Bhavan Bhaskar PDF Book By Rajendra Kumar Dhawan – संपूर्ण भवन भास्कर हिंदी

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हिन्दू-संस्कृति बहुत विलक्षण है। इसके सभी सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य मनुष्यमात्रा कल्याण करना है। मनुष्यमात्रका सुगमता एवं शीघ्रता कल्याण कैसे हो इसका जितना गम्भीर विचार हिन्दू-संस्कृतिमें किया गया है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं एवं व्यक्तियोंके सम्पर्क में आता है और जो-जो क्रियाएँ करता है, उन सबको हमारे क्रान्तदर्शी ऋषि- मुनियोंने बड़े वैज्ञानिक ढंगले सुनियोजित, मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है।

Bhavan Bhaskar PDF Book

Name of Book Bhavan Bhaskar
PDF Size 35.3 MB
No of Pages 80
Language  Hindi
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About Book – Bhavan Bhaskar PDF Book

और उन सबका पर्यवसान परम वैयकी प्रतिमें किया है इतना ही नहीं, मनुष्य अपने निवासके लिये भवन निर्माण करता है तो उसको भी वास्तुशास्त्र के द्वारा मर्यादित किया है। वास्तुशास्त्रका उद्देश्य भी मनुष्यको कल्याण मार्गमें लगाना है- वास्तुशास्त्रं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया’ (विश्वकर्मप्रकाश शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार चलनेसे अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरणमें ही कल्याणकी इच्छा जाग्रत होती है।

‘वास्तु’ शब्दका अर्थ है-निवास करना (यस निवासे)। जिस भूमिपर मनुष्य निवास करते हैं, उसे ‘वास्तु’ कहा जाता है। कुछ वर्षोंसे लोगों का ध्यान वास्तुविद्याको ओर गया है। प्राचीनकालमें विद्यार्थी गुरुकुलमें रहकर चौंसठ कलाओं (विद्याओं) की शिक्षा प्राप्त करते थे, जिनमें वास्तुविद्या भी सम्मिलित थी हमारे प्राचीन ग्रन्थोंमें ऐसी न जाने कितनी विद्याएँ छिपी पड़ी है, जिनकी तरफ अभी लोगोंका ध्यान नहीं गया है। सनत्कुमारजीके पूछनेपर नारदजीने कहा था-

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ऋग्वेदं भगवोऽस्येमि यजुर्वेदः सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्य राशि देवं निधि वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्य नक्षत्रविद्याःसर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ॥ ‘भगवन् मुझे वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद याद है। इनके सिवाय इतिहास-पुराणरूप पाँचव वेद, वेद (व्याकरण), श्राद्धकल्प, गणित उत्पातज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति देवविद्या ब्राविद्या, भूतविद्या, शत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या और देवजनविद्या हे भगवन् !

यह सब मैं जानता हूँ।” भारतको अनेक विलक्षण विद्याएँ आज हो चुकी है और उनको जाननेवालोंका भी अभाव हो गया है। किसी समय यह देश भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियोंसे बहुत उन्नत था, पर आज यह दयनीय स्थितिमें है। सर्वेक्षयान्ता निचया पतनान्ताः समुच्छ्रयाः संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ ४४१९ २ २०५ ‘समस्त संग्रहाँका अन्त विनारा है, लौकिक उन्नतियोंका अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है।’

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लोगों को ऐसी धारणा है कि पहले कभी पाषाणयुग था आदमी जंगलोंमें रहता था और धीरे-धीरे विकास होते-होते अब मनुष्य वैज्ञानिक उन्नतिके इस युगमें आ गया है। परन्तु वास्तवमें वैज्ञानिक उन्नति पहले कई बार अपने शिखरपर पहुंचकर नष्ट हो चुकी है। पाषाणयुग पहले कई बार आकर जा चुका है और आगे भी पुनः आयेगा। यह सृष्टिचक्र है। इसमें की तरह सत्य, त्रेता, द्वापर और कलिये चारों युग दिनरात्रिवत् बार-बार आते हैं और चले जाते हैं। समय पाकर विद्याएँ लुप्त और प्रकट होती रहती हैं। गौतामें भी भगवान् कहा है-

मूल कारण प्रारब्ध है। प्रारब्ध अनुकूल हो तो कफ-पित्त बात, ग्रह आदि भी अनुकूल हो जाते हैं और प्रारब्ध प्रतिकूल हो तो वे सब भी प्रतिकूल हो जाते हैं। यही बात वास्तुके विषय में भी समझनी चाहिये। देखने में भी ऐसा आता है कि जिसे वास्तुशास्त्रका ज्ञान ही नहीं है, उनका मकान भी स्वतः वास्तुशास्त्र के अनुसार बन जाता है इसका अर्थ यह नहीं है कि सब कुछ प्रारब्धपर छोड़कर बैठ जायें।

हमारा कर्तव्य शास्त्रकी आज्ञाका पालन करना है और प्रारब्ध के अनुसार जो परिस्थिति मिले, उसमें सन्तुष्ट रहना है। प्रारब्धका उपयोग केवल अपनी चिन्ता मिटाने में है। ‘करने’ का क्षेत्र अलग है और ‘होने’ का क्षेत्र अलग है। हम व्यापार आदि ‘करते हैं और उसमें लाभ या हानि ‘होते’ हैं। ‘करना’ हमारे हाथमें (वशमें) है, ‘होना’ हमारे हाथमें नहीं हैं। इसलिये हमें ‘करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहना है गीतामें भगवान् कहा है- Bhavan Bhaskar PDF Book

वास्तुपुरुषका प्रादुर्भाव और वास्तुशास्त्रके उपदेष्टा भगवान् शङ्करने जिस समय अन्धकासुरका वध किया, उस समय उनके ललाटसे पृथ्वीपर पसीने की बूँदें गिरी। उनसे एक विकराल मुखवाला प्राणी उत्पन्न हुआ उस प्राणीने पृथ्वीपर गिरे हुए अन्धकोंके रक्तका धान कर लिया। फिर भी जब वह तुम नहीं हुआ, तब वह भगवान् शङ्करके सम्मुख घोर तपस्या करने लगा।

उसको तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने उससे कहा कि तुम्हारी जो कामना हो, वह वर माँग लो उसने वर माँगा कि मैं तीनों लोकों को ग्रसनेमें समर्थ होना चाहता हूँ। वर प्राप्त करनेके बाद वह अपने विशाल शरोरसे तीनों लोकोंको अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वीपर आ गिरा। तब भयभीत देवताओंने उसको अधोमुख करके वहीं स्तम्भित कर दिया जिस देवताने उसको जहाँ दबा रखा था, वह देवता उसके उसी अंगपर निवास करने लगा। सभी देवताओंके निवास करनेके कारण वह ‘वास्तु’ नामसे प्रसिद्ध हुआ।

जब मनुष्य अपने निवासके लिये ईंट, पत्थर आदिसे गृहका निर्माण करता है, तब उस गृहमें वास्तुशास्त्र के नियम लागू हो जाते हैं। वास्तुशास्त्र के नियम ईंट पत्थर आदिकी दीवार के भीतर ही लागू होते हैं। तारबंदी आदिके भीतर, जिसमेंसे वायु आर-पार होती हो, वास्तुशास्त्र के नियम लागू नहीं होते। वास्तुशास्त्रमें दिशाओंका बहुत महत्त्व है। सूर्यके उत्तरायण या दक्षिणायनमें जानेपर उत्तर और दक्षिण तो नही रहते हैं, पर पूर्व और पश्चिममें अन्तर पड़ जाता है। Bhavan Bhaskar PDF Book

इसलिये ठीक दिशाका ज्ञान करनेके लिये दिग्दर्शकयन्त्र (कम्पास) की सहायता लेनी चाहिये। इस यन्त्रमें तीन सौ साठ डिग्री रहती है, जिसमें (आठों दिशाओंमें) प्रत्येक दिशाको पैतालीस डिग्री रहती है। अतः दिशाका ठीक ज्ञान करनेके लिये डिग्रीको देखना बहुत आवश्यक गोरखपुर में रहने तथा व्यापार करनेसे कितना लाभ होगा ? साधक (नारायण) की वर्ग संख्या ५ है और साध्य (गोरखपुर)-

की वर्ग संख्या २ है। साधक साध्य धन (लाभ) साध्य साधक ८ ऋण (खर्च) पहले साधककी वर्ग संख्या और फिर साध्यक वर्ग संख्या रखनेसे ५२ संख्या हुई। इसमें ८ का भाग देनेसे ४ बच्चा यह साधकका धन हुआ। इससे विपरीत वर्ग संख्या २५ को ८ का भाग देनेसे बचा यह साधकका ‘ऋण’ हुआ। इससे सिद्ध हुआ कि साधक ‘नारायण’ को साध्य ‘गोरखपुर में निवास करने तथा व्यापार करनेसे लाभ तथा १ खर्च होता रहेगा।

(यदि ८ का भाग देनेसे शून्य बचे तो उसे ८ ही मानना चाहिये।) (२) अपनी राशिसे जिस गाँवकी राशि दूसरी, पाँचवाँ नवीं, दसवीं और ग्यारहवीं हो, वह गाँव निवासके लिये शुभ होता है यदि अपनी राशिसे गाँवकी राशि एक अथवा सातवीं हो तो शत्रुता, तीसरी अथवा छठीं हो तो हानि, चौथी, आठवीं अथवा बारहवीं हो तो रोग होता है। (३) ईशानमें चरकी, आग्रेयमें विदारी, नैर्ऋत्यमें पूतना और वायव्यमें पापराक्षसी निवास करती है इसलिये गाँवके कोनोंमें निवास करनेसे दोष लगता है। Bhavan Bhaskar PDF Book

परन्तु अन्त्य, अपच आदि जातियोंक लिये कोनोंमें निवास करना शुभ एवं उन्नतिकारक है। तीसरा अध्याय भूमि-प्राप्तिके लिये अनुष्ठान किसी व्यक्तिको प्रयत्न करनेपर भी निवासके लिये भूमि अथवा मकान न मिल रहा हो, उसे भगवान् वराहकी उपासना करनी चाहिये। भगवान् वराहको उपासना करनेसे, उनके मन्त्रका जप करनेसे, उनकी स्तुति प्रार्थना करनेसे अवश्य ही निवासके योग्य भूमि या मकान मिल जाता है।

स्कन्दपुराणके वैष्णवखण्डमें आया है कि भूमि प्राप्त करने के इच्छुक मनुष्यको सदा ही इस मन्त्रका जप करना चाहिये– ॐ नमः श्रीवराहाय धरण्युद्धारणाय स्वाहा। ध्यान- भगवान् वराहके अंगोंको कान्ति शुद्ध स्फटिक गिरिके समान श्रेत है खिले हुए लाल कमलदलोंक समान उनके सुन्दर नेत्र हैं। उनका मुख वराहके समान है, पर स्वरूप सौम्य है उनकी चार भुजाएँ हैं उनके मस्तकपर किरीट शोभा पाता है और वक्षस्थलपर श्रीसका चिह्न है।

उनके चार हाथोंमें चक्र, शत्रु, अभय मुद्रा और कमल सुशोभित है उनको बायाँ पर सागराम्बरा पृथ्वीदेवी विराजमान हैं भगवान् वराह लाल, पीले पहने तथा लाल रंगके ही आभूषणोंसे विभूषित हैं। श्रीकच्छपके पृष्ठके मध्य भागमें शेषनागकी मूर्ति है। उसके ऊपर ‘सहस्रदल कमलका आसन है और उसपर भगवान् वराह विराजमान हैं। उपर्युक्त मन्त्र सङ्कर्षण ऋषि, वाराह देवता, पंति छन्द और श्री बीज है। इसके चार लाख जप करे और भी व मधुमिश्रित खीरका हवन करे। Bhavan Bhaskar PDF Book Download

(१) जिस भूमिपर हरे-भरे वृक्ष, पौधे, पास आदि हों और खेतीकी उपज भी अच्छी होती हो, वह भूमि जीवित है असर चूहेके बिल, बांबी आदिसे युक्त, बड़-खाबड़ काँटेदार पौधों एवं वृक्षोंवाली भूमि मृत है मृत भूमि त्याज्य है। उनार भूमि धनका नारा करनेवाली है। चूहेके बिलोंवाली भूमि भी धनका नाश करनेवाली है। बाँबी (दीमक) – वाली भूमि पुत्रका नाश करनेवाली है। फटी हुई भूमि मरण देनेवाली है शल्यों (हट्टियों) से युक्त भूमि क्लेश देनेवाली है। ऊँची-नीची भूमि शत्रु बढ़ानेवाली है।

गड्ढोंवाली भूमि विनाश करनेवाली है। टीलोंवाली भूमि कुलमें विपत्ति लानेवाली है। टेढ़ी भूमि बन्धुओंका नाश करनेवाली है। दुर्गन्धयुक्त भूमि पुत्रका नाश करनेवाली है। (२) भूखण्ड के मध्य में एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा गड्ढा खोदें। फिर खोदी हुई सारी मिट्टी पुनः उसी ग करें यदि गढ़वा भरनेसे मिट्टी शेष बच जाय तो वह श्रेष्ठ भूमि है। उस भूमिमें निवास करनेसे धन-सम्पत्तिको वृद्धि होती है। यदि मिट्टी के बराबर निकलती है तो वह मध्यम भूमि है।

यदि मिट्टी गड्ढेसे कम निकलती है तो वह अधम भूमि है। उस भूमिमें निवास करनेसे सुख-सौभाग्य एवं धन-सम्पत्तिकी हानि होती है। (३) उपर्युक्त प्रकारसे गड्ढा खोदकर उसमें पानी भर दें। पानी भरकर उत्तर दिशाकी ओर सौ कदम चलें लौटनेपर देखें। केनीसे अनामिकारक एक हाथ (अभि) का परिमाण होता है। बीस अंगुलका एक हाथ होता है। भवनभास्कर यदि गड्ढे में पानी उतना ही रहे तो वह भूमि है। यदि पानी कुछ कम (आधा) रहे तो वह मध्यम भूमि है। यदि पानी बहुत कम रह जाय तो वह अधम भूमि है। Bhavan Bhaskar PDF Book Download

(४) उपर्युक्त प्रकारसे गड्ढा खोदकर उसमें सायंकाल पानी भर दें प्रातःकाल देखें यदि गड्ढे में जल दीखे तो उस स्थान में निवास करनेसे वृद्धि होगी। यदि गड्ढे में कीचड़ दीखे तो उस स्थानमें निवास करनेसे मध्यम फल होगा। यदि गडेमें दरार दीखे तो उस स्थानमें निवास करनेसे हानि होगी। (५) भूखण्ड हल जुतवाकर सर्वबीज (ब्रीहि, शाठी, मूंग, गेहूं, सरसों, तिल, जौ बो दें यदि वे बीज तीन रातमें अंकुरित हो तो भूमि उत्तम है, पाँच रातमें अंकुरित हो तो भूमि मध्यम है और सात रातमें अंकुरित हो तो भूमि अधम है।

(4) एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे सब ओरसे अच्छी तरह लीप-पोतकर स्वच्छ कर दें। फिर एक कच्चे पुरमें पी भरकर उसमें चारों दिशाओंकी ओर मुख करके चार बत्तियाँ जला दें और उसी गड्ढे में रख दें। यदि पूर्व दिशाको बत्ती अधिक समयतक जलती रहे तो उसे ब्राह्मण के लिये शुभ मानना चाहिये। इसी प्रकार क्रमशः उत्तर पश्चिम और दक्षिणको बत्तियोंको क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके लिये शुभ समझना चाहिये। यदि वह वास्तुदीपक चारों दिशाओंमें जलता रहे तो वहाँकी भूमि सभी वर्णोंके लिये शुभ समझनी चाहिये।

(७) जिस भूमिमें गड्ढा खोदनेपर अथवा हल जोतनेपर भस्म, अंगार, हड्डियों, भूसी, केश, कोयला आदि निकलें, यह भूमि अशुभ होनेसे त्याज्य है। यदि भूमिसे लकड़ी निकले तो अग्रिका भय, हड्डियाँ निकले तो कुलका नाश, सर्प निकले तो दक्षिण व नैत्यके मध्य नांची और उत्तर व ईशानके मध्य कैथी भूमि ‘अर्गल वास्तु’ कहलाती है यह पापका नाश करनेवाली है। पूर्व व ईशानके मध्य ऊँची और पश्चिम व नैर्ऋयके मध्य नीची भूमि श्मशान वास्तु’ कहलाती है। Bhavan Bhaskar PDF Book Download

यह कुलका नाश करनेवाली है। आग्रेयमें नीची और नैर्ऋत्य ईशान तथा वायव्यमें ऊँची भूमि ‘शोक वास्तु’ कहलाती है। यह मृत्युकारक है। ईशान, आग्रेय व पश्चिममें ऊँची और नैर्ऋत्यमें नीची भूमि ‘धमुख वास्तु’ कहलाती है यह दरिद्र करनेवाली है। नैर्ऋत्य, आग्रेय व ईशानमें ऊँची तथा पूर्व व वायव्यमें नोची भूमि ब्रह्मन्न वास्तु’ कहलाती है। यह निवास करनेयोग्य नहीं है।

आग्रेयमें ऊँची और नैऋत्य ईशान तथा वायव्यमें नीची भूमि ‘स्थावर वास्तु’ कहलाती है। यह शुभ है। नैऋत्यमें ऊँची और आग्रेय, वायव्य व ईशानमें नीची भूमि ‘स्थण्डिल वास्तु’ कहलाती है। यह शुभ है। ईशानमें ऊँची और वायव्य आग्रेय व नैर्ऋऋत्यमें नीची भूमि ‘शाहुल वास्तु’ कहलाती है। यह अशुभ है। (५) दक्षिण, पश्चिम, नैर्ऋत्य और वायव्यको और ऊँची भूमि ‘गजपृष्ठ भूमि’ कहलाती है। यह धन, आयु और वंशको वृद्धि करनेवाली है। मध्यमें ऊँची तथा चारों ओर नीची भूमि कूर्मपृष्ठ भूमि’

कहलाती है यह उत्साह, धन-धान्य तथा सुख देनेवाली है। पूर्व आग्रेय तथा ईशानमें ऊँची और पश्चिममें नीची भूमि ‘दैत्यपृष्ठ भूमि कहलाती है, यह धन, पुत्र, पशु आदिकी हानि करनेवाली तथा प्रेत उपद्रव करनेवाली है। पूर्व-पश्चिमकी और लम्बी तथा उत्तर दक्षिणमें ऊँची भूमि “भागपृष्ठ भूमि कहलाती है यह उच्चाटन मृत्युभय, स्त्री- पुत्रादिकी हानि, वृद्धि मानहानि तथा धनहानि करनेवाली है। Bhavan Bhaskar PDF Book Free

सातवाँ अध्याय वास्तुचक्र (१) वास्तुशास्त्र में विधान आया है कि सूत्र स्थापन करनेमें, भूमि शोधन करनेमें द्वार बनाने में शिलान्यास करनेमें और गृहप्रवेश के समय इन पाँच कमोंमें वास्तुपूजन करना चाहिये। (२) गाँव, नगर और राजगृहके निर्माणमें ६४ (चौंसठ) पदवाले वास्तुपुरुषका पूजन करना चाहिये। गृहनिर्माण ८९ (इक्यासी) पदवाले वास्तुपुरुषका पूजन करना चाहिये। देवमन्दिरके निर्माण १०० (सी) पदवाले वास्तुपुरुषका पूजन करना चाहिये।

जीर्णोद्धार में ४९ (उन्चास) पदवाले और कूप वापी, तड़ाग तथा बनके निर्माणमें १९६ (एक सौ छियानवे) पदवाले वास्तुपुरुषका पूजन करना चाहिये। (३) मत्स्यपुराणमें आया है कि सुवर्णको सलाईद्वारा रेखा खींचकर इक्यासी कोष्ठ बनाये पिष्टकसे चुपड़े हुए सूतसे दस रेखाएँ पूर्वसे पश्चिम तथा दस रेखाएँ उत्तरसे दक्षिणकी ओर खाँचे। फिर उन कोष्ठोंमें स्थित पैतालीस देवताओंको पूजा करे। उनमें बत्तीसको बाहरसे तथा तेरहकी भीतरसे पूजा करे।

१) गृहारम्भ और गृहप्रवेशके समय कुलदेवता, गणेश, क्षेत्रपाल, वास्तुदेवता और दिक्पतिकी विधिवत् पूजा करे। आचार्य, द्विज और शिल्पोको विधिवत् सन्तुष्ट करे। शिल्पीको वस्त्र और अलंकार दे ऐसा करनेसे घरमें सदा सुख रहता है। जो मनुष्य सावधान होकर गृहारम्भ या गृहप्रवेशके समय वास्तुपूजा करता है, वह आरोग्य, पुत्र, धन और धान्य प्राप्त करके सुखी होता है परन्तु जो मनुष्य वास्तुपूजा न करके नये परमें प्रवेश करता है, वह नाना प्रकारके रोग, क्लेश और संकट प्राप्त करता है। Bhavan Bhaskar PDF Book Free

(२) मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृक्षिक, मकर और कुम्भ- इन राशियोंके सूर्यमें गृहारम्भ करना चाहिये। मिथुन, कन्या, धनु और मीन- इन राशियोंके सूर्यमें गृह निर्माण आरम्भ नहीं करना चाहिये। मेष राशिके सूर्यमें गृहारम्भ करनेसे शुभ फलकी प्राप्ति होती है।