Skanda Purana PDF in Hindi – संपूर्ण स्कंद पुराण हिंदी

Skanda-Purana-PDF

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भगवान् श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं, चार भुजाओंसे विभूषित हैं, उनके दिव्य श्रीअङ्गकी कान्ति चन्द्रके समान गौर है तथा मुखपर सदा प्रतापी रहती है। सारे कि शान्तिके लिये ऐसे हरियान करे ऐसे नीलकमलके समान श्यामसुन्दर हरि जिनके हृदय विराजमान रहते हैं, उन्होको न होता है, उन्दीकी विजय होती है। उनकी पराजय कैसे हो सकती है 1

Skanda Purana PDF Book

Name of Book Skanda Purana
PDF Size 73.5 MB
No of Pages 1108
Language  Hindi
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About Book – Skanda Purana PDF Book

वैष्णव कौन हैं ? उपकृतिकुशला जगत्स्वज परकुलानि निजानि मन्यमानाः । । अपि परपरिभावने दयार्द्राः शिवमनसः ख वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥ पदि परधने च लोष्टखण्डे परवनितासु च कूटशाल्मलीषु । सखि रिपु सहजेषु बन्धुवर्गे सममतयः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥ गुणगणमुखाः परस्य मर्मच्छदनपराः परिणामसौख्यदा हि । भगवति सततं प्रयचिताः प्रियवचनाः खतु वैष्णवराः प्रसिद्धाः ॥ स्फुटमधुरपदं हि कंसहन्तुः कलुषमुषं शुमनाम चामनन्तः । जय जय परिपोषणां रटन्तः किड्ड विभवाः खतु वैष्णवशः प्रसिद्धाः ॥ हरिचरणसरोजयुग्मचित्ता जडिमधियः सुखदुःखसाम्यरूपाः । अपचितिचतुरा हरी निजात्मनतवचसः खलु वैष्णवाः प्रसिद्धाः ॥ विगलितमदमानशुद्धचित्ताः प्रसभविनश्यदङ्कृतिषशान्ताः । क्षपितशुचः खलु वैष्णवा जयन्ति ॥

समस्त विवका उपकार करनेमें ही जो निरन्तर कुवाका परिचय देते हैं, दूसरोंकी ई- को अपनी ही मानते हैं, का भी पराभव देखकर उनके प्रति दयालेीभूत हो जाते हैं तथा जिनके चित्तमें सबका कल्याण बसा रहता है, वे ही वैष्णवके नामसे प्रसिद्ध हैं। जिनकी पत्थर परचन और मिट्टीके लेने, परापी की ओर नामक नरक माता बन्धुवमें समान बुद्धि है, वे ही निश्चितरूपसे वैष्णवके नामसे प्रसिद्ध हैं।

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जो दूसरों की गुगराशिले प्रसन्न होते और पराये दोपको ढकनेका प्रयत्न करते हैं, परिणाममें सबको सुख देते हैं, भगवान् में सदा मन लगाये रहते तथा चोते हैं, वे ही के नामसे प्रसिद्ध है जो भगव श्रीकृष्णके पापहारी शुभ नामसम्बन्धी मधुर पदोंका जाप करते और जय-जयकी घोषणा के साथ भगवनामका कीर्तन करते हैं, वे किशन महारूपमें प्रसिद्ध है।

जिनका ति श्रीहरिके चरणारविन्दोंमें निरन्तर लगा रहता है, जो प्रेमाधिक्यके कारण जडबुद्धि-सदृश बने रहते हैं, सुख और दुःख दोनों ही जिनके लिये समान हैं, जो भगवान्की पूजामें दक्ष हैं तथा अपने मन और नियुक्त बागीको भगवान्की सेवाने समर्पित कर चुके हैं, वे ही नाम प्रसिद्ध हैं। मद और अभिमानके गल जाने के कारण जिनका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध हो गया है।

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अहङ्कारके समूल नाशसे जो परम तीरहित हो गये हैं तथा देवताओंके विश्वसनीय भगवान् श्रीसिंहजी आराधना करके जो शोकरहित हो गये हैं, ऐसे वैधाव निश्चय ही उच्च पदको प्राप्त होते हैं।” हैं। अपनी-अपनी रुचि और निष्ठाके अनुसार जिस रूप और नामको इष्ट बनाकर भजता है, उसी दिव्य नाम और रूप से समस्त रूपमय एकमात्र मान्को प्राप्त कर लेता है। क्योंकि भगवान्‌ के सभी रूप पूर्णतम हैं और उन समस्त रूपोंमें एक ही भगवान् कर रहे हैं। तो सम्बन्धमें भी यही बात है।

अतएव हा और निष्ठाकी से साधकके कल्याणार्थं जहाँ जिसका न है, वहाँ उसको सर्वोपरि बताना युक्तियुक्त ही है और पूर्णतम भगवत्सत्ताकी दृष्टिसे सत्य तो है ही तीचोंकी । यह है कि भगवान् विभिन्न नाम-रूपोंकी उपासना निवाले संतों, महात्माओं और भक्तोंने अपनी कल्याण- सत्साधनाके प्रतापसे विभिन्नरूपमय भगवान्को नी-अपनी रुचि के अनुसार नाम रूपमें अपने ही साधन- नमें प्राप्त कर लिया ।

और वहीं उनकी प्रतिष्ठा की एक भगवान् अपनी पूर्णतम स्वरूप यक्ति के साथ अनन्त नो अनन्त नाम-रूपोंमें प्रतिष्ठित हुए । भगवान्‌के शास्थान ही तीर्थ है, जो श्रद्धा निष्ठा और रुचिके सार सेवन करनेवालेको यथायोग्य फल देते हैं । यहीं रहस्य है। इस दृष्टि प्रत्येक तीर्थको सर्वोपरि बतलाना उचित ही है। सब एक हैं, इसकी पुष्टि तो इसीसे भलीभाँति हो जाती है शैव कहे जानेवाले पुराणोंमें विष्णुकी और वैष्णव शिवकी महिमा गायी गयी है । Skanda Purana PDF Book

और दोनोंको बताया गया है तथा उक्त पुराणविशेषके विशिष्ट प्रधान अपने ही श्रीमुखसे अन्य पुराणोंके प्रधान देवता को नादी स्वरूप बतलाया है। यह स्कन्दपुराण ही पुराण जाता है परंतु इसमें स्थान-स्थानपर विष्णुकी अनन्त गायी गयी है उनकी खुति की गयी है और भगवान् “भगवान् विष्णु पवित्रोंको पवित्र करनेवाले हैं, अगतियोंकी परम गति हैं, देवताओंके भी आराध्य हैं और कल्याणोंके उत्तम कल्याण हैं ।”

यो विष्णुः स शिव शेषो यः शिवो विष्णुरेव सः ।  जो विष्णु है, उन्हींको शिव जानना चाहिये और जो शिव हैं, यही विष्णु हैं। भगवान् शिव स्वयं कहते हैं- विष्णु ! जैसे मैं हूँ, वैसे ही तुम हो ।” बधाई एवं तथा विष्णो’ (अशो० २७/२८२ ) श्रीशङ्करजी गरुड़से कहते हैं-हम ही ये विष्णु हैं और ये विष्णु ही हम हैं, हम दोनोंमें तुम्हारी भेदबुद्धि नहीं होनी चाहिये- असाव स वै विष्णुमोस्तु ते भेदक च नौ ।

लोग कहते हैं कि तीचांकी इतनी महत्ता बता दी गयीं है कि सदाचार तथा ज्ञानके साधनोंका तिरस्कार हो गया है। तीर्थसेवनके कुछ अनुचित पक्षपाती लोग भी ऐसा कह देते हैं कि बस अमुकतीर्थका सेवन करो फिर चाहे जो पापाचार- अनाचार करो, कोई दरकी बात नहीं है। पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। इस भूमें कोई न रहे इसीसे पुराणोंमें जहाँ तीर्थादिका माहात्म्य प्रचुर मात्रामें लिखा गया है, वहीं ऐसी बात लिख दी गयी है, जो सारे भ्रमको दूर कर देती है। Skanda Purana PDF Book

स्कन्दपुराणमें काशीका बड़ा माहात्म्य है। पर साथ ही कहा गया है कि पाप करनेवाले लोग काशी में न रहे- पापमेव हि कर्तव्यं मतिरस्ति यथेदशी । सुखेनान्यत्र कर्तव्यं मही झन्ति महीयसी ॥ अपि कामातुरो जन्तुरेकां रक्षति मातरम् । अपि पापकृता काशी रक्ष्या मोक्षाधिनैकिका ॥ परापवादशीलेन परदाराभिलाषिणा । तेन काशी न संसेप्या क काशी निरयः क सः ॥ मैं तो पाप करूँगा ही ऐसी जिसकी बुद्धि है, उसके लिये पृथ्वी बहुत बड़ी पड़ी है।

वह काशीसे बाहर कहीं भी जाकर सुरवसे पाप कर सकता है। कामार होनेपर भी मनुष्य एक अपनी माताको तो बचाता ही है। ऐसे ही पापी मनुष्यको भी मोक्षार्थी होनेपर एक काशीको तो बचाना ही चाहिये। दूसरोंकी निन्दा करना जिनका स्वभाव है और जो परस्त्रीकी इच्छा करते हैं, उनके लिये काशी में रहना उचित नहीं । कहाँ मोक्ष देनेवाली काशी और कहाँ ऐसे नारकी मनुष्य !

जो प्रतिग्रहके द्वारा धनकी इच्छा करते हैं और जो कपट जाल फैलाकर दूसरोंका धन हरण करना चाहते हैं, उन मनुष्योंको काशी में नहीं रहना चाहिये। काशी में रहकर ऐसा कोई काम कभी नहीं करना चाहिये, जिससे दूसरेको पीड़ा हो जिनको यही करना हो, उन दुरात्माओंको काशीवाससे क्या प्रयोजन है ! ‘विप्रवर! जो अर्थार्थी या कामार्थी है, उनको इस मुक्तिदायी काशीक्षेत्र में नहीं रहना चाहिये जो शिवनिन्दामें और वेदकी निन्दामें लगे रहते हैं तथा वेदाचारके विपरीत आचरण करते हैं। Skanda Purana PDF Book

उनको वाराणसी में नहीं रहना चाहिये जो दूसरोंसे द्रोह करते हैं, दूसरोंसे डाह करते हैं और दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हैं, काशी में उनको सिद्धि नहीं मिलती।’ पापात्मा तीर्थफलसे वञ्चित रहता है यह स्पष्ट कहा गया है- नास्तिकोनिसंशयः । हेतुनि पञ्चैते तीर्थफलभागिनः ॥ पापारमा न  श्रद्धाद्दीन, पापारमा (तीर्थमें पापीकी- पाप करनेवाले की शुद्धि होती है पर जिसका स्वभाव ही पापमय है, उस ‘पापात्मा’ की नहीं होती ), नास्तिक सन्देहशील और हेतुवादी – इन पाँचको तीर्थफलकी प्राप्ति नहीं होती ।”

वस्तुतः तीर्थका फल किसको मिलता है ?– प्रतिग्रहादुपावृत्तः सन्तुष्टो येन केनचित् । अहङ्कारविमुक तीर्थफलमश्नुते ॥ अदम्भको निरारम्भो सम्माहारो जितेन्द्रियः । विमुक्तः सर्वसङ्गेयः स तीर्थफलमश्नते ॥ करता है। जो दम्भ नहीं करता, सकाम कर्मका आरम्भ नहीं करता, स्वल्पाहार करता है, इन्द्रियाँको जीत चुका है और समस्त आसक्तियों से भलीभाँति मुक्त है यह तीर्थफलका भोग करता है।

जो क्रोधरहित है, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्यभाषण करता है, निश्वषी है और समस्त प्राणियों को अपने आत्माके समान ही जानता है वह तीर्थफलका भोग करता है ।” क्योंकि – परिहासपरस्परस्त्रीकपटाग्रहाः जो चञ्चलबुद्धि हैं, लोभी हैं और तथ्य की बात नहीं कहते, जिनके मनमें परिहास पर धन और पर-स्त्रीफी इच्छा है तथा जिनका कपटपूर्ण आह है जो दूषित स्त्र पहनते हैं, जो अशान्त, अपवित्र और सत्कर्म के त्यागी है, उन मदिनचित्त मनुष्योंको इस तीर्थमें कोई फल नहीं मिलता।” Skanda Purana PDF Book Download

तीथामें किस प्रकार रहना चाहिये इसपर कहा गया है— निर्ममा निरहङ्कारा निःसङ्गत निष्परिग्रहाः । सांख्ययोगविधिज्ञाध धर्मज्ञादिछतसंशयाः ॥ ( अवन्तिका ७३२-१३ ) बन्धुवर्गेण निःस्नेहाः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥ भूतानां कर्मभिर्नित्यं त्रिविधैरभयप्रदाः । (इस क्षेत्र में वास करनेवाले ) ममतारहितः अहङ्काररहित, आसक्तिरहितः परिग्रहमें शून्य बन्धुबान्धवोंमें स्नेह न रखने- वाले, मिट्टी, पत्थर और सोनेमें समान बुद्धि रखनेवाले मन- बाणी और शरीरके द्वारा किये जानेवाले विविध कमसे सदा स प्राणियों को अभय देनेवाले, सांख्य और योगकी विधिको जानने- वाले, धर्मके स्वरूपको समझने वाले और संशय-सन्देह से रहित हो।”

मानस तीयों का वर्णन करते हुए यहाँतक कह दिया गया है- शृणु तीर्थानि गदतो मानसानि ममानघे । येषु सम्यङ्नरः स्नात्वा प्रयाति परमां गतिम् ॥ सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च ॥ चित्तमन्तर्गत दुष्ट साथज्ञानाच शुभ्यति । शतशोऽपि जलधौतं सुराभाण्डमिवाचि ॥ दानमिज्या तपः शौचं तीर्थसेवा श्रुतं यथा । सर्वाण्येताम्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः ॥ निगृहीतेन्द्रियग्राम यत्रेव बलेश्वरः । तस्य कुरुक्षेत्रं नैमिषं पुष्कराणि च ॥ ध्यानपूते ज्ञानजले रागद्वेषमलाप | यः स्नाति मानसे तीर्थे स याति परमां गतिम् ॥

गस्त्यजीने लोपामुद्रासे कहा— ‘निष्पापे ! मैं मानसतीर्थका वर्णन करता हूँ सुनो। इन तीर्थों में ज्ञान करके मनुष्य परम गतिको प्राप्त होता है। सत्य, क्षमा इन्द्रियसंयमः सब प्राणियोंके प्रति दया, सरलता, दानः मनका दमन, सन्तोष, ब्रह्मचर्यं प्रियभाषण, ज्ञानः धृति और तपस्या – ये प्रत्येक एक-एक तीर्थ हैं। इनमें ब्रह्मचर्यं परम तीर्थ है। मनकी परम विशुद्धि तीर्थ का भी तीर्थ है। जल में डुबकी मारने का नाम ही जान नहीं है। जिसने इन्द्रिय- संगमरूप स्नान किया है, वहीं नात है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया है, यही पवित्र है । Skanda Purana PDF Book Download

को लोभी है चुगलखोर है, निर्दय है, दम्भी है और विषयोंमें फँसा है, यह सारे तीथोंमें भलीभांति स्नान कर लेने पर भी पापी और मलिन ही है। शरीरका मैल उतारनेसे ही मनुष्य निर्मल नहीं होता: मनके मलको निकाल देनेपर ही भीतर से सुनिर्मल होता है। जलजन्तु जलमें ही पैदा होते हैं और में ही मरते है परंतु वे स्वर्ग में नहीं जाते; क्योंकि उनका मनका मै नहीं धुता । विपयोंमें अत्यन्त राग ही मनका मैल है और fire वैराग्यको ही निर्मलता कहते हैं।

चित्त अन्तरकी वस्तु है उसके दूषित रहनेपर केवल तीर्थ- स्नानसे शुद्धि नहीं होती। शरावके भाण्डको चाहे सौ बार बाल धोया जाय, वह अपवित्र ही रहता है वैसे ही मनका भाव शुद्ध नहीं है, तबतक उसके लिये दान, इससे यह सिद्ध है कि तीर्थ व्रत करनेवालोंके लिये भी पापके त्याग, इन्द्रियसंयम और तप आदिकी बड़ी आवश्यकता है। इसका यह अर्थ भी नहीं समझना चाहिये कि भौमतीर्थं कोई महत्त्व ही नहीं रखते। उनका बड़ा महत्त्व है और वह भी सच्चा है।

वस्तुतः पुराण सर्वसाधारणकी सर्वाङ्गीण उन्नति और परमकल्याणकी साधन-सम्पत्तिके अटूट भंडार हैं । अपनी-अपनी श्रद्धा, रुचि, निष्ठा तथा अधिकारके अनुसार साधारण अपढ़ मनुष्यसे लेकर बड़े-से-बड़े विचारशील बुद्धिवादी पुरुषोंके लिये भी इनमें उपयोगी साधन-सामग्री भरी है। ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, भक्ति, प्रेम, श्रद्धाः विश्वास यज्ञ, दान, तप, संयम, नियम, सेवा, भूतदया, वर्णधर्म आश्रमधर्म, व्यक्तिधर्म, नारीधर्म मानवधर्म, राजधर्म, ) सदाचार । Skanda Purana PDF Book Download

और व्यक्ति व्यक्तिके विभिन्न कर्तव्योंके सम्बन्धमे में बड़ा ही विचारपूर्ण और अत्यन्त कल्याणकारी अनुभूत उपदेश न बड़ी रोचक भाषामें इन पुराणोंमें भरा गया है। साथ ही पुरुष, प्रकृतिः प्रकृति-विकृति, प्राकृतिक दृश्य, ऋषि-मुनियों तथा राजाओंकी वंशावली तथा सृष्टिक्रम आदिका भी निगूढ़ वर्णन है। इनमें इतने अमूल्य रत्न छिपे हैं, जिनका पता लगाकर प्राप्त करनेवाला पुरुष टोक तथा परमार्थकी परम । सम्पति पा करके कृतकृत्य हो जाता है।

ऐसे अठारह महापुराण हैं तथा अठारह ही उपपुराण माने जाते हैं। इधर चार प्रकारके पुराणों का पता लगा है– महापुराण, उपपुराणः अतिपुराण और पुराण चारोंकी अठारह अठारह संख्या बतायी जाती है। उनकी नामावलि इस प्रकार मिलती है- महापुराण ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, श्रीमद्भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अनि, भविष्य वर्तनिः वाराह स्कन्द, वामनः कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड |

उपपुराण — भागवत, माहेश्वर, ब्रह्माण्ड, आदित्य, पराशर, सौर नन्दिकेश्वर, साम्ब कालिका, घारण, ओशनस, मानम कापिल, दुर्वासस, शिवधर्म, बृहजारदीय, नरसिंह और सनत्कुमार । अतिपुराण-कार्त श्रृङ आदि, मुद्रक, पशुपति र गणेश सौर, परानन्दः बृहद्धर्म महाभागवत, देवी, कल्कि, भार्गक वाशिष्ठः कर्म, गर्ग, चण्डी और लक्ष्मी । पुराण – बृहद्विष्णु, शिव उत्तरखण्डः लघु बृहन्नारदीय, मार्कण्डेय, वह्नि, भविष्योत्तर वराह, स्कन्द, वामन, बृहद्वामन, बृहन्मत्स्य, स्वल्पमत्स्य, लघुवैवर्त और ५ प्रकारके भविष्य । Skanda Purana PDF Book Free

इन नामोंमें, नामावलिके विभाग और क्रममें अन्तर भी हो सकता है । वहाँ तो जैसी सूची मिली है, 8/08 गयी है। यह भी सम्भव है कि इनमें कई अन्य आधुनिक भी हो। यह अन्वेषण और गवेषणाका विषय है । स्कन्दपुराण समस्त पुराणों में सबसे बड़ा है। यह खात खण्डों में विभक्त है । इसमें ८११०० श्लोक बतलाये जाते हैं। सात खण्डों के नामोंमें कुछ भेद है कथाएँ भी न्यूनाधिक पायी जाती हैं।

एक मतसे सात खण्डोंके नाम हैं- माहेश्वर खण्डः वैष्णवखण्ड, ब्राह्मखण्ड, काशीखण्ड, रेवाख -तापीखण्ड और प्रभासखण्ड | नारदपुराणके मतानुसार सात खण्ड इस प्रकार है—माहेश्वर, वैष्णव, आम, काशी, अवन्ती, नागर और प्रभासखण्ड इनमें अनेक अवान्तर खण्ड हैं। इसके अतिरिक्त एक संहितात्मक स्कन्दपुराण पृथक है ! उसके सम्बन्ध में शङ्करसंहिताके हायस्य माहात्म्य’ में लिखा है कि ‘श्रुतिसार स्कन्दपुराण ६ संहिताओं और ५० खण्डों में विभक्त है।

इसकी संहिताओंके नाम हैं-१ सनत्कुमारसंहिता, २ सूतसंहिता ३ शङ्करसंहिता, ४ वैष्णवसंहिता, ५ ब्रह्म- संहिता और ६ सौरसंहिता । इन संहिताओंकी लोकसंख्या क्रमशः ३६०००, ६००० ३००००, ५०००० ३००० और १००० हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इस स्कन्दपुराणकी लोकसंख्या भी ८१००० होती है। इन संहिताओंमेंसे पहली तीन उपलब्ध हैं। कहते हैं कि नेपाल छहों संहिताएँ हैं। सूतसंहितापर तो आचायोंके भाष्य भी हैं। Skanda Purana PDF Book Free

इस संहितात्मक कन्दपुराणको कोई उपपुराण कहते हैं, कोई पुराण और कोई इसे महापुराणका ही अङ्ग मानते हैं। जो कुछ भी हो, इसकी संहिताएँ हैं बड़े महत्त्वकी । महापुराणके नाम से प्रचलित स्कन्दपुराण सात खण्डोबाला ही है। पिछले दिनोंमें देवनागरीमें इसके दो संस्करण निकले थे। एक नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से और दूसरा श्रीवेङ्क- टेवर प्रेस, बंबई | इस महापुराणमै माहात्म्यकथाओंके मैं जो विभिन्न इतिहास तथा जीवन चरित्र आये हैं, वे बड़े महत्व हैं ।

उनमें लौकिक, पारलौकिक, पारमार्थिक कल्याणकारी अनन्य उपदेश भरे हैं । विविध धर्म हमारा यह स्कन्दमहापुराण, पता नहीं, कितने अतीत युगौंकी अनन्त अमूल्य गाथाओं को अपने वक्षःस्थलपर धारण तर किये, कितने निर्मल नद-नदी- सरित्सागर-दौलादिका विशद न्दी वर्णन प्रस्तुत किये, कितने पुण्यतीर्थ पुण्याश्रम, पुण्यायतन और कितने शत-शत कृत्तार्थजीवन ऋषि महर्षिः साधु-महात्मा संत भक्तों की पुण्यमयी चार चरित्रमालाओं से समलङ्कृत होकर आज भी भारतीय हिंदूका भक्ति-भाजन हो रहा है।

आज भी हिंदूके जीवनमें, हिंदूके घर-घर में इसमें वर्णित आचारों, पद्धतियों, मत तथा सिद्धान्तोका कितना प्रचार है—यह देखकर आर्यचकित हृदयसे इसके प्रति जीवन श्रद्धासे झुक जाता है। Skanda Purana PDF Book Free