Click here to Download Vamana Purana PDF in Hindi having PDF Size 11.7 MB and No of Pages 196.
महेश्वर। हृदयको विदीर्ण करनेवाली वायु वेग चल रही है। ये मेघ भी गर्जन कर रहे हैं, नीले मेघों बिजलियाँ कौंध रही हैं और मयूरगण केकाध्वनि रहे हैं। आकाशसे गिरती हुई जलधाराएँ नीचे आ रह हैं। बगुले तथा बगुलोंकी पंक्तियाँ जलाशयोंमें तैर रह हैं। प्रबल वायुके झोंके खाकर कदम्ब, सर्ज, अर्जुन त केतकीके वृक्ष पुष्पोंको गिरा रहे हैं- वृक्षोंसे फूल झ रहे हैं। मेघका गम्भीर गर्जन सुनकर हंस तुरं जलाशयोंको छोड़कर चले जा रहे हैं, जिस प्रका योगिजन अपने सब प्रकारसे समृद्ध घरको भी छोड़ दे हैं।
Vamana Purana PDF Book
Name of Book | Vamana Purana |
PDF Size | 11.7 MB |
No of Pages | 196 |
Language | Hindi |
Buy Book From Amazon |
About Book – Vamana Purana PDF Book
शिवजी वनमें मृगोंके ये यूथ आनन्दित होक इधर-उधर दौड़ लगाकर खेल-कूदकर आनन्दित रहे हैं और देव! देखिये, नीले बादलोंमें विद्यु भलीभाँति चमक रही है। लगता है, जलकी वृद्धिक देखकर वीरगण हरे-भरे सुपुष्ट नये वृक्षोंपर विचरण क रहे हैं। नदियाँ सहसा उद्दाम (बड़े) वेगसे बहने लग हैं। चन्द्रशेखर ऐसे उत्तेजक समयमें यदि असुव व्यक्तिके फंदेमें आकर स्त्री दुःशील हो जाती हैं इसमें क्या आश्चर्य ॥ १७ – २१ ॥
आकाश नीले बादलोंसे घिर गया है। इसी प्रका पुष्पोंके द्वारा सर्ज, मुकुलों (कलियों) के द्वारा नी ( कदम्ब), फलोंके द्वारा बिल्व वृक्ष एवं जलके द्वा नदियाँ और कमल पुष्पों एवं कमल-पत्रोंसे बड़े-बड़े सरोवर भी ढक गये हैं। हे शंकरजी! ऐसी दुःसह अद्भुत तथा भयंकर दशामें आपसे प्रार्थना करती हूँ वि उस महान तथा उन पर्वतपर वह निर्माण कोलिये हैं। मेरे दाहिने और बाँयें हाथोंमें भी क्रमशः अश्वतर तथा तक्षक नाग कङ्कण बने हुए हैं।
Click here to Download Vamana Purana PDF Book |
इसी प्रकार मेरी कमरमें नीलाञ्जनके वर्णवाला नील नामका सर्प अवस्थित होकर सुशोभित हो रहा है । २२ – २६ ॥ पुलस्त्यजी बोले- महादेवजीसे इस प्रकार कठोर तथा ओजस्वी एवं सत्य होनेपर भी असत्य प्रतीत हो रहे वचनको सुनकर सतीजी बहुत डर गयीं और स्वामीके निवासकष्टको देखकर गरम साँस छोड़ती हुई और पृथ्वी की ओर देखती हुई (कुछ) क्रोध और लज्जासे इस प्रकार कहने लगीं ॥२७॥
सतीदेवी बोलीं- देवेश! वृक्षके मूलमें दुःखपूर्वक रहकर भी मेरा वर्षाकाल कैसे व्यतीत होगा। इसीलिये तो मैं आपसे (गृहके निर्माणकी बात ) कहती हूँ॥ २८ ॥ शंकरजी बोले- देवि! मेघ मण्डलके ऊपर अपने शरीरको स्थित कर तुम वर्षांकाल भलीभाँति व्यतीत कर सकोगी। इससे वर्षाकी जलधाराएँ तुम्हारे शरीरपर नहीं गिर पायेंगी ।। २९ ।। पुलस्त्यजी बोले- उसके बाद महादेवजी दक्षकन्या सतीके साथ आकाशमें उन्नत मेघमण्डलके ऊपर चढ़कर बैठ गये। तभीसे स्वर्गमें उन महादेवजीका नाम ‘जीमूतकेतु’ या ‘जीमूतवाहन’ विख्यात हो गया ॥ ३० ॥
For More PDF Book Click Below Links….!!!
पुलस्त्यजीने कहा – (नारदजी!) ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ तथा अग्रगणी होनेपर भी भगवान् शिवको कपाली जानकर प्रजापति दक्षने उन्हें (यज्ञमें) निमन्त्रित नहीं किया ॥ १७ ॥ नारदजीने (फिर) पूछा- ( महाराज !) देवश्रेष्ठ शूलपाणि, त्रिलोचन भगवान् शंकर किस कर्मसे और किस प्रकार कपाली हो गये, यह बतलायें ॥ १८ ॥ पुलस्त्यजीने कहा- नारदजी ! आप ध्यान देकर सुनें। यह पुरानी कथा आदिपुराणमें अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजीके द्वारा कही गयी है।
मैं उसी प्राचीन कथाको आपसे कहता हूँ। प्राचीन समयमें समस्त स्थावरजङ्गमात्मक जगत् एकीभूत महासमुद्र में निमग्न ( डूबा हुआ) था। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, वायु एवं अग्रि – किसीका भी कोई ( अलग) अस्तित्व नहीं था ‘भाव’ एवं ‘अभाव’ से रहित जगत्की उस समयकी अवस्थाका कोई ठीक- ठीक ज्ञान, विचार, तर्कना या वर्णन सम्भव नहीं है। सभी पर्वत एवं वृक्ष जलमें निमग्न थे तथा सम्पूर्ण जगत् अन्धकारसे व्याप्त एवं दुर्दशाग्रस्त था । ऐसे समय में भगवान् विष्णु हजारों वर्षोंकी निद्रामें शयन करते हैं एवं रात्रिके अन्तमें राजस रूप ग्रहणकर वे सभी लोकोंकी रचना करते हैं । १९-२२ ॥
इस चराचरात्मक जगत्का स्रष्टा भगवान् विष्णुका वह अद्भुत राजस स्वरूप पञ्चमुख एवं वेद-वेदाङ्गका ज्ञाता था। उसी समय तमोमय, त्रिलोचन, शूलपाणि, कपर्दी तथा रुद्राक्षमाला धारण किया हुआ एक अन्य पुरुष भी प्रकट हुआ। उसके बाद भगवान्ने अतिदारुण अहंकारकी रचना की, जिससे ब्रह्मा तथा शंकर-ये दोनों हो देवता आक्रान्त हो गये। अहंकारसे व्याप्त शिवने ब्रह्मासे कहा- तुम कौन हो और यहाँ कैसे आये हो ? Vamana Purana PDF Book
तुम मुझे यह भी बतलाओ कि तुम्हारी सृष्टि किसने ब्रह्माके द्वारा ) लोकपति (शंकर) के पराजित हो जानेपर क्रोधसे अन्धे हुए रुद्रसे ( श्रीब्रह्माजीके) पाँचवें मुखने कहा – तमोमूर्ति त्रिलोचन मैं आपको जानता हूँ। आप दिगम्बर, वृषारोही एवं लोकोंको नष्ट करनेवाले (प्रलयंकारी ) हैं। इसपर अजन्मा भगवान् शंकर अपने तीसरे घोर नेत्रद्वारा भस्म करनेकी इच्छासे ब्रह्माके उस मुखको एकटक देखने लगे। तदनन्तर श्रीशंकरके श्वेत रक्त स्वर्णिम, नौल एवं पिंगल वर्णके सुन्दर पाँच मुख समुद्भूत हो गये ॥ ३१-३४
सूर्यके समान दीप्त (उन) मुखोंको देखकर पितामहके मुखने कहा- जलमें आघात करनेसे बुदबुद तो उत्पन्न होते हैं, पर क्या उनमें कुछ शक्ति भी होती है ? यह सुनकर क्रोधभरे भगवान् शंकरने ब्रह्माके कठोर भाषण करनेवाले सिरको अपने नखके अग्रभागसे काट डाला; पर वह कटा हुआ ब्रह्माजीका सिर शंकरजीके ही वाम हथेलीपर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकरके उस हथेलीसे (इस प्रकार चिपक गया कि गिरानेपर भी) किसी प्रकार न गिरा।
इसपर अद्भुतकर्मी ब्रह्माजी अत्यन्त क्रुद्ध हो गये। उन्होंने कवच कुण्डल एवं शर धारण करनेवाले धनुर्धर विशाल बाहुवाले एक पुरुषकी रचना की। वह अव्यय, चतुर्भुज बाण, शक्ति और भारी तरकस धारण किये था तथा सूर्यके समान तेजस्वी दीख पड़ता था ॥ ३५-३९ ॥ उस नये पुरुषने शिवजीसे कहा- दुर्बुद्धि शूलधारी शंकर! तुम शीघ्र ( यहाँसे) चले जाओ, अन्यथा मैं तुम्हें मार डालूँगा। पर तुम पापयुक्त हो भला इतने बड़े पापीको कौन मारना चाहेगा? Vamana Purana PDF Book
जब शिवजीने नारायणकी बात सुनकर त्रिशूलद्वारा बड़े वेगसे उनकी बाम भुजापर आघात किया। त्रिशूलद्वारा (भुजापर) प्रताड़ित मार्गसे जलकी तीन धाराएँ निकल पड़ीं। एक धारा आकाशमें जाकर वाराओंसे मण्डित आकाशगङ्गा हुई दूसरी धारा पृथ्वीपर गिरी, जिसे तपोधन अत्रिने ( मन्दाकिनीके रूपमें) प्राप्त किया। शंकरके उसी अंशसे दुर्वासाका प्रादुर्भाव हुआ।
तीसरी धारा भयानक दिखायी पड़नेवाले कपालपर गिरी, जिससे एक शिशु उत्पन्न हुआ। वह (जन्म लेते ही) कवच बाँधे, श्यामवर्णका युवक था। उसके हाथोंमें धनुष और बाण था। फिर वह वर्षाकालमें मेघ गर्जनके समान कहने लगा मैं किसके स्कन्धसे सिरको – तालफलके सदृश काट गिराऊँ ?’ ॥ ४५-४९ ॥ श्रीनारायणकी बाहुसे उत्पन्न उस पुरुषके समीप जाकर श्रीशंकरने कहा- हे नर! तुम सूर्यके समान प्रकाशमान, पर कटुभाषी, ब्रह्मासे उत्पन्न इस पुरुषको मार डालो।
शंकरजीके ऐसा कहनेपर उस चौर नरने प्रसिद्ध आजगव नामका धनुष एवं अक्षय तूणीर ग्रहणकर युद्धका निश्चय किया। उसके बाद ब्रह्मात्मज और नारायणकी भुजासे उत्पन्न दोनों नरोंमें सहस्र दिव्य वर्षोंतक प्रबल युद्ध होता रहा। तत्पश्चात् श्रीशंकरजीने ब्रह्माके पास जाकर कहा- पितामह! यह एक अद्भुत बात है कि दिव्य एवं अद्भुत कर्मवाले (मेरे) नरने दसों दिशाओंमें व्याप्त महान् बाणोंके प्रहारसे ताडित कर आपके पुरुषको जीत लिया। Vamana Purana PDF Book
ब्रह्माने उस ईशसे कहा कि इस अजितका जन्म गाँउ पालित होनेके लिये नहीं जया है। पुलस्त्यजी बोले- नारदजी ! तत्पश्चात् शिवजीको अपने करतलमें भयंकर कपालके सट जानेसे बड़ी चिन्ता हुई। उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं। उन्हें बड़ा संताप हुआ। उसके बाद कालिखके समान नीले रंगको, रक्तवर्णके कैशवाली भयंकर ब्रह्महत्या शंकरके निकट आयी।
उस विकराल रूपवाली स्त्रीको आयी देखकर शंकरजीने पूछा- ओ भयावनी स्त्री ! यह बतलाओ कि तुम कौन हो एवं किसलिये यहाँ आयी हो ? इसपर उस अत्यन्त दारुण ब्रह्महत्याने उनसे कहा- मैं ब्रह्महत्या हैं; हे त्रिलोचन! आप मुझे स्वीकार करें – इसलिये यहाँ आयी हूँ ॥ १-४ ॥ ऐसा कहकर ब्रह्महत्या संतापसे जलते शरीरवाले त्रिशूलपाणि शिवके शरीरमें समा गयी। ब्रह्महत्यासे अभिभूत होकर श्रीशंकर बदरिकाश्रममें आये; किंतु वहाँ नर एवं नारायण ऋषियोंके उन्हें दर्शन नहीं हुए।
धर्मके उन दोनों पुत्रोंको वहाँ न देखकर वे चिन्ता और शोकसे युक्त हो यमुनाजीमें स्नान करने गये; परंतु उसका जल भी सूख गया। यमुनाजीको निर्जल देखकर भगवान् शंकर सरस्वतीमें स्नान करने गये; किंतु वह भी लुप्त हो गयी ॥ ५८ ॥ फिर पुष्करारण्य, धर्मारण्य और सैन्धवारण्यमें जाकर उन्होंने बहुत समयतक स्नान किया। उसी प्रकार वे नैमिषारण्य तथा सिद्धपुरमें भी गये और स्नान किये; फिर भी उस भयंकर ब्रह्महत्याने उन्हें नहीं छोड़ा। Vamana Purana PDF Book Download
जीमूतकेतु शंकरने अनेक नदियों, तीर्थों, आश्रमों एवं पवित्र देवायतनोंकी यात्रा की; पर योगी होनेपर भी थे पापसे मुक्ति न प्राप्त कर सके। तत्पश्चात् से खिन्न होकर कुरुक्षेत्र गये। वहाँ जाकर उन्होंने गरुडध्वज चक्रपाणि (विष्ण) को देखा और उन शह-चक्र-गदाधारी भगवान् शंकर बोले- हे देवताओंके स्वामी! आपको नमस्कार है । गरुडध्वज आपको प्रणाम है। शङ्ख-चक्र-गदाधारी वासुदेव! आपको नमस्कार है।
निर्गुण, अनन्त एवं अतर्कनीय विधाता! आपको नमस्कार है। ज्ञानाज्ञानस्वरूप स्वयं निराश्रय किंतु सबके आश्रय ! आपको नमस्कार है। रजोगुण, सनातन, ब्रह्ममूर्ति ! आपको नमस्कार है। नाथ! आपने इस सम्पूर्ण चराचर विश्वकी रचना की है। सत्त्वगुणके आश्रय लोकेश ! विष्णुमूर्ति, अधोक्षज, प्रजापालक, महाबाहु, जनार्दन ! आपको नमस्कार है। हे तमोमूर्ति में आपके अंशभूत क्रोधसे उत्पन्न हूँ। हे महान् गुणवाले सर्वव्यापी देवेश ! आपको नमस्कार है । १४ – १८ ॥
जगन्नाथ! आप ही पृथ्वी, जल, आकाश, अग्रि, वायु, बुद्धि, मन एवं रात्रि हैं; आपको नमस्कार है। ईश्वर आप ही धर्म, यज्ञ, तप, सत्य, अहिंसा, पवित्रता, सरलता, क्षमा, दान, दया, लक्ष्मी एवं ब्रह्मचर्य हैं। हे ईश ! आप अङ्गसहित चतुर्वेदस्वरूप, येद्य एवं वेदपारगामी हैं। आप ही उपवेद हैं तथा सभी कुछ आप ही हैं आपको नमस्कार है। अच्युत ! चक्रपाणि! आपको बारंबार नमस्कार है। मीनमूर्तिधारी (मत्स्यावतारी) माधव ! Vamana Purana PDF Book Download
आपको नमस्कार है। मैं आपको लोकमें दयालु मानता हूँ। केशव ! आप मेरे शरीरमें स्थित ब्रह्महत्यासे उत्पन्न अशुभको नष्ट कर मुझे पाप-बन्धनसे मुक्त करें। बिना विचार किये कार्य करनेवाला मैं दग्ध एवं नष्ट हो गया हूँ। आप साक्षात् तीर्थ हैं, अतः आप मुझे पवित्र करें। आपको बारंबार नमस्कार है । १९ – २३ ॥ पुलस्त्यजीने कहा- भगवान् शंकरद्वारा इस प्रकार स्तुत होनेपर चक्रधारी भगवान् विष्णु शंकरकी ब्रह्महत्याको
उन दोनोंके मध्यका प्रदेश योगशायीका क्षेत्र है। वह तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ तथा सभी पापोंसे छुड़ा देनेवाला तीर्थ है। उसके समान अन्य कोई तीर्थ आकाश, पृथ्वी एवं रसातलमें नहीं है। ईश वहाँ पवित्र शुभप्रद विख्यात वाराणसी नगरी है, जिसमें भोगी लोग भी आपके लोकको प्राप्त करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि विलासिनी स्त्रियोंकी करधनीकी ध्वनिसे मिश्रित होकर मङ्गल स्वरका रूप धारण करती है।
उस ध्वनिको सुनकर गुरुजन बारंबार उपहासपूर्वक उनका ‘शासन करते हैं। जहाँ चौराहोंपर भ्रमण करनेवाली स्त्रियोंके अलक्त (महावर) से अरुणित चरणोंको देखकर चन्द्रमाको स्थल पद्मिनीके चलनेका भ्रम हो जाता है और जहाँ रात्रिका आरम्भ होनेपर ऊँचे-ऊंचे देवमन्दिर चन्द्रमाका (मानो) अवरोध करते हैं एवं दिनमें पवनान्दोलित (हवासे फहरा रही) दीर्घ पताकाओंसे सूर्य भी छिपे रहते हैं ।। २९ – ३३ ॥ Vamana Purana PDF Book Download
जिस (वाराणसी) में चन्द्रकान्तमणिकी भित्तियोंपर प्रतिबिम्बित चित्रमें निर्मित स्त्रियोंके निर्मल मुख- कमलोंको देखकर भ्रमर उनपर भ्रमवश लुब्ध हो जाते हैं और दूसरे पुष्पोंकी ओर नहीं जाते। हे शम्भो ! वहाँ सम्मोहनलेखनसे पराजित पुरुषोंमें तथा घरकी बावलियों में जलक्रीड़ाके लिये एकत्र हुई स्त्रियोंमें ही ‘भ्रमण’ देखा जाता है, अन्यत्र किसीको ‘ भ्रमण’ (चक्कर रोग) नहीं होता ।
द्यूतक्रीडा (जुआके खेल) के पासोंके सिवाय – अन्य कोई भी दूसरेके ‘पाश’ (बन्धन) में नहीं डाला जाता तथा सुरत समयके सिवाय स्त्रियोंके साथ कोई विभो ! जहाँ उलूक ही सदा दोषा (रात्रि)- प्रिय होते हैं, अन्य लोग दोषोंके प्रेमी नहीं हैं। तारागणों में ही अकुलीनता ( पृथ्वीमें न छिपना) है, लोगोंमें कहीं अकुलीनताका नाम नहीं है; गद्यमें ही वृत्तच्युति (छन्दोभङ्ग) होती है, अन्यत्र वृत्त (चरित्र) 12/196 दीखती। शंकर!
जहाँकी विलासिनियाँ आपक (भस्म) भूतिलुब्धा “भुजंग (सर्प) – परिवारिता’ एवं ‘चन्द्रभूषितदेहा’ होती हैं। (यहाँ पक्षान्तरमें विलासिनियोंके पक्षमें संगतिके लिये, ‘भूति’ पद ‘भस्म’ और ‘धन’ के अर्थमें, ‘भुजङ्ग’ पद ‘सर्प’ एवं ‘जार’ के अर्थमें तथा ‘चन्द्र” पद ‘चन्द्राभूषण’ के अर्थ में प्रयुक्त हैं ।) सुरेशान! इस प्रकारको वाराणसीके महान् आश्रम में सभी पापको दूर करनेवाले भगवान् ‘लोल’ नामके सूर्य निवास करते हैं। Vamana Purana PDF Book Free
सुरश्रेष्ठ! वहीं दशाश्वमेध नामका स्थान है तथा वहीं मेरे अंशस्वरूप केशव स्थित हैं। वहाँ जाकर आप पाप से छुटकारा प्राप्त करेंगे ॥ ३८-४१ ॥ भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर शिवजीने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर वे पाप छुड़ानेके लिये गरुड़के समान तेज वेगसे वाराणसी गये। वहाँ परमपवित्र तथा तीर्थभूत नगरीमें जाकर दशाश्वमेधके साथ ‘असी’ स्थानमें स्थित भगवान् लोलार्कका दर्शन किया तथा (बाँके) तीर्थोंमें स्नान कर और पाप मुक्त होकर वे (वरुणासंगमपर) केशवका दर्शन करने गये।
उन्होंने केशवका दर्शन करके प्रणामकर कहा- हृषीकेश! आपके प्रसादसे ब्रह्महत्या तो नष्ट हो गयी, पर देवेश ! यह कपाल मेरे हाथको नहीं छोड़ रहा है। इसका कारण मैं नहीं जानता। आप ही मुझे यह बतला सकते हैं । ४२-४५ ॥ पुलस्त्यजी बोले- देवर्षे भगवान् शिव इस प्रकार कपाली नामसे ख्यात हुए और इसी कारण वे दक्षके द्वारा निमन्त्रित नहीं हुए। प्रजापति दक्षने सतीको अपनी पुत्री होनेपर भी कपालीकी पत्नी समझकर निमन्त्रणके योग्य न मानकर उन्हें यज्ञमें नहीं बुलाया।
इसी बीच देवीका दर्शन करनेके लिये गौतम-पुत्री जया सुन्दर गुफाबाले पर्वतश्रेष्ठ मन्दरपर गयी। जयाको वहाँ अकेली आयी देखकर सती बोलीं- विजये! जयन्ती और अपराजिता यहाँ क्यों नहीं आय ? ॥ १-४ ॥ देवीके वचनको सुनकर विजयाने उन सती परमेश्वरीसे कहा- अपने पिता गौतम और माता अहल्याके साथ वे मातामहके सत्र (यज्ञ) में निमन्त्रित होकर चली गयी हैं। वहाँ जानेके लिये उत्सुक में आपसे मिलने आयी हूँ। क्या आप तथा भगवान् शिव वहाँ नहीं जा रहे हैं? Vamana Purana PDF Book Free
क्या पिताजीने आपको नहीं बुलाया है ? अथवा आप वहाँ जायेंगी ? सभी ऋषि ऋषि पत्रियाँ तथा देवगण वहाँ गये हैं। हे मातृष्वसः (माँसी)! पत्नीके सहित शशाङ्क भी उस यज्ञमें गये हैं। चौदहों लोकोंके समस्त चराचर प्राणी उस यज्ञमें निमन्त्रित हुए हैं। क्या आप निमन्त्रित नहीं हैं ? ॥ ५–९ ॥ पुलस्त्यजी बोले- ब्रह्मन् ! (नारदजी!) वज्रपात समान जयाकी उस बातको सुनकर क्रोध एवं दुःख भरकर सतीने प्राण छोड़ दिये। सतीको मरी हुई देख क्रोध एवं दुःखसे भरी जया आँसू बहाते हुए जोर-जो विलाप करने लगी।
रोनेकी करुणध्वनि सुनकर शूलपा भगवान् शिव ‘अरे क्या हुआ, क्या हुआ’ ऐसा कह उसके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने फरसे क वृक्षपर चढ़ी लताकी तरह सतीको भूमिपर मरी देखा तो जयासे पूछा- ये सती कटी लताकी भूमिपर क्यों पड़ी हुई हैं? शिवके वचनको सुनकर बोली- हे त्रिलोकेश्वर! दक्षके यज्ञमें अपने-अ पतिके साथ बहनोंका एवं इन्द्र आदि देवोंके आदित्य आदिका निमन्त्रित होकर उपस्थित ह सुनकर आन्तरिक दुःख (की ज्वाला) से दग्ध गयीं।
इससे मेरी माताकी बहन (सती) के प्राण नि गये ॥ १०- १६ ॥ पुलस्त्यजीने कहा- जयाके इस भय (अमङ्गल ) वचनको सुनकर शिवजी अत्यन्त क्रुद्ध गये। उनके शरीरसे सहसा अग्रिको तेज ज्वालाएँ निक लगीं। मुने! इसके बाद क्रोधके कारण त्रिनेत्र भग शिवके शरीरके लोमोंसे सिंहके समान मुखवाले वीर आदि बहुत-से रुद्रगण उत्पन्न हो गये। अपने गणोंसे भगवान् शिव मंदरपर्वतसे हिमालयपर गये और वा कनखल चले गये, जहाँ दक्ष यज्ञ कर रहे थे। Vamana Purana PDF Book Free