्वकथित नवमस्थ ग्रहजनित प्रव्रज्याको प्राप्त होती है। इन (कहे हुए) विषयोंका विवाह, वरण या प्रश्नकालमें भी विचार करना चाहिये॥ ३९९॥

ाथमें फरसा लिये हुए काले रंगका पुरुष, जिसकी आँखें लाल हो और जो सब जीवोंकी रक्षा करनेमें समर्थ हो, मेषके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है। प्याससे पीडित एक पैरसे चलनेवाला धोके समान मुख, लाल वस्त्रधारी और घड़के समान आकार- यह मेपके द्वितीय काका स्वरूप है। कपिलवर्ण, क्रूरदृष्टि, क्रूरस्वभाव, लाल वस्त्रधारी और अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करनेवाला यह मेषके तृतीय द्रेष्काणका स्वरूप है।

भूख और प्याससे पीड़ित, कटे-छोटे घुंघराले केश तथा दूधके समान धवल वस्त्र- यह वृपके प्रथम देष्काणका स्वरूप है। मलिनशरीर भूखसे पीडित, बकरेके समान मुख और कृषि | आदि कार्योंमें कुशल यह वृषके दूसरे द्रेष्काणका रूप है। हाथी के समान विशालकाय शरभ के समान पैर, पिङ्गल वर्ण और व्याकुल चित्त-यह वृषके तीसरे द्रेष्काणका स्वरूप है। सुईसे सोने पिरोनेका काम करनेवाली, रूपवती, सुशीला तथा संतानहीना नारी, जिसने हाथको ऊपर उठा रखा है. मिथुनका प्रथम द्रेष्काण है। Narad Puran PDF Book Free

कवच और धनुष धारण किये हुए उपवनमें क्रीडा करनेकी इच्छासे उपस्थित गरुडसदृश मुखवाला पुरुष मिथुनका दूसरा द्रेष्काण है। नृत्य आदिको कलामें प्रवीण, वरुणके समान रखेोक अनन्त भण्डारसे भरा-पूरा, धनुर्धर वीर पुरुष मिथुनका सिरपर सर्प धारण किये, पलाशकी शाखा पकड़कर रोती हुई कर्कशा स्त्री-यह कर्मके दूसरे स्वरूप है। चिपटा मुख सर्पसे वेशित, स्त्रीकी खोजमें नौकापर बैठकर जलमें यात्रा करनेवाला पुरुष यह कर्कके तीसरे द्रेष्काणका रूप है । ३५१-३५६ ॥

सेमल वृक्षके नीचे गीदड़ और गोधको लेकर रोता हुआ कु-जैसा मनुष्य यह सिंहके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है। धनुष और कृष्ण मृगचर्म धारण किये, सिंह-सदृश पराक्रमी तथा थोड़े समान आकृतियाला मनुष्य पह सिंहके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है। फल और भोज्यपदार्थ रखनेवाला, लंबी दादोसे सुशोभित भालू जैसा मुख और वानरोंके से चपल स्वभाववाला मनुष्य सिंहके तृतीय द्रेष्काणका रूप है।

फूलमे भरे कलाली विद्यानि मलिन परिण कुमारी कन्या- यह कन्या राशिके प्रथम द्रेष्काणका स्वरूप है। हाथमें धनुष, आय-व्ययका हिसाव रखनेवाला, श्याम वर्ण शरीर, लेखनकार्यमें चतुर तथा रोएँसे भरा मनुष्य-यह कन्या राशिके दूसरे द्रेष्काणका स्वरूप है। गोरे अॉपर धुले हुए स्वच्छ वस्त्र, ऊँचा कद, हाथमें कलश लेकर देवमन्दिरकी ओर जाती हुई स्त्री- यह कन्या राशिके तीसरे द्रेष्काणका परिचय है ।। Narad Puran PDF Book Free