Varaha Purana PDF in Hindi – संपूर्ण वराह पुराण हिंदी

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जिन अनन्तरूप भगवान् विष्णु (वराह) – ने प्राचीन कालमें समुद्रोंसे घिरी, वन पर्वत एवं नदियोंसहित पृथ्वीको अत्यन्त विशाल शरीरके द्वारा अपनी दड़के अग्रभागपर मिट्टीके (छोटे-से) ठेलेकी भाँति उठा लिया था, वे कंस, मुर, नरक तथा रावण आदि असुरोंका अन्त करनेवाले कृष्ण एवं विष्णुरूपसे सबमें व्याप्त देवदेवेश्वर आदिदेव भगवान् वराह मेरी सभी बाधाओं (काम, क्रोध, लोभ आदि आध्यात्मिक शत्रुओं) को नष्ट करें।

Varaha Purana PDF Book

Name of Book Varaha Purana
PDF Size 23.8 MB
No of Pages 392
Language  Hindi
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About Book – Varaha Purana PDF Book

सूतजी कहते हैं— पूर्वकालमें जब सर्वव्यापी ‘भगवान् नारायणने वराह रूप धारण करके अपनी शक्तिद्वारा एकार्णवकी अनन्त जलराशिमें निमग्न पृथ्वीका उद्धार किया, उस समय पृथ्वीने उनसे पूछा । पृथ्वीने कहा- प्रभो! आप प्रत्येक कल्पमें सृष्टिके आदिकालमें इसी प्रकार मेरा उद्धार करते रहते हैं; परंतु केशव ! आपके स्वरूप एवं सृष्टिके प्रारम्भके विषयमें मैं आजतक न जान सकी।

जब वेद लुप्त हो गये थे, उस समय आप मत्स्यरूप धारण कर समुद्र में प्रविष्ट हो गये थे और वहाँसे वेदोंका उद्धार करके आपने ब्रह्माको दे दिया था। मधुसूदन ! इसके अतिरिक्त जब देवता और दानव एकत्र होकर समुद्रका मन्थन करने लगे, तब आपने कच्छपावतार ग्रहण करके मन्दराचल पर्वतको धारण किया था। भगवन्! आप सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं। जब मैं जलमें डूब रही थी, तब आपने रसातलसे, जहाँ सब ओर जल-ही- जल था, अपनी एक दाढ़पर रखकर मेरा उद्धार किया है।

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इसके अतिरिक्त जब वरदानके प्रभावसे हिरण्यकशिपुको असीम अभिमान हो गया था और वह पृथ्वीपर भाँति-भाँति के उपद्रव करने लगा था, उस समय वह आपके द्वारा ही मारा गया था। देवाधिदेव! प्राचीन कालमें आपने ही जमदग्निनन्दन परशुरामके रूपमें अवतीर्ण होकर मुझे क्षत्रियरहित कर दिया था। भगवन्! आपने क्षत्रियकुलमें दाशरथि श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण होकर क्षत्रियोचित पराक्रमसे रावणको नष्ट कर दिया था तथा वामनरूपसे आपने ही बलिको बाँधा था।

प्रभो! मुझे जलसे ऊपर उठाकर आप सृष्टिकी रचना किस प्रकार करते हैं तथा इसका क्या कारण है? आपकी इन लीलाओंके रहस्यको मैं कुछ भी नहीं जानती। पृथ्वीके ऐसा कहनेपर शूकररूपधारी भगवान् आदिवराह हँस पड़े। हँसते समय उनके उदरमें जगद्धात्री पृथ्वीको महर्षियोंसहित रुद्र, वसु, सिद्ध एवं देवताओंका समुदाय दीखने लगा। साथ ही उसने वहाँ अपने-अपने कर्तव्यपालनमें तत्पर सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहों और सातों लोकोंको भी देखा।

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यह सब देखते ही भय एवं विस्मयसे पृथ्वीके सभी अङ्ग काँपने लगे। इस प्रकार पृथ्वीको भयभीत देखकर भगवान् वराहने अपना मुख बंद कर लिया। तब पृथ्वीने उनको चतुर्भुज रूप धारणकर महासागरमें शेषनागकी शय्यापर सोये देखा। उनकी नाभिसे कमल निकला हुआ था। फिर तो चार भुजाओंसे सुशोभित उन परमेश्वरको देखकर देवी पृथ्वीने हाथ जोड़ लिया और उनकी स्तुति करने लगी।

पृथ्वीने कहा – कमलनयन ! आपके श्रीअङ्गों में पीताम्बर फहरा रहा है, आप स्मरण करते ही भक्तोंके पापोंका हरण करनेवाले हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। देवताओंके द्वेषी दैत्योंका दलन करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार हैं। जो शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं, जिनके वक्षःस्थलपर लक्ष्मी शोभा पाती हैं तथा भक्तोंको पृथ्वी और जलका संयोग होनेपर बुदबुदाकार कलल बना और वही अण्डेके आकारमें परिणत हो गया। उसके बढ़ जानेपर मेरा जलमय रूप दृष्टिगोचर हुआ।

मेरे इस रूपको स्वयं मैंने ही बनाया था। इस प्रकार नार अर्थात् जलकी सृष्टि करके मैं उसीमें निवास करने लगा। इसीसे मेरा नाम ‘नारायण’ हुआ। वर्तमान कल्पके समान ही मैं प्रत्येक कल्पमें जलमें शयन करता हूँ और मेरे सोते समय सदैव मेरी नाभिसे इसी प्रकार कमल उत्पन्न होता हैं, जैसा कि आज तुम देख रही हो। देवि! ऐसी स्थितिमें मेरे नाभिकमलपर चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए। तब मैंने उनसे कहा- ‘महामते! Varaha Purana PDF Book

तुम प्रजाकी रचना करो।’ ऐसा कहकर मैं अन्तर्धान हो गया और ब्रह्मा भी सृष्टिरचनाके चिन्तनमें लग गये। वसुन्धरे ! इस प्रकार चिन्तन करते हुए ब्रह्माको जब कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ा, तो फिर उन अव्यक्तजन्माके मनमें क्रोध उत्पन्न हुआ। उनके इस क्रोधके परिणामस्वरूप एक बालकका प्रादुर्भाव हुआ। जब उस बालकने रोना प्रारम्भ किया, तब अव्यक्तरूप ब्रह्माने उसे रोनेसे मना किया। इसपर उस बालकने कहा- ‘मेरा नाम तो बता दीजिये।

तब ब्रह्माने रोनेके कारण उसका नाम ‘रुद्र’ रख दिया। शुभे ! उस बालकसे भी ब्रह्माने कहा – ‘ लोकोंकी रचना करो।’ परंतु इस कार्यमें अपनेको असमर्थ जानकर उस बालकने पृथ्वी बोली- देवेश्वर ! प्रथम सृष्टिका और विस्तारसे वर्णन करनेकी कृपा करें तथा नारायण ब्रह्मारूपसे कैसे विख्यात हुए? मुझे यह सब भी बतलानेकी कृपा करें । वराह भगवान् कहते हैं- देवि पृथ्वि ! नारायणने ब्रह्मारूपसे जिस प्रकार प्रजाओंकी सृष्टि की, उसे मैं विस्तृत रूपसे कहता हूँ, सुनो।

शुभे पिछले कल्पका अन्त हो जानेपर रात्रि व्याप्त हो गयी। भगवान् श्रीहरि उस समय सो गये। प्राणोंका नितान्त अभाव हो गया। फिर जगनेपर उनको यह जगत् शून्य दिखायी पड़ा। भगवान् नारायण दूसरोंके लिये अचिन्त्य हैं। वे पूर्वजोंके भी पूर्वज, ब्रह्मस्वरूप, अनादि और सबके लष्टा हैं। ब्रह्माका रूप धारण करनेवाले वे परम प्रभु जगत्की उत्पत्ति और प्रलयकर्ता हैं। उन नारायणके विषयमें यह श्लोक कहा जाता है- आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । अयनं तस्य ताः पूर्वं ततो नारायणः स्मृतः ॥ Varaha Purana PDF Book

पुरुषोत्तम नरसे उत्पन्न होनेके कारण जलको ‘नार’ कहा जाता है, क्योंकि जल भी नार अर्थात् पुरुषोत्तम परमात्मासे उत्पन्न हुआ है। सृष्टिके पूर्व वह नार ही भगवान् हरिका अयन – निवास रहा, अतएव उनकी नारायण संज्ञा हो गयी। फिर पूर्व- कल्पोंकी भाँति उन श्रीहरिके मनमें सृष्टिरचनाका संकल्प उदित हुआ। तब उनसे बुद्धिशून्य तमोमयी
उन परम पुरुषके चिन्तन करनेपर दूसरी पहलेकी अपेक्षा उत्कृष्ट सृष्टि रचनाका कार्य आरम्भ हो गया।

यह सृष्टि वायुके समान वक्र गतिसे या तिरछी चलनेवाली हुई, जिसके फलस्वरूप इसका नाम तिर्यक्त्रोत पड़ गया। इस सर्गके प्राणियोंकी पशु आदिके नामसे प्रसिद्धि हुई। इस सर्गको भी अपनी सृष्टि रचनाके प्रयोजनमें असमर्थ जानकर ब्रह्माद्वारा पुनः चिन्तन किये जानेपर एक और दूसरा सर्ग उत्पन्न हुआ। यह ऊर्ध्वस्रोत नामक तीसरा धर्मपरायण सात्त्विक सर्ग हुआ, जो देवताओंके रूपमें ऊर्ध्व स्वर्गादि लोकोंमें रहने लगा।

ये सभी देवता ऊर्ध्वगामी एवं स्त्री-पुरुष- संयोगके फलस्वरूप गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार इन मुख्य सृष्टियोंकी रचना कर लेनेपर भी जब ब्रह्माने पुन: विचार किया, तो उनको ये भी परम पुरुषार्थ (मोक्ष) के साधनमें असमर्थ दीखे। तब फिर उन्होंने सृष्टिरचनाका चिन्तन करना प्रारम्भ किया और पृथ्वी आदि नीचेके लोकों में रहनेवाले अर्वाक्स्रोत सर्गकी रचना की। Varaha Purana PDF Book

इस अर्वाक्स्रोतवाली सृष्टिमें उन्होंने जिनको बनाया, वे मनुष्य कहलाये और वे परम पुरुषार्थके साधनके योग्य थे। इनमें जो सत्त्वगुणविशिष्ट थे, वे प्रकाशयुक्त हुए। रज एवं तमोगुणकी जिनमें अधिकता थी, वे कर्मोंका बारंबार अनुष्ठान करनेवाले एवं दुःखयुक्त हुए। सुभगे ! इस प्रकार मैंने इन छः सगका तुमसे वर्णन किया। इनमें पहला महत्तत्त्वसम्बन्धी सर्ग, दूसरा तन्मात्राओंसे विधाताकी सभी सृष्टियोंमें उच्च स्थान रखनेवाली छठी सृष्टि देवताओंकी है।

मानव उनकी सातवीं सृष्टिमें आता है। सत्त्वगुण और तमोगुणमिश्रित आठवाँ अनुग्रहसर्ग माना गया है; क्योंकि इसमें प्रजाओंपर अनुग्रह करनेके लिये ऋषियोंकी उत्पत्ति होती है। इनमें बादके पाँच वैकृत सर्ग और पहलेके तीन प्राकृत सर्गके नामसे जाने जाते हैं। नवाँ कौमार सर्ग प्राकृत- वैकृतमिश्रित है। प्रजापतिके ये नौ सर्ग कहे गये हैं। संसारकी सृष्टिमें मूल कारण ये ही हैं। इस प्रकार मैंने इन सगका वर्णन किया। अब तुम दूसरा कौन-सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ?

पृथ्वी बोली- भगवन्! अव्यक्तजन्मा ब्रह्माद्वारा रचित यह नवधा सृष्टि किस प्रकार विस्तारको प्राप्त हुई ? अच्युत! आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें। भगवान् वराह कहते हैं— सर्वप्रथम ब्रह्माद्वारा रुद्र आदि देवताओंकी सृष्टि हुई। इसके बाद सनकादि कुमारों तथा मरीचि प्रभृति मुनियोंकी रचना हुई। मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, क्रतु महान् तेजस्वी पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, नारद एवं महातपस्वी वसिष्ठ – ये दस ब्रह्माजीके मानस पुत्र हुए उन परमेष्ठीने सनकादिको निवृत्तिसंज्ञक धर्ममें तथा नारदजीके अतिरिक्त मरीचि आदि सभी ऋषियोंको प्रवृत्तिसंज्ञक धर्ममें नियुक्त कर ब्रह्माके जो रुद्र नामक पुत्र हैं, उनका प्रादुर्भाव क्रोधसे हुआ था। Varaha Purana PDF Book

जिस समय ब्रह्माकी भौंहें रोषके कारण तन गयी थीं, तब उनके ललाटसे इनका प्रादुर्भाव हुआ। उस समय इनका शरीर अर्धनारीश्वरके रूपमें था। ‘तुम स्वयं अपनेको अनेक भागोंमें बाँटो’ – इनसे यों कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये। यह आज्ञा पाकर उन महाभागने स्त्री और पुरुष इन दो भागों में अपनेको विभाजित कर दिया। फिर अपने पुरुष- रूपको उन्होंने ग्यारह भागों में विभक्त किया। तभीसे ब्रह्मासे प्रकट होनेवाले इन ग्यारह रुद्रोंकी प्रसिद्धि हुई। अनघे! तुम्हारी जानकारीके लिये मैंने इस रुद्रसृष्टिका वर्णन कर दिया।

अब मैं संक्षेपसे युगमाहात्म्यका वर्णन करता हूँ । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग हैं। इन चारों युगोंमें परम पराक्रमी तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले जो राजा हो चुके हैं एवं जिन देवताओं और दानवोंने ख्याति प्राप्त की है तथा जिन धर्म-कर्मोंका उन्होंने अनुष्ठान किया है; वह मुझसे सुनो। पूर्वकालकी बात है, प्रथम कल्पमें स्वायम्भुव मनु हुए। उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके लोकोत्तर कर्म

मनुष्योंके लिये असम्भव ही थे। धर्ममें श्रद्धा रखनेवाले वे महाभाग प्रियव्रत और उत्तानपाद नामसे विख्यात हुए। प्रियव्रतमें तपोबल था और वे महान् यज्ञशाली थे। उन्होंने पुष्कल (अधिक) दक्षिणावाले अनेक महायज्ञोंद्वारा भगवान् श्रीहरिका यजन किया था। उन्होंने सातों अतएव उनके तपस्यामें लीन होनेपर उनसे मिलनेकी इच्छासे वहाँ स्वयं नारदजी पधारे। नारदमुनिका आगमन आकाश मार्गसे हुआ था। उनका तेज सूर्यक समान छिटक रहा था। Varaha Purana PDF Book Download

उन्हें देखव 6/392ाराज 9 प्रियव्रतको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने आसन, पाद्य एवं नैवेद्यसे नारदजीका भलीभाँति सत्कार किया। तत्पश्चात् उन दोनोंमें परस्पर वार्ता प्रारम्भ हो गयी। अन्तमें वार्तालापकी समाप्तिके समय राजा प्रियव्रतने ब्रह्मवादी नारदजीसे पूछा। राजा प्रियव्रत बोले- नारदजी ! आप महान् पुरुष हैं। इस सत्ययुगमें आपने कोई अद्भुत घटना देखी या सुनी हो, तो उसे बतानेकी कृपा करें। नारदजीने कहा- महाराज! अवश्य ही मैंने एक आश्चर्यजनक बात देखी है, वह सुनो।

कल मैं श्वेतद्वीप गया था, मुझे वहाँपर एक सरोवर दिखलायीं पड़ा। उस सरोवरमें बहुत-से कमल खिले हुए थे। उसके तटपर विशाल नेत्रोंवाली एक कन्या खड़ी थी। उस कन्याको देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गया। उसकी वाणी भी बड़ी मधुर थी। मैंने उससे पूछा- ‘भद्रे ! तुम कौन हो, इस स्थानपर कैसे निवास करती हो और यहाँ तुम्हारा क्या काम है?” मेरे इस प्रकार पूछनेपर उस कुमारीने एकटक नेत्रोंसे मुझे देखा, पर न जाने क्या सोचकर वह चुप ही रही।

उसके देखते ही मेरा सारा ज्ञान पता नहीं, कहाँ चला गया ? राजन् ! सम्पूर्ण वेद, समस्त शास्त्र, योगशास्त्र और वेदोंके शिक्षादि अङ्गोंकी मेरी सारी स्मृतियाँ राजा अश्वशिरा बोले- ‘मुनिवरों! मेरे मनमें एक संदेह है, उसे दूर करनेमें आप दोनों पूर्ण समर्थ हैं। उसके फलस्वरूप मुझे मुक्ति सुलभ हो सकती है।’ उनके इस प्रकार कह 12/392 परम धर्मात्मा कपिलमुनिने यज्ञ करनेवालोंमें ५० उस राजासे कहा कपिलजीने कहा- राजन् ! तुम परम धार्मिक हो। तुम्हारे मनमें क्या संदेह है ? बताओ, उसे सुनकर मैं दूर कर दूँगा । Varaha Purana PDF Book Download

राजा अश्वशिरा बोले- मुने! मोक्ष पानेका अधिकारी कर्मशील पुरुष है या ज्ञानी ? – मेरे मनमें यह संदेह उत्पन्न हो गया है। यदि मुझपर आपकी दया हो तो इसे दूर करनेकी कृपा करें। कपिलजीने कहा- महाराज ! प्राचीन कालकी बात है, यही प्रश्न ब्रह्माजीके पुत्र रैभ्य तथा राजा वसुने बृहस्पतिसे पूछा था । पूर्वकालमें चाक्षुष मन्वन्तरमें एक अत्यन्त प्रसिद्ध राजा थे, जिनका नाम था वसु। वे बड़े विद्वान् और विख्यात दानी थे।

ब्रह्माजीके वंशमें उनका जन्म हुआ था। राजन्! वे महाराज वसु ब्रह्माजीका दर्शन करनेके विचारसे ब्रह्मलोकको चल पड़े। मार्गमें ही चित्ररथ नामक विद्याधरसे उनकी भेंट हो गयी। राजाने प्रेमपूर्वक चित्ररथसे पूछा – ‘प्रभो ! ब्रह्माजीका दर्शन किस समय हो सकता है ?” चित्ररथने कहा- ‘ब्रह्माजीके भवनमें इस समय देवताओंकी सभा हो रही है।’ ऐसा सुनकर वे नरेश ब्रह्मभवनके द्वारपर ठहर गये। इतनेमें महान रैभ्य मुनि बोले- ‘ महाराज! मैं देवगुरु बृहस्पतिके पाससे आ रहा हूँ।

किसी कार्यके विषयमें पूछनेके लिये मैं उनके पास चला गया था।’ रैभ्य मुनि इस प्रकार बोल ही रहे थे कि इतनेमें ब्रह्माजीकी वह विशाल सभा विसर्जित हो गयी। सभी देवता अपने-अपने स्थानको चले गये । अतः अब बृहस्पतिजी भी वहीं आ गये। राजा बसुने उनका स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् तीनों ही एक साथ बृहस्पतिके भवनपर गये । राजेन्द्र ! वहाँ रैभ्य, बृहस्पति एवं राजा वसु- तीनों बैठ गये। सबके बैठ जानेपर देवताओंके गुरु बृहस्पतिने रैभ्य मुनिसे कहा – ‘महाभाग ! Varaha Purana PDF Book Download

तुम्हें तो स्वयं वेद एवं वेदाङ्गोंका पूर्ण ज्ञान है। कहो, तुम्हारा मैं कौन-सा कार्य करूँ ?’ रैभ्य मुनि बोले- बृहस्पतिजी! कर्मशील और ज्ञानसम्पन्न – इन दोनोंमें कौन मोक्ष पानेका अधिकारी है ? इस विषयमें मुझे संदेह उत्पन्न हो गया है। प्रभो! आप इसका निराकरण करनेकी कृपा करें। बृहस्पतिजीने कहा- मुने! पुरुष शुभ या अशुभ जो कुछ भी कर्म करे, वह सब का सब भगवान् नारायणको समर्पण कर देनेसे कर्मफलोंसे लिप्त नहीं हो सकता। द्विजवर!

इस विषयमें एक ब्राह्मण और व्याधका संवाद सुना जाता है। अत्रिके वंशमें उत्पन्न एक ब्राह्मण थे। उनकी वेदाभ्यासमें बड़ी रुचि थी। वे प्रातः, मध्याह्न तथा सायं- त्रिकाल स्नान करते हुए तपस्या करते थे। वहाँ मुनिने निष्ठुरक नामके व्याधको देखकर उसे मना करते हुए कहा- ‘भद्र ! तुम निन्द्य कर्म मत करो।’ तब मुनिपर दृष्टि डालकर वह व्याध मुस्कुराते हुए बोला- ‘द्विजवर! सभी जीवधारियोंमें आत्मारूपसे स्थित होकर स्वयं भगवान् ही इन जीवोंके वेशमें क्रीडा कर रहे हैं।

जैसे माया जाननेवाला व्यक्ति मन्त्रोंका प्रयोग करके माया फैला देता है, ठीक वैसे ही यह प्रभुकी माया है, F इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये। विप्रवर ! मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको कि वे कभी भी अपने मनमें अहंभावको न टिकने दें। यह सारा संसार अपनी जीवनयात्राके प्रयत्नमें संलग्न रहता है। हाँ, इस कार्यके विषयमें ‘ अहम्’ अर्थात् ‘मैं कर्ता हूँ’ – इस भावका होना उचित नहीं है। Varaha Purana PDF Book Free

जब विप्रवर संयमनने निष्ठुरक व्याधकी बात सुनी तो वे अत्यन्त आश्चर्ययुक्त होकर उसके प्रति यह वचन बोले- ‘भद्र! तुम ऐसी युक्तिसंगत बात कैसे कह रहे हो ?” ब्राह्मणकी बात सुनकर धर्मके मर्मज्ञ उस व्याधने पुनः अपनी बात प्रारम्भ की। उसने सर्वप्रथम लोहेका एक जाल बनाया। उसे फैलाकर उसके नीचे सूखी लकड़ियाँ डाल दीं। तदनन्तर ब्राह्मणके हाथमें अग्नि देकर उसने कहा- ‘आर्य! इस लकड़ीके ढेरमें आग लगा दीजिये।’

तत्पश्चात् ब्राह्मणने मुखसे फूँककर अग्नि प्रज्वलित कर दी और शान्त होकर बैठ गये । जालके छिद्रोंसे ऐसा दृश्य प्रतीत होने लगा। तब • व्याधने उन ब्राह्मणसे कहा- ‘मुनिवर ! आप इनमेंसे कोई भी एक ज्वाला उठा लें, जिससे मैं शेष ज्वालाओंको बुझाकर शान्त का 13/392 इस प्रकार कहकर उस व्याधने जलती हुई आगपर जलसे भरा एक घड़ा तुरंत फेंका। फिर तो वह आग एकाएक शान्त हो गयी सारा दृश्य पूर्ववत् हो गया। अब व्याधने तपस्वी संयमनसे कहा – ‘ भगवन्!

आपने जो जलती आग ले रखी है, वह उसी अग्निपुञ्जसे प्राप्त हुई है। उसे मुझे दे दें, जिसके सहारे मैं अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न कर सकूँ।’ व्याधके इस प्रकार कहनेपर जब ब्राह्मणने लोहेके जालकी ओर दृष्टि डाली तो वहाँ अग्नि थी ही नहीं। वह तो पुञ्जीभूत अग्निके समाप्त होते ही शान्त हो गयी थी। तब कठोर व्रतका पालन करनेवाले संयमनकी आँखें मुँद गयीं और वे मौन होकर बैठ गये। ऐसी स्थितिमें व्याधने उनसे कहा- ‘विप्रवर! अभी थोड़ी देर पहले आग धधक रही थीं, ज्वालाओंका और- छोर नहीं था; किंतु मूलके शान्त होते ही सब- की – सब ज्वालाएँ शान्त हो गर्यो। ठीक यही बात इस संसारकी भी है।’ Varaha Purana PDF Book Free