Vishnu Purana PDF in Hindi – संपूर्ण विष्णू पुराण हिंदी

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पृथक् पृथक् सम्पूर्ण धर्म, देवर्षि और राजर्षियोंके चरित्र, श्रीव्यासजीकृत वैदिक शाखाओंकी यथावत् रचना तथा ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्यादि आश्रमोंके धर्म—ये सब, हे महामुनि शक्तिनन्दन ! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ।। ६-१० ॥ हे ग्रहान् ! आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादोन्मुख कीजिये जिससे हे महामुने! मैं आपकी कृपासे यह सब जान सकूँ” ॥ ११ ॥

Vishnu Purana PDF Book

Name of Book Vishnu Purana
PDF Size 39.7 MB
No of Pages 535
Language  Hindi
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About Book – Vishnu Purana PDF Book

श्रीपराशरजी बोले – “हे धर्मश मैत्रेय ! मेरे पिताजीके पिता श्रीवसिष्ठजीने जिसका वर्णन किया था, – उस पूर्व प्रसङ्गका तुमने मुझे अच्छा स्मरण कराया- [ इसके लिये तुम धन्यवादके पात्र हो ] ॥ १२ ॥ हे मैत्रेय ! जब मैंने सुना कि पिताजीको विश्वामित्रकी प्रेरणासे राक्षसने खा लिया है, तो मुझको बड़ा भारी क्रोध हुआ ।। १३ ।। तब राक्षसोंका ध्वंस करनेके लिये मैंने यज्ञ करना आरम्भ किया। उस यज्ञमें सैकड़ों राक्षस जलकर भस्म हो गये || १४ |

इस प्रकार उन राक्षसोंको सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामह वसिष्ठजी मुझसे बोले- ॥ १५ ॥ ” हे वत्स ! अत्यन्त क्रोध करना ठीक नहीं, अब इसे शान्त करो। राक्षसोंका कुछ भी अपराध नहीं है, तुम्हारे पिताके लिये तो ऐसा ही होना था ।। १६ ।। क्रोध तो मूर्खोको ही हुआ करता है, विचारवानोंको भन कैसे हो सकता है ? भैया! भला कौन किसीको मारता है ? पुरुष स्वयं ही अपने कियेका फल भोगता है ।। १७ ॥

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हे प्रियवर ! यह क्रोध तो मनुष्य के अत्यन्त कष्टसे सचित यश और तपका भी प्रबल नाशक है ।। १८ ।। हे तात! इस लोक और परलोक दोनोंको बिगाड़नेवाले इस क्रोधका महर्षिगण सर्वदा त्याग करते हैं, इसलिये तू इसके वशीभूत मत हो ॥ १९ ॥ अब ‘बेचारे निरपराध १९ अब इन बेचार राक्षसोंको दग्ध करनेसे कोई लाभ नहीं अपने इस पुलस्त्यजी बोले- तुमने, चित्तमें बड़ा वैरभाव रहनेपर भी अपने बड़े-बूढ़े वसिएजीके कहने से क्षमा स्वीकार की है, इसलिये तुम सम्पूर्ण शास्त्रों के होगे ।। २४ ।।

हे महाभाग ! अत्यन्त क्रोधित होनेपर भी तुमने मेरी सन्तानका सर्वथा मूलोच्छेद नहीं किया; अतः मैं तुम्हें एक और उत्तम वर देता हूँ ॥ २५ ॥ हे वत्स ! तुम पुराणसंहिताके बक्ता होंगे और देवताओंके यथार्थ न्यरूपको जानोगे ॥ २६ ॥ तथा मेरे प्रसादसे तुम्हारी निर्मल बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति (भोग और मोक्ष) के उत्पन्न करनेवाले कमने निःसन्देह हो जायगी ॥ २७ ॥ [पुलस्त्यजीके इस तरह कहनेके अनन्तर | फिर मेरे पितामह भगवान् वसिष्ठजी बोले “पुलस्त्यजीने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य होगा” ।। २८ ।।

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हे मैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकालमें बुद्धिमान् वसिष्ठजी और पुलस्त्यजीने जो कुछ कहा था, वह सन्य तुम्हारे प्रसे मुझे स्मरण हो आया है ।। २९ । अतः मैत्रेय ! तुम्हारे पूछनेसे में उस सम्पूर्ण पुराणसंहिताको तुम्हे सुनाता हूँ: तुम उसे भली प्रकार ध्यान देकर सुनो ॥ ३० ॥ यह जगत् विष्णुसे उत्पन्न हुआ है, उन्होंमें स्थित है, ये ही इसकी स्थिति और लयके तां हैं तथा यह जगत् भी वे ही है ॥ ३२ ॥

मूल कारण है, उन परमात्मा विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है ४ जो विश्वके अधिष्ठान हैं, अतिसूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं. सर्व प्राणियों में स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी है, जो परमार्थतः (वास्तवमें) अति निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थरूपसे प्रतीत होते हैं, तथा जो [कालत्वरूपसे] जगत्को उत्पत्ति और स्थितिमें समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान् विष्णुको प्रणाम करके तुम्हें वह सारा प्रसंग क्रमशः सुनाता हूँ जो दक्ष आदि मुनि- श्रेष्ठोंके पूछनेपर पितामह भगवान् ब्रह्माजीने उनसे कहा था ॥ ५८ ॥

तह प्रसंग दक्ष आदि मुनियोंने नर्मदा तटपर राजा पुरुकुत्सको सुनाया था तथा पुरुकुत्सने सारस्वतसे और सारस्वतने मुझसे कहा था ॥ ९ ॥ जो पर (प्रकृति) से भी पर, परमश्रेष्ठ, अन्तरात्मामें स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विशेषण आदिसे रहित है जिसमें जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश इन छः विकारोंका सर्वथा अभाव है; जिसको सर्वदा केवल ‘है’ इतना ही कह सकते हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध हैं कि ‘वे सर्वत्र है और उनमें समस्त विश्व बसा हुआ है । Vishnu Purana PDF Book

इसलिये ही विद्वान् जिसको वासुदेव कहते हैं वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेय गुणोंके अभावके कारण निर्मल परब्रह्म है ।। १०- – १३ ॥ अहो इन सब व्यक्त (कार्य) और अव्यक्त (कारण) जगत्के रूपसे, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकारण कालके रूपसे स्थित है ॥ १४ ॥ हे द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त (प्रकृति) और व्यक्त (महदादि) उसके अन्य रूप हैं तथा [सबको क्षोभित करनेवाला होनेसे] काल उसका परमरूप है ।। १५ ॥

इस प्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल- इन नारोंसे परे है तथा जिसे पण्डितजन ही देख पाते हैं वही मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते हैं ।। १९ ॥ वह क्षयरहित है, उसका कोई अन्य आधार भी नहीं है तथा अप्रमेय आजर, निश्चल शब्द-स्पर्शादिशून्य और रूपादिहित है ॥ २० ॥ यह त्रिगुणमय ॐ कारण है तथा स्वयं अनादि एवं उत्पत्ति और है। यह सम्पूर्ण प्रपक्ष प्रलयकालसे लेकर सृष्टिके आदितक इसी व्याप्त था ।। २१ ।।

हे विद्वन् ! भूमिके मर्मको जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थको लक्ष्य करके प्रधानके प्रतिपादक इस (निम्नलिखित) को कहा करते हैं ॥ २२ ॥ ‘उस समय (प्रलयकालमें) न दिन था, न रात्रि थी, न आकाश था, न पृथिवी थीं, न अन्धकार था, न प्रकाश या और न इनके अतिरिक्त कुछ और ही था। बस, ओत्रादि इन्द्रियों और बुद्धि आदिका अविषय एक प्रधान ब्रह्म और पुरुष ही था’ ।। २३ । Vishnu Purana PDF Book

हे चित्र ! विष्णुके परम ( उपाधिरनित) स्वरूपसे प्रधान और पुरुष ये दो रूप हुए, उसी (विष्णु) के जिस अन्य रूपके द्वारा वे दोनों [सृष्टि और प्रलयकालगें] संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तरका ही नाम ‘काल’ हैं ॥ २४ ॥ बीते हुए कालमें सह व्यक्त प्रपछ प्रकृतिमें लीन था. इसलिये प्रपत्रके इस प्रलयको प्राकृत प्रलय कहते है ।। २५ ॥ है जि ! कालरूप भगवान् अनादि हैं, इनका अन्त नहीं है इसलिये संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकने [ वे प्रवाहरूपसे निरतर होते रहते हैं ? ॥ २६ 

मैत्रेय ! प्रलयकालमें प्रधान (प्रकृति) के साम्यावस्था में स्थित हो जानेपर और पुरुषके प्रकृतिसे पृथक् स्थित हो जानेपर विष्णुभगवान्का कारूप इन दोनोंको धारण करनेके लिये ] प्रवृत्त होता है ॥ २७ ॥ तदनन्तर [ सर्गकाल उपस्थित होनेपर ] उन परवा परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वोरमा परमेश्वरने अपनी इच्छासे विकारी प्रधान और अविकारी हे द्विजश्रेष्ठ ! सगँकाल प्राप्त होनेपर गुणोंको साम्यावस्थारूप प्रधान जय विष्णुके क्षेत्रज्ञरूपसे अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति हुई ॥ ३३ ॥

उत्पन्न हुए मनको प्रधानता आवृत किया महत्तव सात्विक, राजस और तापस, भेदसे तीन प्रकारका है। किन्तु जिस प्रकार बीज छिलकेसे समभावसे ढंका रहता है वैसे ही यह विविध महतव प्रधान-तलासेस और व्याप्त है। फिट त्रिविध महत्तत्त्वसे ही वैकारिक (सात्त्विक) तैजस (राजन्स) और तामास भूतादि तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ । हे महामुने! वह त्रिगुणात्मक होनेसे भूत और इन्द्रिय आदिका कारण है और प्रधानसे जैसे महत्तत्व व्याय है, वैसे ही महत्तत्त्वसे वह (अहंकार) व्याप्त हैं ।। ३४३६ ॥ Vishnu Purana PDF Book

भूतादि नामक सामस अहंकारने विकृत होकर शब्द तन्मात्रा और उससे शब्द गुणवाले आकाशको रचना की ॥ ३७ ॥ उस भूतादि तापस आईकारने शब्द तन्मात्रारूप आकाशको व्याप्त किया। फिर [ शब्द – तन्मात्रारूप] आकाशने विकृत होकर स्पर्श तन्मात्राको रचा ॥ ३८ ॥ उस ( स्पर्श – तन्मात्रा) से बलवान् वायु हुआ. उसका गुण स्पर्श माना गया है। शब्द- तन्मात्रारूप आकाशने स्पर्श तमात्रावाले वायुको आवृत किया हैं ।। ३९ ॥

फिर [ स्पर्श तन्मात्रारूप] वायुने विकृत होकर रूप-रामात्राको सृष्टि की। (रूप – तन्मात्रायुक्त ) वायुसे तेज उत्पन्न हुआ है, उसका गुण रूप कहा जाता है ॥ ४० ॥ स्पर्श – तन्मानारूप वायुने रूप तन्मात्राखाले तेजको आवृत किया। फिर [ रूप तन्मात्रामय ] तेजाने भी विकृत होकर रखतमात्राकी रचना की ।। ४१ ॥ उस (रस- तन्मात्रारूप ) से रस – गुणवाला जल हुआ। रस- तमाशामाले जलको रूप-तन्मात्रामय तेजने आवृत किया ॥ ४२ ॥

ररा- तन्मात्रारूप] जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध- तन्मात्राकी सृष्टि की, उससे पृथिवो उत्पन्न हुई है जिसका गुण गन्ध नाना जाता है ॥ ४३ ॥ उन-उन आकाशादि भूतोंने तन्मात्रा है अर्थात केवल उनके गुण शब्दादि ही है। इसलिये वे अकारसे उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। इस प्रकार इन्द्रियोंके ८. अधिद्वाता दस देवता और ग्यारहवाँ मान वैकारिक (सात्विक ) हैं ।। ४७ ।। हे द्विज ! त्वक्, चक्षु, नासिका, जिल्हा और ओये पाँचों बुद्धिकी सहायतासे शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ॥ ४८ ॥ Vishnu Purana PDF Book Download

हे मैत्रेय ! पासु (गुदा), उपस्थ (लिङ्ग), हस्त, पाद और वाक्- ये पाँच कर्मेन्द्रियों है। इनके कर्म [मल-मूत्रका ] ल्याग, शिल्प, गति और वक्ता बतलाये जाते है ॥ ४९ ॥ आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी – ये पांचों भूत उत्तरोत्तर ( क्रमशः) शब्द-स्पर्श आदि पाँच गुणोंसे युक्त हैं ॥ ५० ॥ ये पांचों भूत शान्त घोर और मूढ हैं [अर्थात्, सुख, दुःख और मोहयुक्त हैं] अतः ये विशेष कहलाते ॥ ५६ ॥

इन भूतोंमें पृथक्-पृथक् नाना शक्तियाँ हैं। अतः वे परस्पर पूर्णतया मिले बिना संसारकी रचना नहीं कर सके ।। ५२ । इसलिये एक- दूसरेके आश्रय रहनेवाले और एक ही संघातकी उत्पत्तिके लक्ष्यवाले महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त प्रकृतिके इन सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधान- तत्त्व अनुग्रहसे अण्डकी उत्पत्ति की ॥ ५३-५४ ॥

हे महाबुद्धे ! जलके बुलबुलेके समान क्रमशः भूतोंसे बढ़ा हुआ वह गोलाकार और जलपर स्थित महान् अण्ड ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) रूप विष्णुका अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ ॥ ५५ ॥ उसमें वे अव्यक्त स्वरूप जगत्पत्ति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूपसे स्वयं ही विराजमान हुए ॥ ५६ ॥ उन महात्मा हिरण्यगर्भका सुमेरु उल्य (गर्भको ढंकनेवाली झिल्ली), अन्य पर्वत, जरायु (गर्भाशय) तथा समुद्र गर्भाशयस्थ रस या ॥ ५७ ॥ Vishnu Purana PDF Book Download

हे विप्र ! उस अण्डमें हो पर्वत और द्वीपालिके सहित समुद्र यह गणके सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग प्रकट हुए ॥ ५८ ॥ वह अण्ड पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा दस-दस गुण अधिक जल, अत्रि, वायु, आकाश और भूनादि अर्थात् तामस अहंकारसे आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है ।। ५९ ।। और इन सबके सहित वह महत्त्व भी अव्यक्त प्रधानसे आवृत है। इस प्रकार जैसे ब्रह्मा होकर रजोगुणका आश्रय लेकर इस संसारकी रचनामें २ प्रवृत्त होते हैं ॥ ६१ ॥

तथा रचना हो जानेपर सत्वगुण – विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान् 8 /535 कल्पान्तपर्यंन्त युग-युगमें पालन करते हैं ॥ ६२ ॥ मैत्रेय ! फिर कल्पका अन्त होनेपर अति दारुण तमः- प्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतोंका भक्षण कर लेते हैं ॥ ६३ ॥ इस प्रकार समस्त भूतोंका भक्षण कर संसारको जलमय करके वे परमेश्वर शेष शय्यापर शयन करते हैं ॥ ६४ ॥ जगनेपर ब्रह्मारूप होकर वे फिर जगत्की रचना करते हैं ॥ ६५ ॥

वह एक हो भगवान् जनार्दन जगत्की सृष्टि, स्थिति और संहारके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन तीन संज्ञाओंको धारण करते हैं ॥ ६६ ॥ वे प्रभु विष्णु स्रष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं और अन्तमें स्वयं ही संहारक (शिव) तथा स्वयं ही उपसंहत (लीन) होते हैं ॥ ६७ ॥ पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि जितना जगत् है सब पुरुषरूप है। Vishnu Purana PDF Book Download

और क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतोंके अन्तरात्मा है, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियों में स्थित सर्गादिक भी उन्होंके उपकारक हैं। [ अर्थात् जिस प्रकार ऋत्विजोंद्वारा किया हुआ हवन यजमानका उपकारक होता है, उसी तरह परमात्माके रचे हुए समस्त प्राणियोंद्वारा होनेवाली सृष्टि भी उन्हीं की उपकारक है ] ॥ ६८-६९ ॥ वे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, वरदायक और वरेण्य (प्रार्थनाके योग्य) भगवान् विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले है, वे ही रचे जाते हैं, वे ही पालते हैं, वे ही पालित होते हैं।

श्रीपराशरजी बोले- हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव – पदार्थोंकी शक्तियाँ अचिन्त्त्व- ज्ञानको विषय होती हैं; [ उनमें कोई युक्ति काम नहीं देती] अतः अमिकी शक्ति उष्णताके समान ब्रह्मकी भी सर्गादि- रचनारूप शक्तियाँ स्वाभाविक हैं २ अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक-पितामह भगवान् ब्रह्माजी सृष्टिकी रचनामे प्रवृत्त होते हैं सो सुनो। हे विद्वन्! वे सदा उपचारले हो ‘उत्पन्न हुए कहलाते हैं । ३-४ ॥ उनके अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी कही जाती है। उस (सौ वर्ष) का नाम पर है, उसका आधा परार्द्ध कहलाता है ॥ ५ ॥

हे अनघ ! मैंने जो तुमसे विष्णुभगवान्‌का कालस्वरूप कहा था उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा और भी जो पृथिवी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव हैं उनकी आयुका परिमाण किया जाता है ॥ ६-७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! पन्द्रह निमेषको काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठाकी एक कला तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता है ॥ ८ ॥ तीस मुहूर्तका मनुष्यका एक दिन-रात कहा जाता है और उतने ही दिन-रातका दो पक्षयुक्त एक मास होता है ॥ ९ ॥ Vishnu Purana PDF Book Download

छ महीनोंका एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है। दक्षिणायन देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण दिन ॥ १० ॥ देवताओंके बारह हजार वर्षकि सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते हैं। उनका अलग-अलग परिमाण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥ ११ ॥ पुरातत्त्वके जाननेवाले सतयुग आदिका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते है ॥ १२ ॥

प्रत्येक युगके पूर्व उतने ही सौ वर्षकी सन्ध्या बतायी जाती हैं और युगके पीछे उतने ही परिमाणवाले सन्ध्यांश होते हैं [ अर्थात् सतयुग आदिके पूर्व क्रमशः चार, तीन, दो और एक सौ दिव्य वर्षकी सन्ध्याएँ और इतने हो कालमें उनका संहार किया जाता है ॥ १७ ॥ हे सत्तम ! इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक कालका एक मन्वन्तर होता है। यही मनु और देवता आदिका काल है ॥ १८ ॥ इस प्रकार दिव्य वर्ष गणनासे एक मन्वन्तरमें आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते हैं ॥ १९ ॥

तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष गणना के अनुसार मन्वन्तरका परिमाण पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक नहीं । २०-२१ ॥ इस कालका चौदह गुना ब्रह्माका दिन होता है, इसके अनन्तर नैमित्तिक नामवाला माहा प्रलय होता है॥ २२ ॥ उस समय भूलोक, भुवलॉक और स्वल्लोंक तीनों जलने लगते हैं और महकमें रहनेवाले सिद्धगण अति सन्तप्त होकर जनलोकको चले जाते हैं ॥ २३ ॥ Vishnu Purana PDF Book Free

इस प्रकार त्रिलोकीके जलमय हो जानेपर जनलोकवासी योगियोंद्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकीके पाससे तृप्त होकर दिनके बराबर परिमाणवाली उस रात्रिमें शेषशय्यापर शयन करते हैं और उसके बीत जानेपर पुनः संसारकी सृष्टि करते है ।। २४-२५ ।। इसी प्रकार (पक्ष, मास आदि) गणनासे ब्रह्माका एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते हैं। ब्रह्माके सौ वर्ष ही उस महात्मा (ब्रह्मा) की परमायु हैं ॥ २६ ॥

हे अन ! उन ब्रह्माजीका एक परार्द्ध बीत चुका है। उसके अन्तमें पाद्य नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था ॥ २७ ॥ हे द्विज ! इस समय वर्तमान उनके दूसरे परार्द्धका यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है॥ २८ ॥ जिनकी कुक्षि जलमें भीगी हुई है वे महातराह जिस समय अपने वेदमय शरीरको कँपाते हुए पृथिवीको लेकर बाहर निकले उस समय उनकी रोमावलीमें स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे ॥ २९ ॥ उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले चराचर भगवानकी जनलोकों रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरेने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर इस प्रकार स्तुति की ॥ ३० ॥ Vishnu Purana PDF Book Free