Ravana Samhita PDF Book in Hindi – संपूर्ण रावण संहिता हिंदी

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भगवान् विष्णु से खित्र शुक्राचार्य द्वारा मेघनाद को शिवयज्ञ के लिये उत्साहित करते हुए कल्पान्तर की घटित रावण की उत्पत्ति, उसकी तपश्चर्या आदि के साथ राम-रावण युद्ध आदि घटनाओं की कथा जैसा कहा गया है, वैसी ही कथा के आधार पर यहाँ रावण के जीवन वृत्तान्त को प्रस्तुत किया जा रहा है राक्षसों का वध कर जब श्रीराम ने राज्य ग्रहण किया, तब समस्त मुनिगण राम-लक्ष्मण के बल पराक्रम की प्रशंसा करने को अयोध्या में पधारे।

Ravana Samhita PDF Book

Name of Book Ravana Samhita
PDF Size  MB
No of Pages
Language  Hindi
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About Book – Ravana Samhita PDF Book

पूर्व दिशा के निवासी कौशिक, यकृत, गार्ग्य, गालव और मेधातिथि के पुत्र कण्ड्व, दक्षिण के निवासी स्वस्त्यात्रेय, नमुचि, अगस्त्य, सुमुख और विमुख, पश्चिम दिशा के आश्रयी नृषंगु, कवषी, धौम्य और सशिष्य कौषेय तथा उत्तर दिशा के आश्रयीवसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज- ये सात ऋषि आये। समस्त ऋषि रघुनाथजी के राजभवन पर पहुँच कर ड्योढ़ी पर खड़े हो गये।

वे सभी अग्नि के समान तेजस्वी थे। द्वारपालों ने इन्हें सादर बैठाया। तब वेद-वेदाङ्ग के ज्ञाता, अनेक शास्त्रों में निष्णात, मुनिश्रेष्ठ धर्मात्मा अगस्त्यजी द्वारपालों से बोले— ‘दशरथनन्दन श्रीराम से जाकर हम मुनियों के आगमन की सूचना दो। द्वारपाल तत्क्षण ही रामचन्द्र के पास गया और ऋषि श्रेष्ठ अगस्त्य आदि के पधारने का समाचार सुनाया। महर्षियों का आगमन सुनकर श्रीराम ने कहा— सबको यहाँ यथा सुख से ले आओ।

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फिर तो वे सब ऋषिश्रेष्ठ राम के पास पहुँचे। श्रीरामचन्द्र हाथ जोड़ उठ खड़े हुए सबका अर्घ्य, पाद्यार्ध्य से पूजन किया और बड़े आदर से सबको एक-एक गी दान दिया। तत्पश्चात् सबको प्रणाम करके शुद्ध भाव से उन्हें सुवर्ण के आसन पर बैठाया, जिस पर कुशासन और मृगचर्म बिछे थे। राम ने उन सबकी कुशल पछी। तब उन वेदवेत्ता महर्षियों ने कहा- हे रघुनन्दन! हे महाबाहो ! आपके कुशल से हम सभी कुशलपूर्वक है।

धर्मात्मन् लक्ष्मण आपके ऐसे हितकारी भ्राता है कि, माताओं और बन्धुओं सहित हम आपको सकुशल देख रहे हैं। यह तो देवात् ही था कि आपने महन्त, विकट, विरूपाक्ष महोदर और अकम्पन आदि राक्षसों को मारा। अन्यथा ये सब तो बड़े ही दुर्धर्ष थे। कुम्भकर्ण तो ऐसा था कि जिसके समान विशालकाय भूमण्डल में कोई था ही नहीं। दैवात् ही आपने उसे भी मार डाला। त्रिशिरा, देवान्तक, नरान्तक भी ऐसे ही थे, पर उन्हें भी आपने मार डाला। राक्षसेन्द्र रावण तो अवश्य ही था।

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उससे इन्द्र युद्ध कर आपने विजय प्राप्त की यह भी बड़ा आनन्द हुआ। परन्तु हे वीर! रावण का पराभव उतना अशक्य नहीं था जितना इन्द्रजीत का युद्ध में उसे मार डालना- यह तो बड़े हर्ष की बात है, क्योंकि वह मायायुद्ध करता था। उसका वध सुनकर हम लोग बड़े आश्चर्य में पड़ गये। परन्तु हमें तो आपके जय की इच्छा थी। उससे भी आपने विजय लाभ किया, यह हमारा सौभाग्य है। क्योंकि उसे कोई मार नहीं सकता था। आपने हमें अभय दान दिया।

भवितात्मा मुनियों के इन वचनों को सुनकर राम ने भी आश्चर्यचकित होकर हाथ जोड़ लिया और पूछा कि हे भगवन् महाबली रावण और कुम्भकर्ण को छोड़कर आप इन्द्रजीत की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? यह रावण से बढ़ कर क्यों हुआ? अतिकाय त्रिशिरा आदि भी तो ऐसे ही दुर्धर्ष थे? इन्द्रजीत का प्रभाव, बल और पराक्रम कैसा था? उसने इन्द्र को कैसे जीता था और वह कैसे प्राप्त हुआ था ?

पुत्र से वलि पिता क्यों नहीं था? युद्ध वह अपने पिता से अधिक पराक्रमी कैसे हुआ? मेरा यह निवेदन है कि मुझसे यह कथन कीजिये। में विश्रवा की उत्पत्ति प्रसङ्ग वर्णन महात्मा राघव के इस वचन को सुनकर महातेजस्वी कुम्भयोनि अगस्त्यजी ने कहा- हे राम! सुनिये, इन्द्रजीत महत् तेजस्वी और बलवान् था जिससे उसका कोई शत्रु उसे मार नहीं सकता था, वह अपने शत्रु का वध करके ही रहता था। है राघव! इस सम्बन्ध में मैं तुम्हें पहले रावण का जन्म और उसकी वर प्राप्ति का वर्णन करता हूँ। Ravana Samhita PDF Book

पूर्व सत्युग में ब्रह्मा के एक पुत्र पुलस्त्य नामक थे। जिनके तप का प्रभाव ब्रह्माजी के ही समान था। तब एक तो उनका ऐसा तप दूसरे विमल गुणवान् भी थे। इससे ये सभी के मित्र बन गये। तप करने की इच्छा से वे मुनिश्रेष्ठ मेरुपर्वत के समीप तृणविन्दु के आश्रम में जाकर तप करने लगे। तब उनको तपःस्वाध्याय में रत देख, वेदमंत्र श्रवण और विहार की इच्छा से बहुत सी कन्याएँ वहाँ जाने लगी।

उनमें अप्सराएँ भी रहती और ये सब ऋषियों, नागों और राजर्षियों को कन्याएँ थीं। इनके कारण तपस्वी पुलस्त्य के तप में विघ्न पड़ने लगा। इससे एक दिन पुलस्त्य जी ने कह दिया कि अब कल से जो कन्या यहाँ मुझे दिखाई पड़ेगी वह गर्भवती हो जायेगी। इस ब्रह्मशाप के भय से दूसरे दिन कन्याएँ वहाँ नहीं गयीं। परन्तु उनमें राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या ने नहीं सुना था, इसलिए वह दूसरे दिन पुलस्त्यजी

के आश्रम में चली गई और स्वच्छन्दता से विचरने लगी। परन्तु उसने अन्य कन्याओं को वहाँ नहीं देखा। इससे उसे कुछ आश्चर्य हुआ। फिर भी वह राजर्षिकन्या वेद ध्वनि सुनने की इच्छा से मुनि का दर्शन करने चली गयी। किन्तु जैसे ही उन तेजस्वी मुनि को देखा, वैसे ही उसका शरीर पीला पड़ गया और वह गर्भवती हो गई। उसे अपना शरीर देखकर बड़ी व्यग्रता हुई और वह भागकर अपने पिता के आश्रम में चली आयी। यहाँ पिता ने देखते ही उससे जो Ravana Samhita PDF Book

समाचार पूछा तो उसने कहा- और तो कुछ नहीं। आज पुलस्त्य मुनि के आश्रम में जाते ही मेरे अंगों में यह परिवर्तन अनायास हो आया है। मुनि ने नेत्र बन्द कर देखा तो उन्हें सबकुछ ज्ञात हो गया। वे उस कन्या को साथ ले पुलस्त्य मुनि के आश्रम पर आये और उनसे प्रार्थनापूर्वक उसे अपनी सेवकिनी बना लेने की प्रार्थना की। ब्राह्मण श्रेष्ठ पुलस्त्य जी धार्मिक राजर्षि तृणबिन्दु के उन वचनों को सुन उस कन्या को ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर अंगीकार किया। पुलस्त्य जी को सौप राजा तृणबिन्दु अपने आश्रम में लौट आये।

कन्या को वह राजतनया भी अपने गुणों से पति को सन्तुष्ट कर वहाँ रहने लगी। तब एक दिन उसके शील स्वभाव से हो मुनिश्रेष्ठ उससे बोले कि है तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए हे देवि ! आज मैं अपने ही तुल्य एक ऐसा पुत्र देता हूँ कि जो उत्तम वंशों का वर्द्धक होगा और पौलस्त्य नाम से प्रसिद्ध होगा। परन्तु तुमने मेरी ध्वनि सुनकर गर्भ धारण किया है जिससे उसका नाम विश्रवा होगा। ऐसा वर पाकर वह देवी प्रसन्न हुई। फिर तो कुछ ही समय पश्चात्

त्रिलोक विख्यात यशोधर्म समन्वित विश्रवा नामक पुत्र को प्रसव किया। यह विश्रवा भी वेदज्ञ मुनि व्रतचारी तथा अपने पिता के समान तपस्वी हुए । रावणसंहिता वैश्रवण कुबेर की कथा अल्पकाल में ही पुलस्त्य पुत्र मुनिश्रेष्ठ विश्रवा अपने पिता के ही समान तप करने लगे। वे सत्यवादी, शीलवान, जितेन्द्रिय, स्वाध्याय निरत, पवित्र, भोगों में अनासक्त और सर्वदा धर्म तत्पर रहा करते थे। Ravana Samhita PDF Book

जब विश्रवा के आचरण को देखकर महामुनि भरद्वाज ने अपनी देवाङ्गना तुल्य सुन्दरी कन्या का उनसे विवाह कर दिया। फिर सन्तानेच्छुक उस कन्या से धर्मात्मामुनि विश्रवा ने एक ऐसा पुत्र उत्पन्न किया जो ब्राह्मणोचित समस्त गुणों से युक्त परम अद्भुत बलवान् था। उसके जन्म से पितामह पुलस्त्यजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने पीत्र में कल्याणकारिणी बुद्धि देखकर कहा कि यह तो धनाध्यक्ष होगा।

फिर तो उन्होंने ही देवर्षियों सहित उसकानामकरण किया और कहा कि ‘यह बालक विश्रवा से उत्पन्न हुआ है और वैसा हो है भी। अतः इसका नाम वैश्रवण होगा। फिर तो उस महातपोवन में रहते हुए वह वैश्रवण भी बड़े तेजस्वी हुए। उन्होंने सोचा कि, धर्म की ही परमगति है। अतः मैं भी धर्माचरण करूंगा। उन्होंने कठिन व्रत के साथ हजारों वर्ष के घोर तप किए, जिसमें वे कभी जल पीकर, कभी वायु पान कर और कभी निराहार ही रह जाते थे।

इस प्रकार उन्होंने एक हजार वर्ष, एक वर्ष की भाँति व्यतीत कर दिये। तब तो ब्रह्माजी उनके इस तप को देखकर प्रसन्न हो गए और इन्द्रादिक देवताओं को साथ ले उन्हें वर देने के लिए उनके आश्रम पर पधारे और बोले- हे सुव्रत! हे वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो तब अपने समक्ष ब्रह्माजी को उपस्थित देख वैश्रवण ने कहा- भगवन् ! मेरी इच्छा है के मैं लोकपाल बनूँ और समस्त धन मेरे पास रहे। Ravana Samhita PDF Book Download

वैश्रवण की यह बात सुनकर ब्रह्माजी को और भी प्रसन्नता हुयी और उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार की तथा वैश्रवण से फिर बोले- हे वत्स! मैं चौथा लोकपाल रचने ही वाला था, अब तुम्ही उस पद को स्वीकार करो। जाओ अपार धन के स्वामी बनो। इन्द्र, वरुण और यम के साथ तुम्हारा चौथा स्थान होगा। यह सूर्य के समान तेजस्वी पुष्पक विमान है, इसे तुम अपनी सवारी के लिए लो और आज ही से देवताओं की समानता प्राप्त करो। अब में अपने लोक को जाता हूँ, तुम्हारा कल्याण हो।

स्थान नहीं बताया है। अतः अब आप ही मेरे लिए किसी ऐसे निवास स्थान का विचार कीजिये, जहाँ रहने से किसी भी प्राणी को कष्ट न हो?” पुत्र के इस प्रकार कहने पर मुनि श्रेष्ठ विश्रवा बोले धर्म सुनो। दक्षिण समुद्र के तट पर एक त्रिकूट नामक पर्वत है, जिसके शिखर पर एक विशाल पुरी है, जिसका नाम का है। विश्वकर्मा ने उसे राक्षसों के लिये बनाया था। वह अमरावती के ही समान रमणीक है।

अत: तुम लंका में ही निवास करो। उसके चतुर्दिक चौड़ी खाई खुदी है और वहयन्त्रों तथा शस्त्रों से परिपूर्ण है। वह लंकापुरी रमणीय है। सुवर्ण और वैदूर्य मणि के उसके द्वार है। पहले उसमें राक्षस रहा करते थे। किन्तु अब विष्णु के भय से वे वहाँ से भागकर पृथ्वी के नीचे रसातल में जा बसे है। रहो। | तुम वहाँ जाकर सुख से वहाँ तुम्हें या और किसी को भी कोई कष्ट न होगा। Ravana Samhita PDF Book Download

तब अपने पिता विश्रवा मुनि के ऐसा कहने पर धर्मात्मा पुत्र वैश्रवण अब राक्षस की चारों और समुद्र से घिरी हुई लंका में प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे। देवता और गन्धर्व उनका यशोगान करने लगे। उनका हृदय बड़ा विनीत था। धर्मात्मा धनेश्वर वैश्रवण पुष्पक द्वारा समय- समय पर अपने माता-पिता के समीप प्रायः आते-जाते रहते थे। राक्षसों का पूर्व इतिहास तथा उन्हें महादेव-पार्वती का वरदान अगस्त्यजी के कहे हुए इस वृत्तान्त को सुनकर श्रीराम विस्मित हो गये।

उन्होंने बारम्बार शिर कम्पितकर अगस्त्यजी की ओर देखते हुए पूछा- हे भगवन् ! आपसे यह सुनकर कि लंका में पहले ही से राक्षस रहते थे मुझे बड़ा आशर्य हुआ। क्या वे राक्षस रावण, कुम्भकर्ण आदि से भी बढ़कर बली थे? हे ब्रह्मन् ! उनके मूल पूर्वज कौन थे और उनका क्या नाम था। विष्णु से उनका क्या और था कि उन्होंने उन्हें मार भगाया?

तब राम के ऐसा पूछने पर अगस्त्यजी बोले- हे राम! ब्रह्माजी ने पहले जल की सृष्टि की और उसकी रक्षार्थ अनेक प्राणियों को उन्होंने उत्पन्न किया। उनमें हेति और प्रहेति नाम के दो राक्षस थे। वे दोनों भ्राता मधु-कैटभ के समान ही वीर थे। उनमें प्रहित बड़ा धार्मिक था, जो तपोवन में जाकर तप करने लगा और हेति ने विवाह के लिए बड़ा यत्न किया। उस समय काल की एक बहन थी जिसका नाम ‘भया’ था। Ravana Samhita PDF Book Download

अभी वह कुमारी ही थी कि उसका रूप अति भयंकर हो गया। हेति ने उसी भया के साथ विवाह किया। उससे एक पुत्र हुआ जिसका नाम विद्युत्केश था। उसका विवाह संध्या की पुत्री से हुआ, जिसका नाम सालकटटा था। उसे पाकर निशाचर विद्युत्केश बड़ा प्रसन्न हुआ और सुख से रहने लगा। कुछ काल पक्षातू रावणसंहिता २६ उस संध्या पुत्री ने विद्युत्केश से गर्भ धारण किया और मन्दराचल पर जाकर यहाँ एक पुत्र प्रसव किया।

और उस नवजात शिशु को वहीं त्याग फिर विद्युल्केश के पास चली आयी। इधर उसका वह त्यागा हुआ पुत्र मेघ की भांति शब्द करने लगा। फिर मुँह में मुडी डालकर धीरे-धीरे रोने लगा। उसी समय वृषभारूढ़ शिव-पार्वती आकाश मार्ग से उधर होकर कहीं जा रहे थे। उन्होंने वहाँ उस बालक के रोने का शब्द सुना। जब निकट जाकर देखा तो पार्वतीजी को बड़ी दया आई। उन्होंने उनके कहने से उस राक्षस पुत्र का वय उसको माता के समान कर दिया और उसे अमरत्व भी प्रदान कर दिया।

महादेवजी के लिए ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं थी। क्योंकि वे अक्षर और अविनाशी है। महादेवजी ने पार्वतीजी को प्रसन्न करने के लिए एक पुर के समान एक विमान भी दे दिया और हे नृपात्मज ! पार्वतीजी ने राक्षसियों को यह भी वर दे दिया कि राक्षसियों गर्भ धारण करते ही शिशु उत्पन्न करें और वह तत्क्षण माता की आयु का हो जाया करें। हे राम! फिर तो वह विद्युत्केश का पुत्र सुकेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ और Ravana Samhita PDF Book Free

महादेवजी के वरदान से वह बड़ा अभिमानी हो गया। अब आकाशचारी यान (विमान) और लक्ष्मी को प्राप्त कर वह सर्वत्र विचरण करने लगा। सुकेश का वंश विस्तार तदनन्तर सुकेश को वरदान प्राप्त तथा धार्मिक देखकर विश्वावसु के समान तेजस्वी ग्रामणी नामक गन्धर्व ने अपनी ‘देववती’ रूप यौवनशालिनी कन्या, जो दूसरी लक्ष्मी के ही समान तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी उसे दे दी। उसमें सुकेश से अग्नि के समान शरीरधारी तीन पुत्र उत्पन्न हुए। बलवानों में श्रेष्ठ उन तीनों के क्रमशः ये नाम थे।

माल्यवान्, सुमाली और माली सुकेश के ये तीनों पुत्र तीन लोकों के समान, तीनों अग्नियों के समान, तीनों वेदों के समान अथवा वात, पित्त, कफ के समान उम्र और भयङ्कर थे। तेजस्वी तो ऐसे थे कि शीघ्र ही बढ़कर युवा हो गये। फिर ये तीनों मेरु पर्वत पर जाकर कठोर नियमों द्वारा सब प्राणियों को भयोत्पादक तप करने लगे। उनके घोर तप से देवताओं और मनुष्यों सहित त्रैलोक्य संतप्त हो उठा।

तब तो अपने विमान पर बैठकर ब्रह्माजी उन्हें वर देने आये। कहा, वर माँगो इस पर वे राक्षस वृक्षों की तरह थर-थर काँपते हुए हाथ जोड़कर बोले- यदि कर देना चाहते हैं तो हम आपसे यही मांगते हैं कि हममें महर्षि और चारण अनार्यो की भाँति अपना रक्षक ढूंढने लगे। फिर उन्हें कोई रक्षक न मिला तब वे शिल्पियों में श्रेष्ठ वकर्मा के पास गए और कहा कि देवताओं को इच्छानुसार आप ही उनके गृह निर्माणकर्ता हैं। Ravana Samhita PDF Book Free