Mahabharata PDF Book in Hindi – संपूर्ण महाभारत हिंदी

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देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके सखा नर-रन अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती ‘सरस्वती और उसके वक्ता भगवान् व्यासको नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर विजय प्राप्त करानेवाले महाभारत ग्रन्थका पाठ करना चाहिये। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

Mahabharata PDF Book

Name of Book Mahabharata
PDF Size 271.6 MB
No of Pages 1665
Language  Hindi
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About Book – Mahabharata PDF Book

ॐ नमः पितामहाय । ॐ नमः प्रजापतिभ्यः । ॥ॐ नमः कृष्णद्वैपायनाय। ॐ नमः सर्वविघ्नविनायकेभ्यः । लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवा सूतवंशके श्रेष्ठ पौराणिक थे। एक बार जब नैमिषारण्य क्षेत्रमें कुलपति शौनक बारह वर्षका सत्संग सत्र कर रहे थे, तब उपश्रवा बड़ी विनयके साथ सुखसे बैठे हुए व्रतनिष्ठ ब्रह्मर्षियोंके पास आये। जब नैमिषारण्यवासी तपस्वी ऋषियोंने देखा कि उपनवा हमारे आश्रममें आ गये हैं, तब उनसे चित्र-विचित्र कथा सुननेके लिये उन लोगोंने उन्हें घेर लिया।

उग्रश्रवाने हाथ जोड़कर सबको प्रणाम किया और सत्कार पाकर उनकी तपस्याके सम्बन्धमें कुशल प्रश्न किये सब ऋषि-मुनि अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये और उनके आज्ञानुसार वे भी अपने आसनपर बैठ गये। जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम कर चुके, तब किसी ऋषिने कथाका प्रसङ्ग प्रस्तुत करनेके लिये उनसे यह प्रश्न किया- ‘सूतनन्दन ! आप कहाँसे आ रहे हैं? आपने अबतकका समय कहाँ व्यतीत किया है ?”

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उग्रश्रवाने कहा, ‘मैं परीक्षित् नन्दन राजर्षि जनमेजयके सर्पसत्रमें गया हुआ था। वहाँ श्रीवैशम्पायनजीके मुखसे मैने ‘भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायनके द्वारा निर्मित महाभारत ग्रन्थकी अनेकों पवित्र और विचित्र कथाएँ सुनीं। इसके बाद बहुत-से तीर्थों और आश्रमों में घूमकर समन्तपञ्चक क्षेत्रमें आया, जहाँ हैं, जो सूक्ष्म अर्थ और न्यायसे भरा हुआ है, जो पद-पदपर अ वेदार्थसे विभूषित और आख्यानोंमें श्रेष्ठ है, जिसमें ल भरतवंशका सम्पूर्ण इतिहास है।

जो सर्वथा शास्त्रसम्मत है और प जिसे श्रीकृष्णद्वैपायनकी आज्ञासे वैशम्पायनजीने राजा स जनमेजयको सुनाया है, भगवान् व्यासकी वही पुण्यमयी ह पापनाशिनी और वेदमयी संहिता हमलोग सुनना चाहते हैं। उपवाजीने कहा- भगवान् श्रीकृष्ण ही सबके आदि हैं। दि वे अन्तर्यामी, सर्वेश्वर, समस्त यज्ञोंके भोक्ता, सबके द्वारा प्रशंसित, परम सत्य ॐकारस्वरूप ब्रह्म है। वे ही सनातन व्यक्त एवं अव्यक्तस्वरूप हैं। वे असत् भी हैं और सत् भी हैं, प्र ये सत्-असत् दोनों हैं और दोनोंसे परे हैं।

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ये ही विराट् विश्व भी ए । उन्होंने ही स्थूल और सूक्ष्म दोनोंकी सृष्टि की है। वे ही इ सबके जीवनदाता, सर्वश्रेष्ठ और अविनाशी हैं। वे ही मङ्गलकारी, मङ्गलस्वरूप, सर्वव्यापक, सबके वाञ्छनीय, निष्पाप और परम पवित्र हैं। उन्हीं चराचरगुरु नयनमनोहारी हृषीकेशको नमस्कार करके सर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा भगवान् व्यासकी पवित्र रचना महाभारतका वर्णन करता हूँ।

पृथ्वीमें अनेकों प्रतिभाशाली विद्वानोंने इस इतिहासका पहले वर्णन किया है, अब करते हैं और आगे भी करेंगे। यह परमज्ञानस्वरूप प्रन्थ तीनों लोकोंमें प्रतिष्ठित है। कोई संक्षेपसे, तो कोई विस्तारसे इसे धारण करते हैं। इसकी शब्दावली शुभ है। इसमें अनेकों छन्द हैं और देवता तथा मनुष्योंकी मर्यादाका इसमें स्पष्ट वर्णन है। जिस समय यह जगत् ज्ञान और प्रकाशसे शून्य तथा 1 अन्धकारसे परिपूर्ण था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डा उत्पन्न हुआ और वही समस्त प्रजाकी उत्पत्तिका कारण बना।

वह बड़ा ही दिव्य और ज्योतिर्मय था। श्रुति उसमें सत्य, सनातन, ज्योतिर्मय ब्रह्मका वर्णन करती है। वह ब्रह्म अलौकिक, अचिन्त्य, सर्वत्र सम, अव्यक्त, कारणस्वरूप तथा सत् और असत् दोनों हैं। उसी अण्डेसे लोकपितामह प्रजापति आनेपर उसके अनेकों लक्षण प्रकट हो जाते और बदलनेपर लुप्त हो जाते हैं। इस प्रकार यह कालचक्र, जिससे सभी पदार्थोंकी सृष्टि और संहार होता है, अनादि और अनन्त रूपसे सर्वदा चलता रहता है। Mahabharata PDF Book

संक्षेपमें देवताओंकी संख्या तैंतीस हजार तैतीस सौ तैंतीस (छत्तीस हजार तीन सौ तैंतीस) है। विवस्वान‌के बारह पुत्र हैं—दिवः पुत्र, बृहद्भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, आशावह, रवि और मनु । मनुके दो पुत्र हुए – देवप्राद् और सुप्राट् । सुभ्राट्के तीन पुत्र हुए- दशज्योति, शतज्योति और सहनज्योति ये तीनों ही प्रजावान् और विद्वान् थे ।

दशज्योतिके दस हजार, शतज्योतिके एक लाख और सहस्रज्योतिके दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए। इन्हींसे कुरु, यदु, भरत, चयाति और इक्ष्वाकु आदि राजर्षियोंके वंश चले। बहुत-से वंशों और प्राणियोंकी सृष्टिकी यही परम्परा है। भगवान् व्यास समस्त लोक, भूत-भविष्यत् वर्तमानके रहस्य, कर्म-उपासना-ज्ञानरूप वेद, अभ्यासयुक्त योग, धर्म, अर्थ और काम, सारे शास्त्र तथा लोकव्यवहारको पूर्णरूपसे जानते हैं।

उन्होंने इस प्रन्थमें व्याख्याके साथ सम्पूर्ण इतिहास और सारी श्रुतियोंका तात्पर्य कह दिया है। भगवान् व्यासने इस महान् ज्ञानका कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे वर्णन किया न है, क्योंकि विद्वान् लोग ज्ञानको भिन्न-भिन्न प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। उन्होंने तपस्या और ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे वेदोंका विभाजन करके इस ग्रन्थका निर्माण किया और सोचा कि इसे शिष्योंको किस प्रकार पढ़ाऊँ ? Mahabharata PDF Book

भगवान् व्यासका यह विचार जानकर स्वयं ब्रह्माजी उनकी प्रसन्नता और लोकहितके लिये । उनके पास आये भगवान् वेदव्यास उन्हें देखकर बहुत ही विस्मित हुए और मुनियोंके साथ उठकर उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा आसनपर बैठाया। स्वागत-सत्कारके बाद ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे भी उनके पास ही बैठ गये। तब व्यासजीने बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए कहा, ‘भगवन् ! मैंने  एक श्रेष्ठ काव्यकी रचना की है।

इसमें वैदिक और लौकिक उपवाजीने कहा- ‘ऋषियो परीक्षित्-नन्दन जनमेजय अपने भाइयोंके साथ कुरुक्षेत्र में एक लंबा यज्ञ कर रहे थे। उनके तीन भाई थे— श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन । उस यज्ञके अवसरपर वहाँ एक कुत्ता आया। जनमेजयके भाइयोंने उसे पीटा और वह रोता- चिल्लाता अपनी माँके पास गया। रोते-चिल्लाते कुत्तेसे माँने पूछा, ‘बेटा! तू क्यों रो रहा है? किसने तुझे मारा है ?’

उसने कहा, ‘माँ मुझे जनमेजयके भाइयोंने पीटा है। माँ बोली, ‘बेटा! तुमने उनका कुछ-न-कुछ अपराध किया होगा।’ कुत्तेने कहा, “माँ न मैंने हविष्यकी ओर देखा और न किसी वस्तुको चाटा ही। मैंने तो कोई अपराध नहीं किया। यह सुनकर माताको बड़ा दुःख हुआ और वह जनमेजयके यज्ञमें गयी। उसने क्रोधसे कहा- ‘मेरे पुत्रने हविष्यको देखातक नहीं, कुछ चाटा भी नहीं; और भी इसने कोई अपराध नहीं किया। फिर इसे पीटनेका कारण ?’ Mahabharata PDF Book

जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। कुतियाने कहा, ‘तुमने बिना अपराध मेरे पुत्रको मारा है, इसलिये तुमपर अचानक ही कोई महान् भय आवेगा।’ देवताओंकी कुतिया सरमाका यह शाप सुनकर जनमेजय बड़े दुःखी हुए और घबराये भी यज्ञ समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुर आये और एक योग्य पुरोहित ढूँढने लगे, जो इस अनिष्टको शान्त कर सके। एक दिन वे शिकार खेलने गये। घूमते-घूमते अपने राज्यमें ही उन्हें एक आश्रम मिला।

उस आश्रम में शुतश्रवा नामके एक ऋषि रहते थे। उनके की। उन्होंने तक्षशिलापर चढ़ाई की और उसे जीत लिया। उन्हीं दिनों उस देशमें आयोदधौम्य नामके एक ऋषि रहा करते थे। उनके तीन प्रधान शिष्य थे-आरुणि, उपमन्यु और वेद। इनमें आरुणि पाञ्चालदेशका रहनेवाला था । उसे उन्होंने एक दिन खेतकी मेड़ बाँधनेके लिये भेजा। गुरुकी आज्ञासे आरुणि खेतपर गया और प्रयत्न करते-करते हार गया तो भी उससे बाँध न बँधा।

जब वह तंग आ गया तो उसे एक उपाय सुझा। वह मेड़की जगह स्वयं लेट गया। इससे पानीका बहना बंद हो गया। कुछ समय बीतनेपर आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा कि ‘आरुणि कहाँ गया ?’ शिष्योंने कहा, ‘आपने ही तो उसे खेतकी मेड़ बाँधनेके लिये भेजा था।’ आचार्यने शिष्योंसे कहा कि ‘चलो, हमलोग भी जहाँ वह गया है वहीं चलें। वहाँ जाकर आचार्य पुकारने लगे, ‘आरुणि तुम कहाँ हो ? आओ बेटा।’ Mahabharata PDF Book Download

आचार्यकी आवाज पहचानकर आरुणि उठ खड़ा हुआ और उनके पास आकर बोला, ‘भगवन्! मैं यह हूँ। खेतसे जल बहा जा रहा था। जब उसे मैं किसी प्रकार नहीं रोक सका तो स्वयं ही मेड़के स्थानपर लेट गया। अब यकायक आपकी आवाज सुन मेड़ तोड़कर आपकी सेवामें आया हूँ। आपके चरणोंमें मेरे प्रणाम हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’

आचार्यने कहा, ‘बेटा! तुम मेड़के बाँधको उद्दलन (तोड़-ताड़) करके उठ खड़े हुए हो, इसलिये तुम्हारा नाम ‘उद्दालक’ होगा। फिर कृपादृष्टिले देखते हुए आचार्यने और भी कहा, ‘बेटा तुमने आयोदधौम्यके दूसरे शिष्यका नाम था उपमन्यु । की आचार्यने उसे यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम गौओंकी र रक्षा करो।’ आचार्यकी आज्ञासे वह गाय चराने लगा। तो दिनभर गाय चरानेके बाद सायंकाल आचार्यके आश्रमपर ।

आया और उन्हें नमस्कार किया। आचार्यने कहा, ‘बेटा नर तुम मोटे और बलवान् दीख रहे हो। खाते-पीते क्या हो ?” हाँ उसने कहा, ‘आचार्य ! मैं भिक्षा माँगकर खा-पी लेता हूँ।” आचार्यने कहा, ‘बेटा! मुझे निवेदन किये बिना भिक्षा नहीं खानी चाहिये। उसने आचार्यकी बात मान ली। अब वह कर भिक्षा माँगकर उन्हें निवेदित कर देता और आचार्य सारी तो भिक्षा लेकर रख लेते। वह फिर दिनभर गाय चराकर सध्याके समय गुरुगृहमें लौट आता और आचार्यको। Mahabharata PDF Book Download

नमस्कार करता। एक दिन आचार्यने कहा, ‘बेटा! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ। अब तुम क्या खाते-पीते हो ?” उपमन्युने कहा, ‘भगवन् ! मैं पहली भिक्षा आपको निवेदित करके फिर दूसरी माँगकर खा-पी लेता है।’ आचार्यने कहा, मैं ऐसा करना अन्तेवासी (गुरुके समीप रहनेवाले ब्रह्मचारी) के लिये अनुचित है। तुम दूसरे भिक्षार्थियोंकी जीविकामें अड़चन डालते हो और इससे तुम्हारा लोभ भी सिद्ध होता से है।

उपमन्युने आचार्यकी आज्ञा स्वीकार कर ली और वह फिर गाय चराने चला गया। सन्ध्या समय वह पुनः गुरुजीके पास आया और उनके चरणोंमें नमस्कार किया। आचार्यने। ‘बेटा उपमन्यु ! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ, दूसरी बार तुम माँगते नहीं, फिर भी तुम खूब हट्टे-कट्टे हो; अब क्या खाते-पीते हो ?’ उपमन्युने कहा, “भगवन् ! मैं इन गौओके दूधसे अपना जीवन निर्वाह कर लेता हूँ।’ आचार्यने ‘बेटा! मेरी आज्ञाके बिना गौओंका दूध पी लेना उचित नहीं है।

उसने उनकी वह आज्ञा भी स्वीकार की और फिर गौएँ चराकर शामको उनकी सेवामें उपस्थित होकर नमस्कार किया। आचार्यने पूछा- ‘बेटा! तुमने मेरी आज्ञासे भिक्षाकी तो बात ही कौन, दूध पीना भी छोड़ दिया; फिर क्या खाते-पीते हो ?’ उपमन्युने कहा, ‘भगवन्! ये बछड़े अपनी मौके थनसे दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, वही मैं पी लेता हूँ।’ आचार्यने कहा, ‘राम-राम ! ये दयालु बछड़े तुमपर कृपा करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे; इस प्रकार तो तुम इनकी जीविकामें अड़चन डालते हो ! Mahabharata PDF Book Download

तुम्हें वह भी नहीं पीना चाहिये।’ उसने आचार्यकी आज्ञा शिरोधार्य की अब खाने-पीनेके सभी दरवाजे बंद हो जानेके कारण भूखसे व्याकुल होकर उसने एक दिन आकके पत्ते खा लिये। उन खारे, तीते कड़वे, रूखे और पचनेपर तीक्ष्ण रस पैदा करनेवाले पत्तोंको खाकर वह अपनी आँखोकी ज्योति खो ठीक हो जायेंगी और तुम्हारा सब प्रकार कल्याण होगा।’ अश्विनीकुमारोंकी आज्ञाके अनुसार उपमन्यु आचार्यके पास आया और सब घटना सुनायी। आचार्यने प्रसन्न होकर कहा।

‘अश्विनीकुमारके कथनानुसार तुम्हारा कल्याण होगा और सारे वेद और सारे धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें अपने-आप ही स्फुरित हो जायेंगे।’ आयोदधौम्यका तीसरा शिष्य था वेद। आचार्यने उससे कहा, ‘बेटा! तुम कुछ दिनोंतक मेरे घर रहो। सेवा-शुश्रूषा करो, तुम्हारा कल्याण होगा।’ उसने बहुत दिनोंतक वहाँ रहकर गुरुसेवा की। आचार्य प्रतिदिन उसपर बैलकी तरह भार लाद देते और वह गर्मी- सर्दी, भूख-प्यासका दुःख सहकर उनकी सेवा करता। कभी उनकी आज्ञाके विपरीत न चलता।

बहुत दिनोंमें आचार्य प्रसन्न हुए और उन्होंने उसके कल्याण और सर्वज्ञताका वर दिया। ब्रह्मचर्याश्रमसे लौटकर वह गृहस्थाश्रममें आया। वेदके भी तीन शिष्य थे, परंतु वे उन्हें कभी किसी काम या गुरु-सेवाका आदेश नहीं करते थे। वे गुरुगृहके दुःखोंको जानते थे और शिष्योंको दुःख देना नहीं चाहते थे। एक बार राजा जनमेजय और पौष्यने आचार्य वेदको पुरोहितके रूपमें वरण किया। वेद कभी पुरोहितीके कामसे बाहर जाते तो घरकी देखरेखके लिये अपने शिष्य उतंकको नियुक्त कर जाते थे। Mahabharata PDF Book Free

एक बार आचार्य वेदने बाहरसे लौटकर अपने शिष्य उलंकके सदाचार- पालनकी बड़ी प्रशंसा सुनी। उन्होंने कहा- ‘बेटा तुमने धर्मपर दृढ रहकर मेरी बड़ी सेवा की है। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी सारी कामनाएं पूर्ण होंगी। अब जाओ।’ उर्तकने प्रार्थना की, ‘आचार्य मैं आपको कौन-सी प्रिय वस्तु भेंट हूँ ?’ आचार्यने पहले तो अस्वीकार किया, पीछे कहा कि ‘अपनी गुरुआनीसे पूछ लो ।’ जब उत्तंकने गुरुआनीसे पूछा तो उन्होंने कहा, ‘तुम राजा पौष्पके पास जाओ और उनकी रानीके कानोंके कुण्डल माँग लाओ।

मैं आजके चौथे दिन उन्हें पहनकर ब्राह्मणोंको भोजन परसना चाहती हूँ। ऐसा करनेसे उपवाजीने कहा— शौनकादि ऋषियो मेरु नामका एक पर्वत है। वह इतना चमकीला है मानो तेजकी राशि हो । उसकी सुनहली चोटियोंकी चमकके सामने सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ जाती है। वे गगनचुम्बी चोटियाँ खोसे खचित हैं। उन्हींमेंसे एकपर देवतालोग इकट्ठे होकर अमृतप्राप्तिके लिये सलाह करने लगे। उनमें भगवान् नारायण और ब्रह्माजी भी थे।

नारायणने देवताओंसे कहा, देवता और असुर मिलकर समुद्र मन्थन करें। इस मन्धनके फलस्वरूप अमृतकी प्राप्ति होगी।’ देवताओंने भगवान् नारायणके परामर्शसे मन्दराचलको उखाड़नेकी चेष्टा की। वह पर्वत मेघोंके समान ऊँची चोटियोंसे युक्त, ग्यारह हजार योजन ऊँचा और उतना ही नीचे पैसा हुआ था। जब सब देवता पूरी शक्ति लगाकर भी उसे नहीं उखाड़ सके। Mahabharata PDF Book Free

तब उन्होंने विष्णुभगवान् और ब्रह्माजीके पास जाकर प्रार्थना की- ‘भगवन्! आप दोनों हमलोगोंके कल्याणके लिये मन्दराचलको उखाड़नेका उपाय कीजिये और हमें कल्याणकारी ज्ञान दीजिये।’ देवताओंकी प्रार्थना सुनकर श्रीनारायण और ब्रह्माजीने शेषनागको मन्दराचल उखाड़नेके लिये प्रेरित किया। महाबली शेष-
आपसमें बाजी लगाकर और दूसरे दिन घोड़ा देखनेका निश्चय करके घर चली गयीं।

कटूने विनताको धोखा देनेके विचारसे अपने हजार पुत्रोंको यह आज्ञा दी कि पुत्रो ! तुमलोग शीघ्र ही काले बाल बनकर उचैःश्रवाकी पूँछ क लो, जिससे मुझे ‘दासी न बनना पड़े’। जिन सपने उसकी आज्ञा न मानी, उन्हें उसने शाप दिया कि ‘जाओ, तुमलोगोंको अनि जनमेजयके सर्प यज्ञमें जलाकर भस्म कर देगा।’ यह दैवसंयोगकी बात है कि कडूने अपने पुत्रोको ही ऐसा शाप दे दिया।

यह बात सुनकर ब्रह्माजी और समस्त देवताओंने उसका अनुमोदन किया। उन दिनों पराक्रमी और विषैले सर्प बहुत प्रबल हो गये थे। वे दूसरोंको बड़ी पीड़ा पहुँचाते थे। प्रजाकेितकी दृष्टिसे यह उचित ही हुआ। जो लोग दूसरे जीवोंका अहित करते हैं, उन्हें विधाताकी ओरसे ही प्राणान्त दण्ड मिल जाता है।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजीने भी ककी प्रशंसा की। Mahabharata PDF Book Free

कटू और विनताने आपसमें दासी बननेकी बाजी लगाकर बड़े रोष और आवेशमें वह रात बितायी। दूसरे दिन प्रातः- काल होते ही निकटसे घोड़ेको देखनेके लिये दोनों चल पड़ी। सपने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि ‘हमें माताकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। यदि उसका मनोरथ समय पूरा होनेपर महातेजस्वी गरुड़ माताकी सहायताके बिना ही अण्डा फोड़कर उससे बाहर निकल आये। उनके तेजसे दिशाएँ प्रकाशित हो गयीं।

उनकी शक्ति, गति, दीप्ति और वृद्धि विलक्षण थी। नेत्र बिजलीके समान पीले और शरीर अनिके समान तेजस्वी वे जन्मते ही आकाशमें बहुत ऊपर उड़ गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दूसरा बड़वानल ही हो। देवताओंने समझा अग्निदेव ही इस रूपमें बढ़ रहे हैं। उन्होंने विश्वरूप अझिकी शरणमें जाकर प्रणामपूर्वक कहा, ‘अत्रिदेव! आप अपना शरीर मत बताइये। क्या आप हमें भस्म कर डालना चाहते हैं ?

देखिये, देखिये, आपकी यह तेजोमयी मूर्ति हमारी ओर बढ़ती आ रही है।’ अभिने कहा, ‘देवगण ! यह मेरी मूर्ति नहीं है। ये विनतानन्दन] परमतेजस्वी पक्षिराज गरुड़ हैं। इन्हींको देखकर गरुड़जी माताजीकी आज्ञाके । अनुसार उस द्वीपके निषादोंको खाकर आगे बढ़े। गलतीसे एक ब्राह्मण उनके मुँहमे आ गया, जिससे उनका तालू जलने लगा। उसे छोड़कर वे कश्यपजीके पास गये। कश्यपनीने पूछा- ‘बेटा! तुमलोग सकुशल तो हो ? Mahabharata PDF Book Free

आवश्यकतानुसार भोजन तो मिल जाता है न ?” गरुड़जीने कहा, ‘मेरी माता सकुशल है हम भी सानन्द हैं। यथेच्छ भोजन न मिलनेसे कुछ दुःख रहता है। मैं अपनी माताको दासीपनसे छुड़ानेके लिये सपक कहनेपर अमृत लानेके लिये जा रहा हूँ। माताने मुझे निषादोंका भोजन करनेके लिये कहा था, परंतु उससे मेरा पेट नहीं भरा। अब आप कोई ऐसी खानेकी वस्तु बताइये, जिसे खाकर मैं अमृत ला सकूँ।’

कश्यपजीने कहा, ‘बेटा! यहाँसे थोड़ी दूरपर एक विश्वविख्यात सरोवर है। उसमें एक हाथी और एक कछुआ रहता है। वे दोनों पूर्वजन्मके भाई परंतु एक-दूसरेके शत्रु है। वे अब भी एक-दूसरेसे उलझे रहते हैं।