Yoga Rasayanam PDF Book in Hindi – संपूर्ण योगरसायनम् हिंदी

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योगनिद्रां समासाद्य यः शेते शेषविष्टरे । तस्य पादांबुजं नित्यं देवस्य प्रणमाम्यहम् ॥१॥ अर्थ – योगरूपी निद्राको ग्रहण करके जो शेष- नागकी शय्या पर शयन करते हैं ऐसे जो दिव्यस्वरूप विष्णु भगवान् हैं तिनके चरणकमलोंके प्रति मैं सर्व- दाकाल नमस्कार करता हुं इति ॥ १ ॥ योगिराजं शिवं चापि नत्वा गुरुपदांबुजम् । योगाचार्यानशेषेण योगं वक्ष्यामि सिद्धये ॥२॥

Yoga Rasayanam PDF Book

Name of Book Yoga Rasayanam
PDF Size 4.9 MB
No of Pages 100
Language  Hindi
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About Book – Yoga Rasayanam PDF Book

अर्थ- सर्व योगियोंके मुख्य अधिपति जो शिवजी हैं तिनको नमस्कार करके और अपने गुरुके चरणक- मलोंको नमस्कार करके तथा योगविद्याके आचार्य जो मत्स्येन्द्रनाथ गोरक्षनाथ पतंजलि याज्ञवल्क्य आदिक हैं तिन सर्वको नमस्कार करके साधकपुरुषोंको मोक्ष- यो. र. १ पदकी सिद्धिके लिये योगविद्याका निरूपण करताहुँ इति ॥ २ ॥ प्राणापानसमायोगो योगवित्तात्मनोस्तथा । यत्र जीवेशयोर्योगस्तं योगं नित्यमभ्यसेत् ॥ ३॥

अर्थ – जिसकरके प्राण और अपानकी एकता होवे चित्त और आत्माकी एकता होवेहै तथा जीव और ईश्वरकी एकता होवे है ऐसा जो योग है तिसका मुमुक्षुपुरुषोंको सर्वदाकाल अभ्यास करना योग्य है है इति ॥ ३ ॥‘क्रियाजालान्यनेकानि प्रभवंति न मुक्तये । योगमेवाभ्यसेन्नित्यं बुधो मोक्षाय केवलम् ॥१४॥ अर्थ – अनेकप्रकारकी जप तप तीर्थ दानादिक जो स्थूल क्रियायोंके समूह हैं सो मुक्ति के लिये साक्षात् समर्थ नहि होसके हैं अर्थात् तिनसे शीघ्र मुक्तिकी प्राप्ति नहि होवे यातें बुद्धिमान् पुरुषको संसारबंध- नकी मुक्तिके लिये केवल योगकाहि अभ्यास करना चाहिये इति ॥ ४ ॥

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तत्वज्ञानेन कैवल्यं ज्ञानं योगमयं तथा । विना योगेन यज्ज्ञानं नैव तन्मोक्षकारणम् ॥५॥ अर्थ – तवज्ञान से कैवल्यमोक्ष होवे है और सो ज्ञान जो पुरुष हैं सो अष्टांगयोगसाधनेका परिश्रम नहि करसकते हैं यातें तिनके लियेहि केवल शास्त्रका आलंबन है इति ॥ ८ ॥ तस्माच्छास्त्रं विचार्यादी पश्चाद्योगं समभ्यसेत् । यथा पूर्वर्षयञ्च कुर्वसिष्ठाथाः शुकादयः ॥ ९ ॥ अर्थ-यातें विवेकी पुरुषको प्रथम शास्त्रोंका विचारकरके पश्चात् योगका अभ्यास करना चहिये जैसे कि वसिष्ठादिक और शुकदेवादिक पहलेके ऋषिमुनि करते भये हैं इति ॥ ९ ॥ शैववैष्णवशाक्तेषु मतेषु निखिलेष्वपि ।

सर्वत्र विहितो योगस्ततस्तं साधयेत्सुधीः १० अर्थ – किंच शैव वैष्णव शाक्त आदिक सर्वमतोंमें सर्वत्र योगका विधान किया है यातें बुद्धिमान् पुरु- पको तिस योगकी अवश्य साधना करनी योग्य है। आलोज्य योगशास्त्राणि स्वस्यानुभवतस्तथा । सारभूतं प्रवक्ष्यामि विधानं योगसाधने ॥ ११ ॥ अर्थ – पातंजलदर्शन शिवसंहिता याज्ञवल्क्य – संहिता गोरक्षशतक हठयोगप्रदीपिका आदि अनेक योगशास्त्रोंको मथन करके तथा अपने अनुभवके।

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अनुसार योगसाधन करनेकी जो विधि है तिसको संक्षेपसे सारभूत निरूपण करता हूं इति ॥ ११ ॥ तत्र योगविधौ ज्ञेयं द्वाराणां तु चतुष्टयम् । विनेशानुग्रहातोर्दुर्लभं यस्य कस्यचित् १२ अर्थ-तहां प्रथम योगसाधनमें चार द्वार जानने चहिये जो कि ईश्वरकी अनुग्रहके विना हरएक जी- वको प्राप्त होने अतिकठिन हैं इति ।। १२ ।। प्रथमं विषयत्यागो द्वितीयमनुकूलता । तृतीयं गुरुसंयोगचतुर्थं चेशचिंतनम् ॥ १३ ॥

अर्थ- प्रथम तो स्त्रीआदिकविषयोंका परित्याग होना और दुसरे सर्वप्रकारसे योगसाधनकी साम- ग्रीकी अनुकूलता होनी तथा तीसरे योगविद्याके जाननेवाले गुरुका समागम होना और चौथा ईश्व- रका आराधन करना इति ॥ १३ ॥ द्वाराण्येतानि योगस्य चत्वारि मुनयो विदुः । नैतैर्विना भवेत्सिद्धिर्जन्मकोटिशतैरपि ॥ १४ ॥ अर्थ – यह चार योगके मुनिलोकोंने मुख्य द्वार कथन किये हैं क्योंकि इनकेविना कोटिजन्मोंमेंभी योगकी सिद्धि नहि होसके है इति ॥ १४ ॥

अहिंसा सर्वभूतानां सर्वथा द्रोहवर्जनम् । सत्यं स्याज्जीवजातस्य हितं वाक्यं प्रियं च यत् ॥ अर्थ – तिनमें मन वाणी शरीरकरके सर्वप्रकारसे सर्वभूतप्राणियों को जो दुःख नहि देनाहै सो अहिंसा कहिये है तथा जो सर्वजीवोंका हितकारक और प्रिय वचन बोलना है सो सत्य कहिये है इति ॥ १९ ॥ अस्तेयं परद्रव्याणामनादानं विनाज्ञया । सर्वथा मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यमुदीरितम् ॥ २० ॥ Yoga Rasayanam PDF Book

अर्थ – पराई वस्तुवोंका मालिककी आज्ञाकेविना जो ग्रहण नहि करना है सो अस्तेय कहिये है तथा सर्व- प्रकारसे जो मैथुनका परित्याग करना है सो ब्रह्मचर्य ऋषिलोकोंनें कथन किया है इति ॥ २० ॥ योगोपकरणादन्यपदार्थानामसंग्रहः । अपरिग्रहणं तद्धि कथितं मुनिपुंगवैः ॥ २१ ॥ अर्थ – तथा योगसाधनकी उपयोगी सामग्रीके सिवाय विशेष पदार्थोंका जो संग्रह नहि करना है सो अपरिग्रह श्रेष्ठ सुनिलोकोंने कथन किया है इति ॥ २१ ॥ अहिंसया भवेन्मैत्री सत्येनामोधवाक्यता । अस्तेयाद्रनलाभश्च बलं स्याद्ब्रह्मचर्यतः ॥ २२ ॥

अपरिग्रहणादात्मविचारो जायते ध्रुवम् । योगिनो यतचित्तस्य यमानां परिपाकतः ॥ २३॥ अर्थ – अब यमोंके भिन्न भिन्न फल कथन करते हैं अहिंसा पालन करनेसे सर्वभूत प्राणियोंसे मित्रता होवे है और सत्यभाषण करनेसे अमोघवाणी होवे है तथा अस्तेयसे नानाप्रकारके मनोवांछित पदार्थोंकी प्राप्ति होवे है और ब्रह्मचर्यसे मानसिकशक्तिकी वृद्धि होवे है तथा अपरिग्रहसे अध्यात्मविचारकी उत्पत्ति होवे है इस प्रकारसे चित्तके जीतनेवाले योगीको यमकी परिपक्वावस्था में उक्त फलोंकी प्राप्ति होवे है इति ।। २२ ।। २३ ।।

अर्थ नियमः । शौचं तोषस्तपश्चैव जपश्वेश्वरचिंतनम् । पंचधा नियमश्चापि विज्ञेयः साधकोत्तमैः॥२४॥ अर्थ – शौच संतोष तप जप और ईश्वरका चिंतन इस भेदसे नियमभी साधकपुरुषोंको पांचप्रकारकाहि जानना चाहिये इति ॥ २४ ॥ शौचं शुद्धिर्हि देहस्य मनसश्च निगद्यते । यथालाभेन तुष्टिस्तु संतोषः परिकीर्तितः अर्थ – तिनमें शरीर और मनकी जो शुद्धि है सो समझकर ग्लानिसे वैराग्य होवे है और संतोषसे शांतिजन्य परमसुखकी प्राप्ति होवे है तथा तप करनेसे अणिमादिक सिद्धियोंकी प्राप्ति होवे हैअर्थ Yoga Rasayanam PDF Book

और जप कर- नेसे इष्टदेवका समागम होवे है तथा ईश्वरके आरा- धनसे समाधिकी सिद्धि होवे है इस प्रकारसे निय- मोंकी परिपक्वावस्था में योगीको उक्त फलोंकी प्राप्ति होवे है इति ॥ २८ ॥ २९ ॥ यमैश्च नियमैश्चापि योग्यः स्याद्योगसाधने । अनादरेण चैतेषां न कचित्सिद्धिभाग्भवेत् ३० अर्थ – उक्त रीतिसे यम और नियमोंकरके युक्त भयाहि योगी पुरुष योगसाधन करनेमें योग्य होवे है और यमनियमोंके अनादर करनेसे कदाचित्भी सिद्धिको नहि प्राप्त होसके है इति ॥ ३० ॥ तस्मादतिप्रयत्नेन सेवनीया निरंतरम् ।

यमाश्च नियमाश्चापि योगेप्सुभिरखंडिता: ३१ अर्थ – यातें योगसिद्धिकी इच्छावाले साधकपुरु- को अतिप्रयत्नसे यम और नियमोंका सर्वदाकाल अखंडित सेवन करना योग्य है इति ॥ ३१ ॥ अथासनम्। आसनानि बहून्याहुर्मुनयो जीवभेदतः । तेषां चतुष्कमादाय सारभूतमिहोच्यते ॥ ३२ ॥ अर्थ – नानाप्रकारके जीवोंकी बैठकके अनुसार पूर्वके मुनिलोकोंने बहुतप्रकारके आसन कथन किये हैं सो तिनमेंसे सारभूत चार आसन लेकरके यहां कथन करते हैं इति ॥ ३२ ॥

सिद्धासनं भवेदार्थं द्वितीयं पद्मसंज्ञितम् । तृतीयं खस्तिकं प्रोक्तं वीराख्यं च चतुर्थकम्  अर्थ – तिनमें पहला सिद्धासन दूसरा पद्मासन तीसरा स्वस्तिकासन और चौथा वीरासन कहिये है इति ॥ ३३ ॥ सिद्धं प्राणाधिहे स्यात् ध्यानकाले तु पद्मकम् स्वस्तिकं जपवेलायां वीरं स्यात्सुखसंस्थितौ ३४ अर्थ — तिनमें सिद्धासन तो प्राणके चडानेके का में करना चाहिये और पद्मासन ध्यानकालमें करना चाहिये तथा स्वस्तिकासन जप करनेके बखत करना चाहिये और वीरासन साधारण सर्वदा सुखसे बैठनेके कालमें करना चहिये इति ॥ ३४ ॥ Yoga Rasayanam PDF Book

गुदावृषणयोर्मध्ये वामपाणि नियोजयेत् । दक्षपादाग्रभागं च वामजंघांतरे न्यसेत् ॥ ३५ ॥ हस्तयुग्मं न्यसेदके सिद्धासनमितीरितम् । कुंडलीबोधकं शीघ्रं समाधेश्वोपकारकम् ॥ ३६ ॥ और अंडकोश मध्यभाग सीवनी में वामपादकी एडीको लगाय कर दहने पादका अग्र- भाग वामजंघा के अंदर स्थापन करे तथा दोनों हाथ संपुटकरके गोद में स्थापन करे यह सिद्धासन कुंड- लीके शीघ्र जगानेवाला और समाधि चडानेमें परम उपयोगी पूर्वके योगीलोकोंने कथन किया है इति ।। ३५ ।। ३६ ।।

वामोरूपरि दक्षांत्रं विन्यसेत्तस्य चोपरि । दक्षोरौ वामपदं च संस्थाप्याञ्जलिसंपुटम् ३७ स्वांके निधाय नासाग्रं पश्येन्निश्चलमानसः । पद्मासनं भवेदेतद्योगसिद्धिकरं परम् ॥ अर्थ- वामऊरुके ऊपर दहना पाद रख तिसके ऊपर दहने ऊरुपर वामपादको स्थापन करे और अपने अंकमें दोनों हाथ संपुटकरके धरकर नासा के अग्रभागमें निश्चल मनसे दृष्टि जमावे सो यह शीघ्रही योगकी सिद्धि करनेवाला पद्मासन कहिये है इति ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ दक्षजंघांतरे वामं वामजंघांतरे तथा ।

विन्यसेच्चरणं दक्षं स्वस्तिकं चैतदुच्यते ॥ ३९ ॥ अर्थ – दहनी जंघाके बीच में वामपादको और प्यारा तैत्तिरीयोपनिषद्की ब्रह्मानन्दवली के आरम्ममे जो यह मन्त्र आया है कि सत्यं ज्ञानमनन्तं मा यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽनुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता अर्थात् अझ सत्य, ज्ञानस्वरूप जड प्रकृतिमे अपना अपने ही जैसे परतन्त्र दूसरे किसी जीवमे रूप होना नहीं बन सकता। Yoga Rasayanam PDF Book Download

इसलिये एकमात्र परमा परमेश्वर ही ‘आनन्दमय’ शब्दका याच्यार्थ है और वही सम्पूर्ण जगत्का कारण है; दूसरा कोई नहीं। सम्बन्ध-तैतिरीय पुतिमें यहाँ जानन्दमयका प्रकरण आया है, यह ‘विज्ञानमय’ गन्द जीवात्माको ग्रहण किया गया है, किन्तु वृहदारण्यक (४।४।२२ ) मे ‘विज्ञानमय’ को हृदयकासमें सपन करनेवाला अन्तरात्मा बताया गया है। अतः निवासा होती है कि वहाँ ‘विज्ञानमय’ शब्द जीवात्मा- कापाचक हैअर्थ

अथवा माका इसी प्रकार छान्दोग्य (१६६) में जो सूर्यमण्डला हिरण्मय over जाया है, यहाँ भी यह शक हो सकती है कि इस मन्त्र के अधिदेवताका वर्णन हुआ है या का अतः इसका निर्णय करनेके लिये जागेका प्रकरण आरम्भ किया जाता है— जंघा बीचमें दहने पादको स्थापन करे इसका नाम स्वस्तिकासन कहिये है इति ॥ ३९ ॥ दक्षिणोरुतले पादं वामं विन्यस्य दक्षिणम् ।

वामोरूपरि संयोज्यं वीरासनमितीरितम् ४० अर्थ – दहने ऊरुके नीचे वामपादको रखकरके दहना पाद वामऊरुके ऊपर स्थापना करे इसको योगीलोकोंने वीरासन कथन किया है इति ॥ ४० ॥ ज्ञेयं सर्वासनेष्वेतन्मुख्यं पीठचतुष्टयम् । साधकैरनिशं सेव्यं योगार्थिभिरतंद्रितैः ॥ ४१ ॥ अर्थ- सर्व आसनों में यह चार आसन मुख्य जानने चाहिये योगसिद्धिके अभिलाषी साधकपुरु- पोंको आलससे रहित होकरके निरंतर इनका सेवन करना योग्य है इति ॥ ४१ ॥ स्थिरं स्यादासनं यस्य स योगं कर्तुमर्हति । Yoga Rasayanam PDF Book Download

शरीराचलताभावे नहि चित्तं स्थिरं भवेत् ४२ अर्थ – जिस पुरुषका आसन स्थिर होवे है सोई योगका साधन करसकता है क्योंकि शरीरकी अचल- ताके विना मन कवी स्थिर नहि होसकता है इति ४२ आसनं त्वेकतानेन कृतं दुःखावहं भवेत् । शनैरभ्यासतस्तस्माद्वर्द्धयेद्वासने स्थितिम् ४३ ॥ अर्थ – आसनको एकदम अधिक देरतक करने से शरीरमें परिश्रम होता है यातें धीरेधीरे अभ्यास करके आसनको बढाना चहिये इति ॥ ४३ ॥ यदा महरपर्यंत स्थिरं स्यादेकमासनम् ।

तदा योग्यं विजानीयादासनं योगसाधने ४४ अर्थ – जिस कालमें एक प्रहरपर्यंत एकहि आसन स्थिर होजावे तब आसनको योगकी साधना करनेमें योग्य समझना चाहिये ॥ ४४ ॥ आसने स्थिरतां याते मनः स्थैर्यं भवेद्ध्रुवम् । प्राणस्यापि गतिर्नूनं शिथिला संप्रजायते ॥ ४५ अर्थ – अब आसनका फल कहते हैं जब आस- नकी स्थिरता होवे है तो निश्चय करके मनभी स्थिर होजावेहै और प्राणवायुकी गतिभी निश्चयकरके मंद होजाती है इति ॥ ४५ ॥

इन्द्रियाणां च चापल्यं शांतिमायाति निश्चितम् ततो योगस्य सिद्धिः स्यात् तस्मादासनमभ्यसेत् अर्थ – तथा आसनकी स्थिरता होनेसे इंद्रियोंकी जो स्वाभाविक चंचलता है सोभी शांत होजाती है। और इसप्रकारसे मन प्राण इंद्रियोंकी स्थिरता होनेसे शीघ्रहि योगकी सिद्धि होवे यातें योगसाधनाकी समाधान-उपनिषदोमे वर्णित परब्रह्म परमेश्वर इस सम्पूर्ण जगत्का कर्ता होते हुए भी अकर्ता है (गीता ४ । १३) । अतः उसका कर्तापन साधारण जीयोकी भाँति नहीं है; सर्वथा अलौकिक है। Yoga Rasayanam PDF Book Download

वह सर्वशक्तिमान् एवं सर्वरूप होनेमे समर्थ होकर भी सबसे सर्वया अतीत और असङ्ग है। सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी निर्गुण है। तथा समस्त विशेषगोसे युक्त होकर भी निर्विशेष है। इस परास शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबहकिया (६८) इस परमेश्वरकी शान और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है।” + एको देवः सर्वभूतेषु गूडः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी नेता केवल निर्गुण ॥ 

यह एक देव ही सब प्राणियोमे छिपा हुआ, सर्वव्यापी और समस्त प्राणियोंका अन्तर्यामी परमात्मा है वही सपके कर्मोंका अभिहाता सम्पूर्ण भूतोका निवास-खान सबका साक्षी, चैतनत्वरूप, सर्वा विशुद्ध और गुणातीत है ।” + एष सर्वेश्वर एष सर्वेश एवोऽन्ये योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययी हि भूतानाम्।। इच्छावाले साधकपुरुषोंको प्रथम आसनका अवश्य अभ्यास करना योग्य है इति ॥ ४६ ॥

भ्रमणं तीर्थयात्रासु नैव कार्यं हि योगिना । स्थित्वा स्थाने सदैकस्मिन् योगारंभं समाचरेत् अर्थ – योगाभ्यासी पुरुषको तीर्थोंकी यात्रामें भ्रमण नहि करना चहिये किंतु योगसिद्धिपर्यंत सर्व- दाकाल एकस्थानमेंही निवास करके योगाभ्यासका साधन करना योग्य है ॥ ४७ ॥ अथ प्राणायामः । प्राणायाममथेदानीं कथयामि समासतः । Yoga Rasayanam PDF Book Free

यस्य ज्ञानाद्भवेद्योगी योगसिद्धेस्तु भाजनम् अर्थ — अब प्राणायामकी विधि संक्षेपसे कथन करते हैं जिसके जाननेसे योगी पुरुष योगसिद्धियोंका पात्र होवे है इति ॥ ४८ ॥ प्राणायामस्य भेदास्तु कथिता मुनिपुंगवैः । बहवो योगतंत्रेषु साधकानां हिताय वै ॥ ४९ ॥ अर्थ-पूर्व के मुनिवरोंने योगके ग्रंथों में प्राणायामके बहुत प्रकारके भेद साधक लोकोंके हितके लिये कथन किये हैं इति ॥ ४९ ॥ द्वावेव तेषु सर्वेषु प्राणायामी वरौ मतौ । चंद्रभेदनसंज्ञश्च भस्त्रिकासंज्ञकस्तथा ॥ ५० ॥

यथाशक्ति पेटमें कुंभक करके पीछे युक्तिसे धीरेधीरे वामनासापुटसे रेचन करदेवे इति ॥ ५३ ॥ प्रणवं वाथ गायत्री मनसा कुंभकावधि । जपेदेकांतगः सोयं चंद्रभेदनमुच्यते ॥ ५४ ॥ अर्थ – और प्राण के कुंभकपर्यंत मनसे ओंकारका अथवा गायत्रीमंत्रका एकांतमें बैठकरके जप करे इसको चंद्रभेदन प्राणायाम कहते हैं इति ।। ५४ ॥ वामनासापुटात्प्राणं रेचयेत्तेन वै पिवेत् । पीतं विरेचयेत्तूर्णं दक्षनासापुटेन तम् ॥ ५५ ॥ ततस्तेनैव पीत्वाऽथ वामरंध्रेण रेचयेत् ।

वामेनैव ततः पीत्वा दक्षरंध्रेण रेचयेत् ॥ ५६ ॥ अर्थ – अब भस्त्रिका प्राणायामकी रीति निरूपण करते हैं पहले वामनासापुटसे प्राणको रेचन करके उसीसे शीघ्रही पीजावे और फिर तिसकों शीघ्रही दहने नासापुट से रेचन करदेवे तथा फिर उसी पुटसे पीकर के वामपुटसे रेचन करदेवे और फिर वामपुटसे पीकरके दहनेपुटसे रेचन करदेवे इति ।। ५५ ।। ५६ ।। एवं पुनः पुनः कुर्याद्रेचपूरी द्रुतं द्रुतम् । भस्त्रावल्लाहकारस्य क्षणमात्रं विचक्षणः ॥५७॥ Yoga Rasayanam PDF Book Free

अर्थ – इसप्रकार जैसे लुहारकी धोकनी चलती है चेत्यत्रि कहो; गौणः ईक्षणका प्रयोग गोगवृत्तिसे ( प्रकृति के लिये ) हुआ है यह ठीक नहीं है; आत्मशब्दाद क्योकि बहो ‘आत्म’शब्दक प्रयोग है। व्याख्या- ऊपर उद्घृत की हुई ऐतरेयकी श्रुतिमे ईक्षणका कर्ता आत्माको बनाया गया है। अतः गौण-वृत्ति भी उसका सम्बन्ध प्रकृतिके साथ नहीं हो सकता । इसलिये प्रकृतिको जगत्‌का कारण मानना वेदके अनुकूल नहीं है।

सम्बन्ध- ‘आत्म’ शब्दका प्रयोग तो मन, इन्द्रिय और शरीरके लिये भी आता तिनें ‘जारमा’ को गीणरूपसे प्रकृतिका वाचक मानकर उसे जगत्का कारण मान लिया जाय तो क्या आपति है ? इसपर कहते हैं- तैसेही चतुरपुरुष शीघ्र शीघ्र दोनो नासापुटोंसे वारी वारी थोडीदेर रेचक पूरक करे इति ।। ५३ ।। ततो विरेचयेद्वायुं निखिलं वामरंध्रतः । किंचित्कालं वही रुद्धा वामेनैव पिबेत्ततः 

अर्थ-पीछे संपूर्ण पेटके प्राणवायुको वामना- सापुटसे रेचन करदेवे और किंचित् काल तिसको बाहिर रोककर फिर उसी वामनासापुटसेही पूरक करलेवे इति ॥ ५८ ॥ कुंभयेदुदरे पीतं प्राणं धृत्या यथाबलम् । शनैर्विरेचयेत्पश्चाद् दक्षरंध्रेण बुद्धिमान् ॥५९॥ अर्थ – तिस पूरक किये हुये प्राणको धीरजसे अप- नी शक्तिअनुसार कुंभक करें और पीछे धीरेधीरे दहने नासापुट से रेचन करदेवे इति ॥ ५९ ॥ पूर्ववस्त्रां कृत्वा दक्षरंध्रेण रेचयेत् । किंचित्कालं यही रुद्धा ततस्तेनैव पूरयेत् ॥३०॥ कुंभयित्वा यथाशक्ति प्राणं वामेन रेचयेत् । वामदक्षक्रमेणैवं प्राणायामं समभ्यसेत् ॥ ६१ ॥ Yoga Rasayanam PDF Book Free