Click here to Download Sushruta Samhita PDF Book in Hindi – संपूर्ण सुश्रुत संहिता हिंदी PDF in Hindi having PDF Size 92.9 MB and No of Pages 555.
यह माङ्गलिक है ‘ओंकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्डं भिवा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिका भौ ॥ ‘अथ’ शब्द नवीन विषयारम्भ का द्योतक भी है क्योंकि इसके पूर्व में कल्पस्थान का वर्णन किया जा चुका है । अन्य वेदान्तादि प्रन्थों में भी इसी प्रकार की परिपाटी देखी जाती ‘है’ अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’। औपदविकम् – उपद्रवान् गौणरोगानधि- कृत्य कृतोऽध्वाय औपद्रविकस्तन् । पूर्व के निदान तथा चिकित्सा स्थान में अनेक रोगोंके उपद्रवों का वर्णन किया गया है ।
Sushruta Samhita PDF Book
Name of Book | Sushruta Samhita |
PDF Size | 92.9 MB |
No of Pages | 555 |
Language | Hindi |
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About Book – Sushruta Samhita PDF Book
इसी तरह कल्पस्थान में विषजन्य आगन्तुक व्रण का विष और निज व्रण का विष भी अनेक उपद्रव उत्पन्न करता है अतएव कल्पस्थान के पश्चात् प्रारम्भ किये गये उत्तरतन्त्र में उन उपद्रवभूत रोगों की चिकित्सा का वर्णन होने से इसे ‘औपदविकाध्याय’ कहते हैं। यही बात सूत्रस्थान में भी कही गई है – अधिकृत्य कृतं यस्मात्तन्त्रमेतदुपद्रवान् । औपद्रविक इत्येष तस्याग्रथत्वान्निरुच्यते ।’ उपद्रवों के विचारार्थ या चिकि- सार्थ यह तन्त्र रचा गया है अतएव इस तन्त्र के प्रारम्भिक अध्याय को ‘पदविकाध्याय’ कहते हैं ।
अत उपद्रवचिकित्सा- विकारसामान्यात् सर्वोपद्रवचिकित्सार्थमुत्तरतन्त्रारम्भः । अथवा सर्विशमध्यायशतं परिसमाप्य परिशिष्टत्वादुत्तरतन्त्रं प्रतिपाद्यं भवति । तस्य च तन्त्रस्योपद्रवानधिकृत्य प्रवृत्तत्वान्निरुक्त्या औपद्रविकत्वं प्राप्तमध्याये व्यवस्थितम् । (उल्हगः ) । ‘उपद्रवा हि व्याधीनां कृच्छ्रत्वमसाध्यत्वं वाऽभिनिर्वर्त्तयन्तीति कृत्वा तेषां प्राधान्यं सम्प्र- धार्य तानवाधिकृत्योपदेशात्तन्त्रमिदमौपदविकेतिगौणं नामविशेषं प्राप्नोति अतस्तत्सम्बन्धित्वादध्यायो यमौपद्रविक उच्यते’ (हाराण चन्द्रः ) ।
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उपद्रवलक्षणं- ‘रोगारम्भकदोषप्रकोपजन्योऽन्यविकार उप- द्रवः’ (मधुकोषः) । ‘व्याधेरुपरि यो व्याधित्रत्युत्तरकालजः । उपक्रमाऽ- विरोधी च स उपद्रव उच्यते ॥ उपद्रवों को ( Complications ) कहते हैं । श्रध्यायानां शते विंशे यदुक्तमसकृन्मया । वक्ष्यामि बहुधा सम्यगुत्तरेऽर्थानिमानिति ॥ ३ ॥ इदानीं तत्प्रवक्ष्यामि तन्त्रमुत्तरमुत्तमम् । निखिलेनोपदिश्यन्ते यत्र रोगाः पृथग्विधाः ॥ ४ ॥
पूर्व के एक सौ बीस अध्यायों में मैंने जहाँ-तहाँ बार-बार यह कहा कि इन विषयों को उत्तरस्थानमें अच्छी तरह से ( विस्तारपूर्वक ) कहूँगा इसलिये इस समय उस उत्तम उत्तरतन्त्र को कहता हूँ जिसमें कि अनेक प्रकार के रोग सम्पूर्ण रूप में पृथक रूप ( नानाविध रूप ) से कहे गये हैं । विमर्शः – अध्यायानां शते विंशे- सूत्रस्थान के ४६ अध्याय, ‘पट्चत्वारिंशदध्यायं सूत्रस्थानं प्रचक्षते’ निदानस्थान के १६ अध्याय ‘।
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हेतुलक्षणनिर्देशान्निदानानीति पोडश’ शारीर स्थान के १० अध्याय ‘निर्दिष्टानि दशैतानि शारीराणि महर्षिणा’ चिकित्सा- स्थान के ४० अध्याय, कल्पस्थान के ८ अध्याय ‘अष्टौ कल्पाः समाख्याता विषभेषजकल्पनाद’ ऐसे से एक सौ बीस अध्याय होते हैं जो कि चिकित्सा के बीच (मुख्य) कहे जाते हैं । ‘बीजं चिकित्सितस्यैतत् समासेन प्रकीर्तितम् । सर्विशमध्यायशतमस्य व्याख्या भविष्यति ॥ यदुक्तमसकृन्मया -पूर्व के सूत्रादिस्थानों में शेष विषयों को उत्तरस्थान में कहने की प्रतिज्ञा की है।
जैसे- ‘तच्च सविंशमध्यायशतं पञ्चसु स्थानेषु सूत्रनिदानशारीरचिकित्सित व कल्पेष्वर्थवशात् संविभज्य उत्तरे तन्त्रे शेषानर्थान् व्याख्यास्यामः’ (सु. सू. अ. १ ) । ‘अध्यायानां शतं विशमेवमेतदुदीरितम् । अतः परं स्वनाम्नैव तन्त्रमुत्तरमुच्यते ॥’ (तु. सू. अ. ३)। ‘सर्विशमध्याय- शतमेतदुक्तं विभागशः । इहोद्दिष्टाननिर्दिष्टानर्थान् वध्याम्यथोत्तरे ।।’ (सु. क. अ. ८) । कुछ लोगों का यह अभिप्राय है कि पूर्व काल में सुश्रुतसंहिता के केवल उक्त पांच स्थान ही थे उत्तरतन्त्र बाद में मिलाया गया है ।
और सुश्रुतकृत भी नहीं है किन्तु यह उनका भ्रम है क्योंकि उक्त तीनों सूत्रों में स्पष्ट कहा है कि शेष विषयों का उत्तरतन्त्र में फिर से विवेचन किया जायगा । तन्त्रमुत्तरमुत्तमम् इस तन्त्र को उत्तम ( सबसे श्रेष्ठ) माना है क्योंकि इसमें शालाक्य, कौमार, भूतविद्या, काय- चिकित्सा और तन्त्रभूषणादि अनेक विषयों का सङ्ग्रह है । उत्तरशब्द का अर्थ भी श्रेष्ठ होता है—’उपर्युीच्यश्रेष्ठेष्वप्यन्तरः’ ( अमरः । अतः महर्षियों ने इसका नाम उत्तरतन्त्र रखा है। Sushruta Samhita PDF Book
‘श्रेष्ठत्वादुत्तरं ह्येतत् तन्त्रमाहुर्महर्षयः । वर्थसग्रहार उत्तरचापि पश्चिमम् ॥’ (सु. सू. अ. ३) । पतिमत्वाद्वा इदं तन्त्रमुत्तरम्। सबसे पीछे वर्णन हुआ इससे भी इस तन्त्र को उत्तरतन्त्र कहा जा सकता है। शालाक्यतन्त्राभिहिता विदेहाधिपकीर्तिताः । . ये च विस्तरतो दृष्टाः कुमाराबाधहेतवः ॥ ५ ॥ षट्सु कायचिकित्सासु ये चोक्ताः परमर्षिभिः । उपसर्गादयो रोगा ये चाप्यागन्तवः स्मृताः ॥ ६ ॥ त्रिषष्टी रससंसर्गाः स्वस्थवृत्तन्तथैव च । युक्तार्था युक्त यश्चैत्र दोषभेदास्तथैव च ॥ ७ ॥ यत्रोक्ता विविधा अर्था रोगसाधनहेतवः ॥ ८ ॥
विदेह (देश) के अधिपति (स्वामी) निमि नामक आचार्य द्वारा कहे हुये शालाक्यतन्त्र के रोग तथा पार्वतक, जीवक, बन्धक प्रभृति आचार्यों द्वारा विस्तार से कहे हुये कुमारों (बालकों) को बाधा ( पीड़ा ) पहुंचाने में कारणभूत स्कन्दग्रहादिकजन्य रोग, इसी तरह अनिवेश, भेड, जातूकर्ण, पराशर, हारीत और चारपाणि इन ६ द्वारा कही हुई काय- चिकित्साओं में ऋषियों ने जो रोग बतलाये हैं ।
वे तथा उप- सर्गादिक रोग एवं आगन्तुक रोग और मधुरादि रसों के ६३ प्रकार के संयोग, स्वस्थवृत्त, युक्तार्थ, तन्त्रयुक्तियां, वात-पित्त-कफादि दोषों के भेद और रोगों के ठीक करने ऊपर के अङ्गों में उत्पन्न होने वाले रोगों के निदान, चिकित्सा आदि का वर्णन जहां होता हो उसे शालाक्यतन्त्र ( Surgery of the parts above the laviole) कहते हैं । इसी कारण वाग्भट ने इसे ऊर्ध्वाङ्ग चिकित्सा नाम से लिखा है । Sushruta Samhita PDF Book
अन्य विद्वानों ने इसे उत्तमाङ्ग चिकित्सा भी कहा है क्योंकि चतुरादि ज्ञानेन्द्रियों का आधारभूत शिर उत्तमाङ्ग कहा जाता है- * प्राणाः प्राणभृतां यत्र श्रिताः सर्वेन्द्रियाणि च । तदुत्तमाङ्गमङ्गानां ‘शिर इत्यभिधीयते ।।’ शालाक्यतन्त्र में निम्न विषयों का समावेश होता है- ‘शिरोरोगा नेत्ररोगाः कर्णरोगा विशेषतः । शशकण्ठ- मन्यासु ये रोगाः संभवन्ति हि । तेषां प्रतीकारकर्म नस्यवत्यं नानि च। अभ्यङ्गमुखगण्डूपक्रियाः शालायसंमिताः ॥
षट्सप्तति- नेत्ररोगा दशाष्टादश कर्णजाः। एकत्रिंशद् प्राणगताः शिरस्येकादशैव तु ॥ संहितायामभिहिताः सप्तषष्टिर्मुखामयाः ॥ एतावन्तो यथास्थूल- मुत्तमाङ्गगता गदाः । असिंम्हात्रे निगदिताः संख्यारूपचिकि- सितैः ॥ ( सु. ३-२७ ) । ‘दृष्टिविशारदाः शालाकिनः’ अर्थात् नेत्र विद्या के पडितों को ‘शालाकी” कहते हैं तथा शालाक्य शास्त्र के ज्ञाता को भी ‘शालाकी’ कहते हैं।
डल्हण ) । वर्तमान एलोपेथिक सायन्स में शालाक्यतन्त्र के लिये कोई ऐसा एक शब्द नहीं है जिस से उस का बोध हो सके किन्तु शालाक्य में आने वाले ऊर्ध्वाङ्गों की निदान चिकित्सादि विवेचन के लिये उनके तीन विभाग कर दिये गये हैं । (१) नेत्ररोगादि विज्ञान (Ophthalmology ) | ( २ ) दन्तरोगादिविज्ञान (Dentistry)। (३) कर्णनासागतरोगादिविज्ञान ( The Sci- ence of Ear, Nose & Throat diseases) । Sushruta Samhita PDF Book
इन तीनों विभागों की विशेष शल्यक्रियाओं (Special Surgery ) के बोध के लिये एक बड़ा वाक्य हो सकता है जैसे Treatment of the diseases of the part above the Clavicle or Special Surgery of Eye, Ear, Nose, Throat and Dentistry. (४) शिरोरोग (Diseases of the Head ) को एलोपेथी में कायचिकित्सान्तर्गत मान लिया है ।
विदेहाधिपकीतिताः- विदेहाधिपो निमिस्तेन कीर्तिताः प्रणीताः । पट्सप्ततिर्नेत्ररोगाः, न करालभद्रशौनकादिप्रणीताः । यद्यपि शालाक्यतन्त्र के विषय में कराल, भद्रक, शौनक, चक्षुष्येण, विदेह, सात्यकि, भोज आदि अनेक आचार्यों ने विवेचन किया है। यह बात प्राचीन संस्कृत टीकाओं में इन के आये हुये उद्धरणों से स्पष्ट हो जाती है किन्तु उन की कृतियां उपलब्ध नहीं हैं ।
इन के अतिरिक्त तन्त्रान्तर शब्द से अन्य तन्त्रों के होने का भी प्रमाण मिलता । सम्भव है उस समय उन की ग्रन्थरूप कृतियां प्राप्त होती रहीं होंगी । किन्तु आचार्य सुश्रुत के समय केवल विदे- के भिति तिमि द्वारा प्रणीत प्राचीन शालाक्यतन्त्र मिलता शालाक्य के विषय में न कोई अन्य तन्त्र मिलते हैं और न ” निमितन्त्र या विदेहतन्त्र मिलता है किन्तु उसके उद्धरण अनेक सङ्ग्रहों और टीकाओं में उद्धृत मिलते हैं। Sushruta Samhita PDF Book Download
डल्हणाचार्य ने शालाक्यरोग – प्रसङ्ग में अपनी टीका में अनेक स्थानों पर निमि या विदेह के वचनों को उद्घृत किया है आचार्य निमि का पुराणों में पर्याप्त वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत ९ स्कन्ध, अ० १३ की कथा में इन्हें राजा इक्ष्वाकु का पुत्र कहा गया है। एक समय इच्वाकुपुत्र महा- राज निमि ने यज्ञार्थ वशिष्ठ जी को ऋत्विज नियत करना चाहा किन्तु उन्होंने अपने को प्रथम ही इन्द्रद्वारा वरण कर लिये जाने से पुनः लौटने तक प्रतीक्षा करने को कहा ।
वशिष्ठजी के आने में अधिक विलम्ब होता जान अन्य ऋत्विजों द्वारा यज्ञारम्भ कर दिया। कुछ काल बाद लौटने पर वशिष्ठजी ने यज्ञारम्भ कर देने पर निमि को नष्ट होने का शाप दे दिया इस पर निमि ने भी वशिष्ठ को नष्ट होने का शाप दे दिया। ऋत्विजों ने निमि के मृतदेह को सड़े न अतएव सुगन्धित पदार्थों में रख दिया फिर यज्ञपूर्णता के समय आये हुए देवताओं के प्रभाव से निमि पुनर्जीवित हो गये किन्तु निमि ने देह धारण कर रहना पसन्द।
नहीं किया अतः देवों ने उन्हें बिना देह के ही सब मनुष्यों के पलकों पर रहने का आदेश दे दिया । इसी कारण निमेष शब्द भी निमिपरक माना गया है क्योंकि पलकों के खोलने व बन्द करने को ‘निमेष’ कहते हैं तथा उसी क्रिया के समय निमि का वहां निवास लक्षित होता है। रामायण में भी जानकीजी का निर्निमेष नेत्रों से राम को देखते समय तुलसीदासजी ने उत्प्रेक्षा की है। Sushruta Samhita PDF Book Download
कि मानों जानकीजी के पलक – निवासी निमि ने रामचन्द्रजी को अपनी वंशपुत्री जानकी द्वारा देखने में लज्जा का अनुभव कर कुछ काल के लिये वहां से हट से गये अतएव जानकीजी राम को प्रेमनिमग्न हो कर निर्निमेष नेत्रों से देख सक- ‘भरी विलोचन चारु अचञ्चल मनहु सकुचि निमि तजेउ हगंचल ।’ निमि ही को जनक भी कहते हैं क्योंकि उस वक्त उन ऋषियों ने निमि के मृत देह का मन्थन किया जिससे एक बालक उत्पन्न हुआ वह जन्म से ‘जनक’।
विदेह से उत्पन्न होने के कारण ‘वैदेह’ और मन्धन कर के उत्पन्न होने से ‘मिथिला’ कहा गया जिसने की ‘मिथिलापुरी’ बनाई। डल्हण ने भी निमि के परिचयार्थ ऐसी ही अन्य कथा लिखी है— ‘विदेहाथि पतिः श्रीमान् जनको नाम विश्रुतः । आलम्भयप्रवणः सोऽयजद्वा- क्षणैर्वृतः ॥ तस्य यागप्रवृत्तस्य कुपितो भगवान् रविः । दृष्टि प्रणा शयामास सोऽनुतेपे महत्तपः । दीप्तांशुस्तपसा तेन सोषितः प्रददौ क्रियारूपी एकता से साम्य रखते हैं ।
यद्यपि पर्जिटर नामक पाश्चात्य विद्वान ने पुराणों को प्राचीन भारत के सच्चे इतिहास ग्रन्थों के रूप में स्वीकृत किया है तथा उस ने निमि का निर्देश नहीं किया है फिर भी पुराणों के अनुसार महाराज निमि काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि के बहुत पूर्व के होते हैं तथा ये निमि अयोध्या के राजा विकुक्षि शशाद और राजा पुरूरवा के समकालीन थे। विकुक्षि शशाद की सोलहवीं पीढ़ी में प्रसेनजित हुये जो यादव राजा चित्ररथ। Sushruta Samhita PDF Book Download
हैहय राजा कुन्ति, कान्यकुब्ज राजा सुहोत्र, पौरव राजा मतिनार, काशिराज धन्वन्तरि और आणव राजा पुरञ्जय के समकालीन थे। इस तरह निमि का समय धन्वन्तरि से ३२० वर्ष पूर्व का हो सकता है । पाश्चात्य इतिहासकार मूल सुश्रुततन्त्र तथा आचार्य सुश्रुत का समय महाभारत काल के बहुत पूर्व का मानते हैं। प्रायः ऐतिहासिकों ने महाभारत का समय ईसा से १००० वर्ष पूर्व माना है तथा सुश्रुत का समय ईसा से २००० वर्ष पूर्व का होता है।
और यही समय धन्वन्तरि का भी है एवं निमि का समय धन्वन्तरि से ३५० वर्ष पूर्व का होता है । इस तरह निमिमुनि या उनके निमितन्त्र को ईसा से २३५० वर्ष पूर्व का मान सकते हैं। वर्तमान में सुश्रुत के समान चरक, वाग्भटादि अन्य संहिता ग्रन्थों में शालाक्यतन्त्र का विशद विवेचन नहीं है । नेत्ररोगों की गणना करते समय चरक ने स्पष्ट लिख दिया है कि इनका विशेष विवेचन तथा चिकित्सा शालाक्यतन्त्र में है तथा हम पराधिकार में विशेष विस्तार नहीं करना चाहते हैं।
नेत्रामयाः पण्णवतिस्तु भेदात् तेषामभिव्यक्तिरभिप्रदिष्टा । शालाक्यतन्त्रेषु चिकित्सितश्च परानिकारे तु न विस्तरोक्तिः ॥ शस्तेति तेनात्र न नः प्रयासः ।’ अन्यथ — ‘अत्र धान्वन्तरीयाणामधिकारः क्रियाविधौ’ (च. चि. अ. २६) । इसी तरह अष्टाङ्गहृदय तथा अष्टाङ्गसंग्रह का शालाक्यतन्त्र-सम्बन्धी विवेचन भी पर्याप्त नहीं है अत एव इस तन्त्र के विस्तृत ज्ञान के लिये एकमात्र सुश्रुतसंहिता ही प्रमुख आधार है। Sushruta Samhita PDF Book Free
सुश्रुत के उत्तरतन्त्र के प्रारम्भ के सत्ताईस अध्यायों में क्रमशः नेत्र, कर्ण और शिरो- रोगों का वर्णन मिलता है। मुखरोगों का वर्णन निदान स्थान के अन्तिम तथा चिकित्सा स्थान के बाईसवें अध्याय में प्राप्त होता है। कर्ण का छेदन, बन्धन तथा सन्धान एवं नासा और महतस्तस्य तन्त्रस्य दुर्गाधस्याम्बुधेरिव ।। श्रादावेवोत्तमाङ्गस्थान् रोगानभिदधाम्यहम् । • सङ्ख्यया लक्षणैश्चापि साध्यासाध्यक्रमेण च ॥ ६ ॥
दुर्गा अर्थात् अत्यन्त गहरे समुद्र के समान महान् इस बड़े तन्त्र में सर्वप्रथम उत्तमाङ्ग (शिर) के रोगों को उनकी संख्या, लक्षण और साध्यता-असाध्यता आदि क्रम से कहता हूं ॥ ९ ॥ विमर्श:- :- इस श्लोक के द्वारा सुश्रुताचार्य ने निमितन्त्र को महान् तथा समुद्र के समान गम्भीर कह कर स्तुति की है तथा इसी तन्त्र के क्रमानुसार स्वसंहिता (सुश्रुत ) में रोगों की संख्या, लक्षण और साध्यासाध्यता आदि का वर्णन किया है ।
अन्य अध्याय में भी आचार्य ने इस तन्त्र की पूर्ण गम्भी रता को हजारों तथा लाखों श्लोकों से भी नहीं जानी जा सकती है ऐसी प्रशंसा की है- समुद्र इव गम्भीरं नैव शक्य चिकित्सितम् । वक्तुं निरवशेपेग श्लोकानामयुतैरपि ॥ सहस्रैरपि वा प्रोक्तमर्थमल्पमतिर्नरः । तर्कग्रन्थार्थरहितो नैव गृह्णात्यण्डितः ॥ उत्तमाङ्ग – इस शब्द से शिर ( मस्तिष्क Brain ) का ग्रहण होता है जैसा कि चरक में कहा है ‘प्राणाः प्राणभृतां यत्र श्रिताः सर्वेन्द्रियाणि च । यदुत्तमाङ्गमङ्गानां शिरस्त- दभिधीयते’ ।। Sushruta Samhita PDF Book Free
अथर्ववेद में भी लिखा है- ‘तद्वा अथर्वणः शिरः देवकोशः समुज्झितः । तत्प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्नमथो मनः ॥ भेलसंहितायामपि – ‘शिरस्तात्वन्तर्गतं सर्वेन्द्रियपरं मनः । तत्रस्थं तद्धि विषयानिन्द्रियाणां रसादिकान् । समीपस्थान् विजानाति त्रीन् भावांध नियच्छति । तन्मनः प्रभवञ्चापि सर्वेन्द्रियमयं बलम् । कारणं सर्वबुद्धीनां चित्तं हृदयसंस्थितम् । क्रियाणाचेतरासाञ्च चित्तं सर्वस्य “कारणम् || ऊर्ध्वमूलमधःशास्त्रमृषयः पुरुषं विदुः । मूलप्रहारिणस्त- स्माद रोगान् शीघ्रतरं जयेत्’ ॥ वाग्भटेऽपि – ‘सर्वेन्द्रियाणि येना- स्मिन् प्राणा येन च संश्रिताः । तेन तस्योत्तमाङ्गस्य रक्षायामादृतो भवेत् ॥
विद्याद् द्रबलबाहुल्यं स्वाङ्गुष्ठोदरसम्मितम् । – दूधङ्गुलं सर्वतः सार्द्ध भिषङ्नयनबुदबुदम् ॥ सुवृत्तं गोस्तनाकारं सर्वभूतगुणोद्भवम् ॥ १० ॥ पलं भुवोऽग्नितो रक्तं वातात् कृष्णं सितं जलात् । आकाशादश्रुमार्गाश्च जायन्ते नेत्रबुदबुदे ।। ११ ।। वैद्य नयनबुद्बुद (अक्षिगोलक Eye ball ) को अपने अष्ट के उदर ( मध्य भाग) के प्रमाणानुसार दो अकुल पाश्चात्त्य नेत्ररोगविज्ञान के प्रायः उन रोगों के वर्णन से मिलता- जुलता है जिनका समावेश Diseases of the refracting media के रोगों में होता है।
इसलिये दृष्टिगत रोग वास्तव में एक्कस, (Aquous ), लेंस ( Leos ), विट्रियस ( Vitreous ) और दृष्टि नाडी (Optic nerve ) के रोगों से मिलते हैं अत एव तारक या कनीनिका ( Pupil) को दृष्टि मानना आधुनिक सम्मत नहीं है । दृष्टि का मुख्य रोग तिमिर व लिङ्गनाश जो कि ( Lens ) की खराबी से होता है अत एव हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि आचार्यों ने दृष्टि को दो अर्थों में ग्रहण किया है। Sushruta Samhita PDF Book Free
एक सामान्य दर्शन ( Vision; और दूसरा विशिष्ट अर्थ दृष्टिमणि Lens) ही समझना चाहिये क्योंकि यह Lens मसूर के दल (पत्र) के आयाम ( लम्बाई, चौड़ाई ) का भी होता है।