Bhrigu Sanghita PDF Book in Hindi – संपूर्ण भृगु संहिता हिंदी

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‘यत्पिण्डे तत्वह्माण्डे’ की कल्पना के आधार पर आज से सहस्रों वर्ष पूर्व भारतीय मनीषियों ने अपनी अन्तर्मुखी सूक्ष्म प्रज्ञा-शक्ति द्वारा वहन पर्यवेक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला था कि प्रत्येक वस्तु की रचना का मूलाधार सूक्ष्म ‘परमाणु’ हैं तथा असंख्यों परमाणुओं के समाहारस्वरूप निर्मित मानव शरीर का आकार आकाशीय सौर आग से न केवल मिलता-जुलता ही है, अपितु माकाशचारी ग्रह- नक्षत्रों का मानव शरीरस्थ सूक्ष्म सोर-जगत् से अन्योन्याभय सम्बन्ध भी रहता है ।

Bhrigu Sanghita PDF Book

Name of Book Bhrigu Sanghita
PDF Size 110.9 MB
No of Pages 638
Language  Hindi
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About Book – Bhrigu Sanghita PDF Book

और वे उस पर अपनी गतिविधियों का निरन्तर प्रभाव भी डालते रहते हैं । यही कारण है कि आकाशीय ग्रहों की स्थिति के अनुसार पृथ्वीतलवासी मनुष्य के जीवन मे अनशि विभिन्न प्रकार के परिवर्तन आते रहते हैं। मनुष्य जिस समय पृथ्वी पर जन्म लेता है, उस समय भचक (वाकाश-मण्डल) में विभिन्न ग्रहों को जो स्थिति होती है, उसका प्रभाव जातक के जीवन खी निरन्तर प्रभावित करता रहता है। जन्म कुण्डली जातक के जन्म समय में चान्तर्गत विभिन्न ग्रहों की स्थिति की ही परिचायक होती है।

यदि उसका गहन अध्ययन किया जाय तो जातक के जीवन में क्षण-क्षण पर घटने वाली सभी घटनाओं का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। कहावत है-अष्टका लेख कोई नहीं पढ़ पाता परन्तु जिस प्रकार दीपक के प्रकाश में तमसावृत वस्तुओं का स्वरूप दृष्टिगोचर हो उठता है, उसी प्रकार ज्योतिविज्ञान रूपी दीपक का उजाला भी अदृष्टमेव रूपी तिमिरावरण की चीर कर सूत, भविष्य एवं वर्तमानकाल में घटने वाली घटनाओं को उजागर कर देता है इसमें कोई संदेह नहीं ।

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ज्योति शास्त्र के विभिन्न अंगों में ‘गणित’ तथा ‘फलित’ का स्थान मुख्य है । फलित ज्योतिष द्वारा मानव-जीवन पर पड़ने वाले आकाशीय ग्रहों की गति- विधियों के प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है। सहस्रों वर्षों के अनुभवों तथा अन्वेषणों के आधार पर यह विद्या अव एक सुनिश्चित विज्ञान का स्वरूप ग्रहण कर चुकी है तथा प्राणिमात्र के लिए परम उपयोगी खी सिद्ध हुई है।

“जन्मकुण्डली के किस भाव में स्थित कौन-सा ग्रह जातक के जीवन पर क्या प्रभाव डालता है” अस्तुत ग्रंथ में इसी विषय का संक्षिप्त विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। यहाँ के पारस्परिक मूर्ति, बंध, उच्च-नोचादि स्थिति बादि अनेक ज्ञातव्य विषयों का विवरण भी इसमें संकलित है। फलित ज्योतिष सम्बन्धी अन्य विषयों को भी स्थान देकर इसे सर्वसाधारण के लिए अधिका- धिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न को किया गया है।

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परन्तु इस एक ही ग्रंथ द्वारा ज्योतिष विद्या से सबंधा अपरिचित सामान्य व्यक्ति भी पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं तथा किसी भी स्त्री-पुरुष की जन्मकुण्डली के ग्रहों का फलादेश ज्ञात कर सकते हैं। विषय-वस्तु को अधिकाधिक बोधगम्य बनाने की भी भरसक चेष्टा की गई है। अपने प्रयत्न में हम कहाँ तक सफल हुए हैं, इसे विज पाठक- गण स्वयं ही अनुभव कर सकेंगे।

आज से लगभग ५ वर्ष पूर्व भी हमने एक ऐसे ही ग्रंथ की रचना की थी, जिसे पाठकों का स्नेह प्राप्त हुआ था। प्रस्तुत ग्रंथ उसी परिपाटी में, अधिक बोधगम्य तथा सुगठित रूप में प्रस्तुत किया गया है। आणा है इसे भी पाठकों का स्नेह मिलेगा । ग्रंथ के प्रणयन में हमें जिन सूत्रों से सहायता मिली है, उन सबके प्रति हम हृदय से आभारी है।मानव-कृति दोष-विहीन नहीं होती, अतः विजजनों ने निवेदन है कि दे इस ग्रंथ की छुटियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने की कृपा करें, ताकि इसके आगामी संस्करण में उनका निराकरण किया जा सके।

बामण्डलस्य असंख्य ज्योतिष्पिष्ठों में से जो पिष्ट पृथ्वी स्थित सभी जढ़- चेतन पदार्थों की अपने प्रभाव के प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, उनकी गणना ग्रहों में की जाती है। प्राचीन भारतीय ज्योतिष में ऐसे बहों की कुल संख्या ७ बताई गई है। वे सूर्य २. चन्द्र ३. मंगल, ४. ४. बृहस्पति, शुक और ७. शनि । परवर्ती ज्योतिषियों ने अपने अनुसन्धानों के बल पर यह सिद्ध किया कि मण्डल की दोनों ओर पड़ने वाली छाया भी यहाँ वैसी हो प्रभावशालिनी है, अतः उन्होंने ‘राहु’, ‘केतु’ नामक तो अन्य छायाग्रहों की कल्पना करके ग्रहों की कुल संख्या कर दी। Bhrigu Sanghita PDF Book

आधुनिक काल के पाभात्य ज्योतिषियों ने बाकासमण्डल में ३ वन्य यहाँ की भी खोज की है। वे हैं – (१) हल, (२) नेपच्यून और (३) प्लूटो ने सभी ग्रह पूर्वोक्त ७ यहीं से भी अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित हैं। इस प्रकार कुल बहों की संख्या १२ हो जाती है। परन्तु भारतीय ज्योतिष में अभी तक पाश्चात्य ज्योतिषों द्वारा नवीन धानिष्कृत सीन ग्रहों को स्थान नहीं दिया गया है। अतः उसमें छाया राहु-केतु सहित केवल यहीं का हो उल्लेख मिलता है।

चन्द्र, बृहस्पति तथा शुक्र इन तीन ग्रहों को शुभ ग्रह माना जाता है। बुध की नपुंसक ग्रह माना गया है, यह जिस ग्रह के साथ बैठता है, उस जैसा ही प्रभाव देता है। सूर्य मंगल तथा पानि क्रूर ग्रह कहे गये हैं। राहु-केतु की गणना भी क्रूर हों में की जाती है। परन्तु कुछ विद्वानों के मतानुसार केतु’ की भी शुभ ग्रह माना जाता है। उक्त ९ बहों में कौनसा ग्रह किस स्वभाव, वन तथा प्रभाव वाला है तथा उसके द्वारा नियों का विशेष रूप से विचार करना चाहिए, इसे निम्नानुसार समझ में-

(१) सूर्य ग्रह ‘पाप’ संतक, पूर्व दिया का स्वामी, पुरुष जाति, रक्त- वर्ण एवं पित प्रकृति का है। स्नायु मेण्ड, नेत्र, हृदय यादि अवयवों पर इसका विशेष प्रभाव होता है। इसके द्वारा बात्मा आरोग्य, स्वभाव, पिता, राज्य, देवालय, शोक, अपमान, कलह तथा रोग अतिसार, क्षय, मंदाग्नि, मानसिक रोग, नेत्र विकार आदि के सम्बन्ध में विचार करना चाहिए। Bhrigu Sanghita PDF Book

यह सम से सप्तम स्थान में बनी एवं मकर से ६ राशियों तक बेष्टा-बस (२) चन्द्र-यह ग्रह ‘शुभ’ संज्ञक, पश्चिमोत्तर दिशा का स्वामी, स्त्री जाति, श्वेत वर्ण एवं जातीय प्रकृति का है। यह रक्त का स्वामी तथा वातश्लेष्मा धातु बाला है। इसके द्वारा मन, चित्त वृत्ति, सम्पत्ति, माता, पितर, निरर्थकप्रमण, राजकीय अनुग्रह, उदर, मस्तिष्क एवं शारीरिक स्वास्थ्य तथा कफन एवं जलीय रोग, स्त्रीजन्य रोग, मानसिक रोग तथा पीनर रोग आदि के विषय में विचार करना चाहिए।

यह सम से चतुर्थ स्थान में बसी तथा मकर से ६ राशियों तक चेष्टा बली होता है। कृष्णपक्ष की षष्ठी से शुक्लपक्ष की दशमी तक बहू क्षीण रहता है। इ अवधि में इसे पाप ग्रह तथा क्षीण माना जाता है। शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक यह पूर्ण ज्योतिर्मान् बली तथा शुभ ग्रह माना है। भाव में बली चन्द्रमा हो पूर्व फलदायी होता है, क्षीण चन्द्रमा नही। (३) मङ्गल-यह ग्रह ‘पाप’ सशक, दक्षिण दिशा का स्वामी, पुरुष जाति, रक्त वर्ण, पित प्रकृति तथा अग्नि तत्व बाला है।

यह उत्तेजक, तृष्णाकारक तथा दुःखदायी है। इसके द्वारा धैर्य, पराक्रम, भाई-बहिन शक्ति तथा रक्त सम्बन्धी विचार करना चाहिए। यह तीसरे तथा छठे स्थान में बली, दशम स्थान में दिग्बली चन्द्रमा के साथ पेष्टा बसी तथा द्वितीय भाग में बलहीन होता है। (४) बुध यह यह पुंसक’, संशक उत्तर दिया का स्वामी, श्यामवर्ण विशेष तथा पृथ्वी तत्व वाता है। यह व्यवसाय, चिकित्सा, ज्योतिष, शिल्प, कानून, एवं दशम स्थान का कारक है। Bhrigu Sanghita PDF Book

इसके द्वारा बुविभ्रम, विवेक, शक्ति, जिला एवं तालु से उच्चारण किये जाने वाले शब्द एवं अवयव तथा गुप्त रोग, श्वेतकुष्ठ, गापन, वातरोग, संग्रहणी आदि का विचार किया जाता है। शुद्ध चतुर्थ स्थान में ‘निर्मल’ होता है यह जैसे यह के साथ बैठा हो उसी के स्वभाव का बन कर शुभ वयदा अशुभ फल देने वाला शुभग्रह अथवा पान जाता है। पूर्व चन्द्र वृक्ष तथा शुक के साथ शुभ फलदायक तथा शुर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु के साथ अशुभ फलदाता होता है। यदि यह अकेला हो तो शुभ फल देता है।

(५) बृहस्पति-यह ग्रह ‘शुभ’ संज्ञक पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी, पीतवर्ण तथा आकाश तत्व वाला है। यह हृदय को शक्ति का कारक है। इसके द्वारा पारलौकिक सुख, आध्यात्मिक सुख, घर, विद्या, पुत्र, पौत तथा सोच, गुल्म आदि रोगों का विचार किया जाता है। लग्न में बैठा हुआ बृहस्पति अभी तथा चन्द्रमा के साथ कहीं थी बैठा हुआ चेष्टावली होता है। शुक्र-यह ग्रह ‘शुभ’ संत, दक्षिण-पूर्व दिया का स्वामी, श्याम मौर वर्ण तथा जलीय तत्व वाला है।

यह कफ, बी बादि धातुओं तथा काव्य-संगीत, बाहन, शय्या, कामेच्छा, पत्नी (स्त्री), आंच बस्तानूषण आदि का कारक है। इसके द्वारा सांसारिक-मुख, व्यावहारिक सुख एवं चातुर्य का विचार किया जाता है। यदि जातक का जन्म दिन में हुआ हो तो इसके द्वारा उनकी माता के सम्बन्ध में भी विचार किया जाता है। यह छठे स्थान में निष्फल तथा सातवें स्थान में अनिष्टकर होता है। Bhrigu Sanghita PDF Book Download

(७) शनि-यह यह ‘क्रूर’ संज्ञक, नपुंसक जाति, पश्चिम दिशाका स्वामी कृष्णवर्ण, वातश्लेमिक प्रकृति का तथा वायुतस्व वाला है। इसके द्वारा आयु सारीरिक बस, दृढता, ऐक्य, मोक्ष, योगाभ्यास, नौकरी, विदेशी भाषा, विपत्ति एवं आदि रोगों का विचार किया जाता है। यदि जातक का जन्म रात्रि में हुआ हो तो ग्रह ग्रह माता-पिता का कारक होता है। पापग्रह होने पर भी इसका अन्तिम परिणाम सुखदायक होता है। यह जातक को दुर्भाग्य एवं संकटों का शिकार बनाने के बाद उसे शुद्ध एवं सात्विक बना देता है।

यह सप्तम स्थान में बनी तथा चन्द्रमा अथवा किसी अन्य की ग्रह के साथ रहने पर चेष्टा उसी होता है। (घ) राहु-यह वह ‘क्रूर’ संज्ञक, दक्षिण दिशा का स्वामी तथा कृष्णमणं है। यह गुप्त युक्ति-ब कष्ट एवं लुटियों का कारक है। यह जिस स्थान में बैठता है यहाँ की उन्नति को रोक देता है। कुल राशियाँ १२ हैं। किस राशि का क्या स्वभाव, प्रभाव है तथा उसके द्वारा किन विषयों का विशेष रूप से विचार किया जाता है, निम्नानुसार समझ लें-

(१) मेष- यह रात्रि ‘पुरुष’ जाति, पूर्व दिया की स्वामिनी साज-पीले रंग वाली कान्तिहीन, सविन वर्ग र अग्नि तत्व, समान बंग, अल्प-सन्तति तथा पित्त प्रकृति जाती है। यह अहंकारी, साहसी तथा मित्रों के यदि दयालु स्वभाव रखने वाली है। इसके द्वारा जातक के मस्तक के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। (२) वृष-यह रात्रि ‘स्त्री’ जाति, दक्षिण दिशा की स्वामिनी श्र बाली, कान्ति- होन, वैश्य वर्ण, स्थिर संज्ञक शिथिल शरीर शुभकारक, महा कष्ट- Bhrigu Sanghita PDF Book Download

कारी तथा भूमितत्व वाली है। यह स्वार्थी तथा सांसारिक कार्यों में दक्षता एवं बुद्धिमत्ता से काम लेने वाली है। इसके द्वारा जातक के मुंह तथा कोलों के में विचार किया जाता है। इसे ‘अजरा’ भी कहते हैं। (३) मिथुम यह रात्रि ‘पुरुष’ जाति, पश्चिम दिशा को स्वामिनी, हरित रंग, चिकनी, उष्ण स्वभाव, शूद्रवर्ण, शिथिल शरीर, विपमोदयी तथा महाशयकारी है। यह शिल्पी तथा विद्यासनी स्वभाव की है। इसके द्वारा जातक के ध बाओं के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।

(४) कर्क यह मिस्त्री’ जाति, उत्तर दिशा नो स्वामिनी रक्तव मिश्रित रंग बाती, जलचारी, सौम्य, कफ प्रकृति, बहु सन्ततिवान्, बहुत पाँवों बानी रावली एवं समोदमी है। यह सज्जालु स्वभाव की समयानुसार चलने वाली तथा सांसारिक उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहने वाली है। इसके द्वारा जातक के वक्षस्थल एवं गुर्दों के सम्बन्ध में विचार किया जाता है।

(५) सिंह यह राशि ‘पुरुष’ जाति, पूर्व दिशा की स्वामिनी, पीले रंगवानी, वि.वर्ण, उष्ण-स्वभाव, पुष्ट शरीर पित्त प्रकृति, अग्नि तत्व बासी, निर्जन एव [] सन्ततिवान् है। इसका स्वभाव मेष राशि जैसा है, परन्तु इसमें स्वातन्दप- •प्रियता एवं उदारता अधिक है। इसके द्वारा जातक के हृदय के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। (६) कन्या- यह रावि ‘स्त्री’ जाति, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, पिगल रंग जाती. Bhrigu Sanghita PDF Book Download

द्विस्वभाव, पृथ्वीतत्व बाली, वायु एवं शीत-प्रकृति अल्प सन्ततिवान् तथा रातिगली है। इसका स्वभाव मिथुन राति जैसा है, परन्तु यह अपनी उन्नति एवं सम्मान पर अधिक ध्यान देती है। इसके द्वारा जातक के पेट के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। (७) तुला यह रात्रि ‘पुरुष’ जाति, पश्चिम दिया की स्वामिनी, क्याम रंग की. शूद्रवर्ण, स्वभाव, वायुतत्व वामी, शीयोंदयी, बर-संक, विनवली, अल्प सन्ततिवान् एवं पावतराणि है।

यह स्वभाव से ज्ञानप्रिय, राजनीतिज्ञ, विचारशील तथा कार्य-सम्पादक है। इसके द्वारा आतक के नाभि से नीचे के बंगों के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। (८) वृश्चिक-यह राशि ‘स्त्री’ जाति, उत्तर दिला की स्वामिनी, शुभ रंग बाली, बावणे, कफ प्रकृति, राति बली, बबन तत्व वाली तथा बहु सन्ततिमान् टिप्पणी-जो ग्रह जिस राशि का स्वामी होता है, यदि यह उसी राशि में बैठा हो की उसे ‘स्वग्रही’ अथवा ‘स्त्री’ कहा जाता है। विभिन्न ग्रहों के उप क्षेत्रीय, सुख विकोणस्थ, स्वक्षेत्री तथा नीच का होने

सम्बन्ध में वीर अधिक स्पष्टता को नीचे निवे अनुसार समझ लेना चाहिए- सूर्य सिंह राशि स्थित सूर्य स्वलेवी होता है। सिंह राशि के १ से – २० अंश तक उसका मूलत्रिकोण, तथा २१ से ३० अंश तक स्वक्षेत्र माना जाता है। मेष राशि के १० अंश तक उच्च का और तुला राशि के १० अंश तक नीच का होता है। चन्द्र-कर्के राशि स्थित चन्द्र स्वक्षेत्री होता है। वृष राशि के ३ अंश तक उच्च का, एवं वृष राशि के ४ से ३० अंश तक मूलत्रिकोण स्थित माना जाता है। वृश्चिक राशि के अंत तक नीच का होता है। Bhrigu Sanghita PDF Book Free

मंगलम अथवा ‘वृश्चिक राशि में स्थित मंगल स्वक्षेत्री होता है, परन्तु मेष राशि के १ से १० अंश तक भूलविकोणगत तथा १६ से ३० अंश तक स्वक्षेत्री माना जाता है। मकर राशि के २८ अंश तक उच्च का तथा कर्क राशि के २८ अंश तक नीच का होता है । कन्या’ अपना ‘मिथुन’ राशि में स्थित बुध स्ववी होता है, परन्तु कन्या राशि के ६ से १५ अंश तक मूलविकोषगत तथा १६ से ३० अंश तक स्वदेवी माना जाता है।

कन्या राशि के १५ वंश तक उच्च का तथा मीन राशि के १५ अंश तक नीच का होता है। इसी प्रकार कन्या राशि स्थित बुध १ से १५ अंश तक उच्च का, साथ ही १ से १८ अंश तक मूलत्रिकोणगत तथा १६ से ३० तक स्वक्षेत्री माना जाता है। Bhrigu Sanghita PDF Book Free