Patanjali Yoga Darshan PDF Book in Hindi – संपूर्ण पतंजलि योग दर्शन हिंदी

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त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव ॥ मूकं करोति वाचालं पङ्गं लङ्घयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥ योगदर्शन एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और साधकोंके लिये परम उपयोगी शाख है। इसमें अन्य दर्शनोंकी भाँति खण्डन-मण्डनके लिये युक्तिवादका अवलम्बन न करके सरलतापूर्वक बहुत ही कम शब्दोंमें अपने सिद्धान्तका निरूपण किया गया है।

Patanjali Yoga Darshan PDF Book

Name of Book Patanjali Yoga Darshan
PDF Size 10.4 MB
No of Pages 140
Language  Hindi
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About Book – Patanjali Yoga Darshan PDF Book

इस ग्रन्थपर अबतक संस्कृत, हिंदी और अन्यान्य भाषाओंमें बहुत भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। भोजवृत्ति और व्यासभाष्यके अनुवाद भी हिंदी भाषा में कई स्थानोंसे प्रकाशित हो चुके हैं। इसके सिवा ‘पातञ्जलयोग- प्रदीप’ नामक ग्रन्थ स्वामी ओमानन्दजीका लिखा हुआ भी प्रकाशित हो चुका है, इसमें व्यासभाष्य और भोजवृत्तिके सिवा दूसरे दूसरे योगविषयक शास्त्रों के भी बहुत से प्रमाण संग्रह करके एवं उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीतादि सद्ग्रन्थोंके तथा दूसरे दर्शनोंके साथ भी।

समन्वय करके ग्रन्थको बहुत ही उपयोगी बनाया गया है। परंतु ग्रन्थका विस्तार अधिक है और मूल्य अधिक होनेके कारण सर्वसाधारणको सुलभ भी नहीं है। इन सब कारणोंको विचारकर पूज्यपाद भाईजी तथा श्रीजयदयालजी की आज्ञासे मैंने इसपर यह साधारण हिंदी भाषाटीका लिखनी आरम्भ की थी टीका थोड़े ही दिनोंमें लिखी जा चुकी थी, परंतु उसी समय ‘कल्याण’ के ‘उपनिषद’का निकालना निश्चित हो गया।

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अतः ईशावास्योपनिषद्से लेकर श्वेताश्वतरोपनिषद्तक नौ उपनिषदोंको टीका लिखनेका भार मुझपर आ पड़ा। इस कारण योगदर्शनकी टीकाका संशोधन- कार्य नहीं हो सका एवं प्रेसमें छापनेके लिये अवकाश नहीं रहा। इसके सिवा और भी व्यापार सम्बन्धी काम हो गये, अतः प्रकाशनकार्यमें विलम्ब हुआ। इस समय सरकारका कागजोंपर से कन्ट्रोल उठ जानेसे एवं प्रेसमें भी छपाईक लिये कुछ अवकाश मिल जानेसे यह टीका प्रकाशित की जा रही है।

यह तो पाठकगण जानते ही होंगे कि मैं न तो विद्वान् हूँ और न अनुभवी ही अतः योगदर्शन-जैसे गम्भीर शास्त्रपर टीका लिखना मेरे जैसे अल्प मनुष्यके लिये सर्वथा अनधिकार चेष्टा है तथापि मैने इसपर अपने और मित्रोंके संतोषके लिये जैसा कुछ समझमें आया, वैसे लिखनेकी घृष्टता की है। इसके लिये अनुभवी विद्वान् सज्जनोंसे सानुनय प्रार्थना है कि इस टीकामें जहाँ जो त्रुटियाँ रह गयी हो, उनकी सूचना देनेकी कृपा करें, ताकि अगले संस्करणमें आवश्यक सुधार किया जा सके।

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समाधिपाद इस ग्रन्थके पहले पादमें योगके लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्तिके उपायोंका वर्णन करते हुए चित्तकी वृत्तियोंके पाँच भेद और उनके लक्षण बतलाये गये हैं। वहाँ सूत्रकारने निद्राको भी चित्तकी वृत्तिविशेषके अन्तर्गत माना है (योग० १ । १०), अन्य दर्शनकारोंकी भांति इनकी मान्यतामें निद्रा वृत्तियोका अभावरूप अवस्थाविशेष नहीं है तथा विपर्ययवृत्तिका लक्षण करते समय उसे मिथ्याज्ञान बताया है अतः साधारण तौरपर यही समझमें आता है।

कि दूसरे पादमें ‘अविद्या’ के नामसे जिस प्रधान क्रेशका वर्णन किया गया है (योग २१५), वह और चित्तकी विपर्ययवृत्ति—दोनों एक ही हैं; परंतु गम्भीरतापूर्वक विचार करनेपर यह बात ठीक नहीं मालूम होती ऐसा माननेसे जो-जो आपत्तियाँ आती है, उनका दिग्दर्शन सूत्रोंको टीकामें कराया गया है (देखिये योग० ११८: २१३, ५ की टीका) द्रष्टा और दर्शनकी एकतारूप अस्मिता क्रेशके कारणका नाम ‘अविद्या’ है (योग २२४), वह अस्मिता चित्तकी कारण मानी गयी है (योग १।४७, ४।४) । इस परिस्थितिमें अस्मिता के कार्यरूप चित्तकी वृत्ति अविद्या कैसे हो सकती है जो कि अस्मिताकी भी कारणरूपा है, यह विचारणीय विषय है।

इस पादके सतरहवें और अठारहवें सूत्रोंमें समाधिके लक्षणोंका वर्णन बहुत ही संक्षेपमें किया गया है। उसके बाद इकतालीसवेंसे लेकर इस पादकी समाप्तितक इसी विषयका कुछ विस्तारसे पुनः वर्णन किया गया है, परन्तु विषय इतना गम्भीर है कि समाधिकी वैसी स्थिति प्राप्त कर लेनेके पहले उसका ठीक- ठीक भाव समझ लेना बहुत ही कठिन है। Patanjali Yoga Darshan PDF Book

मैंने अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार उन सूत्रोंकी टीकामे विषयको समझानेकी चेष्टा की है, किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि इतनेसे ही पाठकोंको संतोष हो जायगा; क्योंकि सूत्रकारने आनन्दानुगत और अस्मितानुगत समाधिका स्वरूप यहाँ स्पष्ट शब्दोंमें नहीं बताया। इसी प्रकार ग्रहण और ग्रहीताविषयक समाधिका विवेचन भी स्पष्ट शब्दोंमें नहीं किया; अतः विषय बहुत ही जटिल हो गया है। यही कारण है |

कि बड़े-बड़े टीकाकारोंका सम्प्रज्ञातसमाधिके स्वरूप सम्बन्धी विवेचन करनेमें 1 मतभेद हो गया है, किसीके भी निर्णय से पूरा संतोष नहीं होता। मैंने यथासाध्य ॐ पूर्वापरके सम्बन्धको संगति बैठाकर विषयको सरल बनानेकी चेष्टा तो की है, तथापि पूरी बात तो किसी अनुभवी महापुरुषके कथनानुसार श्रद्धापूर्वक अभ्यास करनेसे वैसी स्थिति प्राप्त होनेपर ही समझमें आ सकती है और तभी पूरा संतोष हो सकता है, यह मेरी धारणा है।

प्रधानतया योगके तीन भेद माने गये हैं—एक सविकल्प, दूसरा निर्विकल्प और तीसरा निर्बीज । इस पादमें निर्बीज समाधिका उपाय प्रधानतया पर-वैराग्यको बताकर (योग १ । १८) उसके बाद दूसरा सरल उपाय ईश्वरकी शरणागति को बतलाया है (योग १२३), श्रद्धालु आस्तिक साधकोंके लिये । यह बड़ा ही उपयोगी है। ईश्वरका महत्त्व स्वीकार कर लेनेके कारण इनके सिद्धान्तमें साधारण बद्ध और मुक्त पुरुषोंकी ईश्वरसे भिन्नता तथा अनेकता सिद्ध होती है। Patanjali Yoga Darshan PDF Book

योगदर्शनको तात्त्विक मान्यता प्रायः सांख्यशास्त्रसे मिलती-जुलती है। कई लोग यद्यपि सांख्यशास्त्रको अनीश्वरवादी बतलाते हैं, परंतु सांख्यशास्त्रपर भलीभाँति विचार करनेपर यह कहना ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि सांख्यदर्शनके तीसरे पादके ५६ वे और ५७ वे सूत्रोंमें स्पष्ट ही साधारण पुरुषोंकी अपेक्षा ईश्वरकी विशेषता स्वीकार की गयी है। अतः सांख्य और योगके तात्त्विक विवेचनमें वर्णनशैलीके अतिरिक्त और कोई मतभेद प्रतीत नहीं होता ।

उपर्युक्त तीन भेदोंमेंसे सम्प्रज्ञातयोगके दो भेद हैं। उनमें जो सविकल्प योग है, वह तो पूर्वावस्था है, उसमें विवेकज्ञान नहीं होता। दूसरा जो निर्विकल्पयोग हैं, जिसे निर्विचार समाधि भी कहते हैं; वह जब निर्मल हो जाता है (योग १४७), उस समय उसमें विवेकज्ञान प्रकट होता है, वह विवेकज्ञान पुरुषख्यातितक हो जाता है (योग २।२८, ३।३५) जो कि पर-वैराग्यका हेतु है।

(योग० १ १६) क्योंकि प्रकृति और पुरुषके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान होनेके साथ ही साधककी समस्त गुणोंमें और उनके कार्यमें आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाता है तब चित्तमें कोई भी वृत्ति नहीं रहती, यह सर्ववृत्तिनिरोधरूप निर्बीज समाधि है (योग १।५१) । इसीको असम्प्रज्ञात-योग तथा धर्ममेव समाधि (योग- ४ । २९) भी कहते हैं, इसकी विस्तृत व्याख्या यथास्थान की गयी है। निर्बीज समाधि ही योगका अन्तिम लक्ष्य है। Patanjali Yoga Darshan PDF Book

इसीसे आत्माकी स्वरूपप्रतिष्ठा या यो कहिये कि कैवल्यस्थिति होती है (योग ४ ३४) । निरोध- अवस्थामें चित्तका या उसके कारणरूप तीनों गुणोंका सर्वथा नाश नहीं होता; किंतु जड़ प्रकृति तत्त्वसे जो चेतनतत्त्वका अविद्याजनित संयोग है, उसका सर्वथा अभाव हो जाता है। साधनपाद इस दूसरे पादमें अविद्यादि पाँच शोको समस्त दुःखोका कारण बताया गया है, क्योंकि इनके रहते हुए मनुष्य जो कुछ कर्म करता है।

वे संस्काररूपसे अन्तःकरणमें इकट्ठे होते रहते हैं, उन संस्कारोंके समुदायका नाम ही कर्माशय है। इस कर्माशयके कारणभूत फ्रेश जबतक रहते हैं, तबतक जीवको उनका फल भोगने के लिये नाना प्रकारकी योनियोंमें बार-बार जन्मना और मरना पड़ता है एवं पापकर्मका फल भोगने के लिये घोर नरकोकी यातना भी सहन करनी पड़ती है।

पुण्यकमोंका फल जो अच्छी योनियोंकी और सुखभोग- सम्बन्धी सामग्रीको प्राप्ति है वह भी विवेकको दृष्टिसे दुःख ही है (योग) २ । १५), अतः समस्त दुःखोंका सर्वथा अत्यन्त अभाव करनेके लिये फ्रेशोंका मूलोच्छेद करना परम आवश्यक है। इस पादमें उनके नाशका उपाय निश्चल और निर्मल विवेकज्ञानको (योग २२६) तथा उस विवेकज्ञानकी प्राप्तिका उपाय योगसम्बन्धी आठ अङ्ग अनुष्ठानको (योग २।२८) बताया है इसलिये साधकको चाहिये कि बताये हुए योगसाधनोंका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करे। Patanjali Yoga Darshan PDF Book

विभूतिपाद इस तीसरे विभूतिपादमें धारणा, ध्यान और समाधिइन तीनोंका एकत्रित नाम ‘संयम’ बतलाकर भिन्न-भिन्न ध्येय पदार्थोंमें संयमका भिन्न-भिन्न फल बतलाया है; उनको योगका महत्त्व, सिद्धि और विभूति भी कहते हैं। इनका वर्णन यहाँ ग्रन्थकारने समस्त ऐश्वर्यमें वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये ही किया है। यही कारण है कि इस पादके सैतीसवें पचासवें और इक्यावनवेमें एवं चौथे पादके उन्तीसवें सूत्रमें उनको समाधिमें बिताया है। अतः साधकको भूलकर भी सिद्धियोंके प्रलोभनमें नहीं पड़ना चाहिये।

कैवल्यपाद इस चौथे पादमें कैवल्यपाद प्राप्त करने कि प्रतिपादन (आत्मा) की अपने स्वरूपमें स्थिति हो जाती है अर्थात् वह कैवल्य- अवस्थाको प्राप्त हो जाता है (योग• ४ ३४) ॥ ३ ॥ सम्बन्ध चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेके पहले अष्टा अपने स्वरूपमें स्थित नहीं व्याख्या – ये चित्तको वृत्तियाँ आगे वर्णन किये जानेवाले लक्षणोंके अनुसार पाँच प्रकारकी होती हैं तथा हर प्रकारको वृत्तिके दो भेद होते हैं।

एक तो लिष्ट यानी अविद्यादि क्रेशोंको पुष्ट करनेवाली और योगसाधनमें विघ्नरूप होती हैं तथा दूसरी अक्लिष्ट यानी शोको क्षय करनेवाली और योगसाधनमें सहायक होती है। साधकको चाहिये कि इस रहस्यको भलीभाँति समझकर पहले अशिष्ट वृत्तियोंसे क्रिष्ट वृत्तियों को हटावे, फिर उन अनिष्ट वृत्तियोंका भी निरोध करके योग सिद्ध करे ॥ ५ ॥ (१) प्रत्यक्ष प्रमाण बुद्धि, मन और इन्द्रियोंके जाननेमें आनेवाले जितने भी पदार्थ है। Patanjali Yoga Darshan PDF Book Download

उनका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके साथ बिना किसी व्यवधानके सम्बन्ध होनेसे जो भ्रान्ति तथा संशयरहित ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष अनुभवसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जिन प्रत्यक्ष दर्शनोंसे संसारके पदार्थोंकी तानिय होकर या सब प्रकारसे उनमें दुःखकी प्रतीति होकर (योग- २।१५) मनुष्यका सांसारिक पदार्थोंमें वैराग्य हो जाता है, जो विकी वृत्तियोंको रोकने में सहायक हैं, जिनसे मनुष्यकी योगसाधनमें श्रद्धा और उत्साह बढ़ते हैं।

उनसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति तो अक्लिष्ट है तथा जिन प्रत्यक्ष दर्शनोंसे मनुष्यको सांसारिक पदार्थ नित्य और सुखरूप होते हैं, भोगों में आसक्ति हो जाती है, जो वैराम्यके विरोधी भावोको बढ़ानेवाले है, उनसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति क्रिष्ट है। (२) अनुमान प्रमाण-किसी प्रत्यक्ष दर्शनके सहारे युक्तियोंद्वारा जो अप्रत्यक्ष पदार्थ स्वरूपका ज्ञान होता है, वह अनुमानसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जैसे धूमको देखकर अग्रिकी विद्यमानताका ज्ञान होना, नदीमें बाढ़ आया देखकर दूर-देशमें वृष्टि होनेका ज्ञान होना — इत्यादि।

इनमें भी जिन अनुमानोंसे मनुष्यको संसारके पदार्थोंकी अनित्यता, दुःखरूपता आदि दोषोंका ज्ञान होकर उनमें वैराग्य होता है और योगके साधनोंमें श्रद्धा बढ़ती है, जो आत्मज्ञानमें सहायक है, वे सब वृत्तियाँ तो अक्लिष्ट हैं और उनके विपरीत वृत्तियाँ लिष्ट है। (३) आगम प्रमाण- वेद, शास्त्र और आप्त (यथार्थ वक्ता) पुरुषोंके वचनको ‘आगम’ कहते हैं जो पदार्थ मनुष्यके अन्तःकरण और इन्द्रियोंके प्रत्यक्ष नहीं है एवं जहाँ अनुमानकी भी पहुँच नहीं है। Patanjali Yoga Darshan PDF Book Download

उसके स्वरूपका ज्ञान वेद, शास्त्र और महापुरुषोंके वचनोंसे होता है, वह आगमसे होनेवाली प्रमाणवृत्ति है। जिस आगम-प्रमाणसे मनुष्यका भोगोंने वैराग्य होता है (गीता ५। २२) और योगसाधनोंमें श्रद्धा उत्साह बढ़ते हैं, वह तो अनिष्ट है और जिस आगम प्रमाणसे भोगोंमें प्रवृत्ति और योग-साधनोंमें अरुचि हो, जैसे स्वर्गलोकके भोगोंकी बड़ाई सुनकर उनमें और उनके साधनरूप सकाम कमोंमें आसक्ति और प्रवृत्ति होती है, वह शिष्ट है ॥ ७ ॥ सम्बन्ध प्रमाणवृत्तिके भेद अति लक्षण बतलाते हैं-

व्याख्या- किसी भी वस्तुके असली स्वरूपको न समझकर उसे दूसरी ही वस्तु समझ लेना — यह विपरीत ज्ञान ही विपर्ययवृत्ति है— जैसे सीपमें चाँदीकी प्रतीति। यह वृत्ति भी यदि भोगों में वैराग्य उत्पन्न करनेवाली और योगमार्गमं श्रद्धा उत्साह बढ़ानेवाली हो तो अलिए है, अन्यथा लिष्ट है। जिन इन्द्रिय आदिके द्वारा वस्तुओंका यथार्थ ज्ञान होता है, उन्हींसे विपरीत ज्ञान भी होता है। यह मिथ्या ज्ञान भी कभी-कभी भोगोंमें वैराग्य करनेवाला हो जाता है।

अनुमान करके या सुनकर उनको सर्वथा मिथ्या मान लेना योग-सिद्धान्तके अनुसार विपरीतवृत्ति है; क्योंकि वे परिवर्तनशील होनेपर भी मिथ्या नहीं हैं तथापि यह मान्यता भोगीमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली होनेसे अनिष्ट है। कुछ महानुभावोंके मतानुसार विपर्ययवृत्ति और अविद्या-दोनों एक ही है, परंतु यह युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होता; क्योंकि अविद्याका नाश तो केवल असम्प्रज्ञातयोगसे ही होता है (योग- ४ २९-३०) जहाँ प्रमाणवृत्ति भी नहीं रहती। Patanjali Yoga Darshan PDF Book Download

किंतु विपर्ययवृत्तिका नाश तो प्रमाणवृत्तिसे ही हो जाता है। इसके सिवा योगशास्त्र के मतानुसार विपर्यय ज्ञान चितको वृत्ति है, किंतु अविद्या चित्तवृत्ति नहीं मानी गयी है; क्योंकि वह द्रष्टा और दृश्यके स्वरूपको उपलब्धि हेतुभूत संयोगकी भी कारण है (योग २।२३-२४) तथा अस्मिता और राग आदि देशोंकी भी कारण है (योग २४), इसके अतिरिक्त प्रमाणवृत्तिमें विपर्ययवृत्ति नहीं है, परंतु राग-द्वेपादि क्रेशांका वहाँ भी सद्भाव है।

इसलिये भी विपर्ययवृत्ति और अविद्याकी एकता नहीं हो सकती; क्योंकि विपर्ययवृत्ति तो कभी होती है और कभी नहीं होती, किंतु अविद्या तो कैवल्य अवस्थाकी प्राप्तितक निरन्तर विद्यमान रहती है उसका नाश होनेपर तो सभी वृत्तियोंका धर्मी स्वयं चित्त भी अपने कारणमें विलीन हो जाता है (योग: ४।३२) । परंतु प्रमाणवृत्तिके समय विपर्ययवृत्तिका अभाव हो जानेपर भी न तो राग-द्वेषोंका नाश होता है तथा न द्रष्टा और दृश्यके संयोगका ही इसके सिवा प्रमाणवृत्ति शिष्ट भी होती है।

परंतु जिस यथार्थ ज्ञानसे अविद्याका नाश होता है, वह क्रिष्ट नहीं होता। अतः यही मानना ठीक है कि चित्तका धर्मरूप विपर्ययवृत्ति अन्य पदार्थ है तथा पुरुष और प्रकृतिके संयोगको कारणरूपा अविद्या उससे सर्वथा भिन्न है ॥ ८ ॥ सम्बन्ध अब विकल्पवृत्तिके लक्षण बतलाये जाते है- शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥ ९ ॥ शब्दज्ञानानुपाती जो ज्ञान शब्दजनित ज्ञानके साथ-साथ होनेवाला है यही विपर्यय और विकल्पका भेद है। Patanjali Yoga Darshan PDF Book Free

जैसे कोई मनुष्य सुनी सुनायी बातोंके आधारपर अपनी मान्यताके अनुसार भगवान्के रूपकी कल्पना करके भगवान्‌का ध्यान करता है, पर जिस स्वरूपका वह ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्रसम्मत है और न वैसा कोई भगवान्का स्वरूप वास्तवमें है ही, केवल कल्पनामात्र ही है। यह विकल्पवृत्ति मनुष्यको भगवान्के चिन्तनमें लगानेवाली होनेसे अशिष्ट है; दूसरी जो भोगोंमें प्रवृत्त करनेवाली विकल्पवृत्तियाँ है, वे क्लिष्ट हैं। इसी प्रकार सभी वृत्तियोंमें क्रिष्ट और अक्लिष्टका भेद समझ लेना चाहिये ॥ ९ ॥

केवलमात्र ज्ञानके अभावको ही प्रतीति रहती है, वह ज्ञानके अभावका ज्ञान जिस चित्तवृत्तिके आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है। * निद्रा भी चित्तकी वृत्तिविशेष है, तभी तो मनुष्य गाढ़ निद्रासे उठकर कहता है कि मुझे आज ऐसी गाढ़ निद्रा आयो जिसमें किसी बातको कोई खबर नहीं रही। इस स्मृतिवृत्तिसे ही यह सिद्ध होता है कि निद्रा भी एक वृत्ति है, नहीं तो जगनेपर उसकी स्मृति कैसे होती ।

निद्रा भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकारकी होती है। जिस निद्रासे जगनेपर साधकके मन और इन्द्रियोंमें सात्त्विकभाव भर जाता है, आलस्यका नाम-निशान नहीं रहता तथा जो योगसाधनमें उपयोगी और आवश्यक मानी गयी है (गीता ६ १७) वह अक्लिष्ट है, दूसरे प्रकारकी निद्रा उस अवस्थामें परिश्रम अभावका बोध कराकर विश्रामजनित सुखमें आसक्ति उत्पन्न करनेवाली होनेसे लिष्ट है ॥ १० ॥ Patanjali Yoga Darshan PDF Book Free