Ramayana PDF Book in Hindi – संपूर्ण रामायण हिंदी

Ramayana-PDF

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छोटे छोटी पुस्तकों में भी जब भूमिका देना, प्रचलित प्रथा के अनुसार अनिवार्य समझा जाता है तब इतने बड़े ग्रन्थ के प्रारम्भः में भो भूमिका का होना परमावश्यक है । किन्तु भूमिका या तो स्वयं ग्रन्थकार की लिखी होनी चाहिये अथवा ग्रन्थकार से घनिष्ट परिचय रखने वाले उसके किसी आत्मीय सम्बन्धी प्रथवा मित्र की लिखी हुई। ये दोनों प्रयाएँ आज ही प्रचलित हुई हैं, यह कहना उचित न होगा । इस देश में ये दोनों ही प्रथाएँ प्राचीनकाल से प्रचलित जान पड़ती हैं।

Ramayana PDF Book

Name of Book Ramayana
PDF Size 182.6 MB
No of Pages 6191
Language  Hindi
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About Book – Ramayana PDF Book

इस इतिहास ग्रन्थ-रत्न श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में भी भूमिका है और यह भूमिका स्वयं आदिकवि की लिखी हुई नहीं, प्रत्युत उनके किसी शिष्य प्रशिष्य की लिखी हुई है । बालकाण्ड के प्रथम सर्ग को छोड़, दूसरे से ले कर चौथे सर्ग तक-तीन सर्ग आदिकाव्य के भूमिकात्मक हैं । इसको रामायण के टीकाकारों में श्रेष्ठ, आचार्यप्रवर गोविन्दराज जी ने भी स्वीकार किया है ।

” सर्गत्रयमिदं केनचिद्वाल्मीकि शिष्येण रामायण निर्वृत्त्यनन्तरं निर्माय वैभव प्रकटनाय संगमितं । यथा ‘ याज्ञवल्क्यस्मृत्यादौ तथैव तत्र विज्ञानेश्वरेण व्याकृतं । ” उक्त तीन सर्गों में यत्र तत्र इस अनुमान की पुष्टि करने वाले प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। यथा चतुर्थ सर्ग का प्रथम श्लोक हैः- ” प्राप्तराज्यस्य रामस्य वाल्मीकिर्भगवानऋषिः चकार चरितं कृत्स्नं विचित्रपदमात्मवान् ॥ “

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इस श्लोक में महर्षि वाल्मीकि जी के लिये ” भगवान् ” और ‘ध्यात्मवान् ” जो दो विशेषण प्रयुक्त किये गये वे आदि काव्यरचयिता जैसे मार्मिक एवं सर्वज्ञ ग्रन्थरचयिता, शिष्टतावश स्वयं अपने लिये कभी व्यवहार में नहीं ला सकते । फिर इस श्लोक के अर्थ पर ध्यान देने से भी स्पष्ट विदित होता है कि, इस श्लोक का कहने वाला ग्रन्थ रचयिता नहीं, प्रत्युत कोई अन्य ही पुरुष अर्थ पर ध्यान देने से भी स्पष्ट विदित होता है कि, 4/19 क का कहने वाला ग्रन्थ रचयिता नहीं, प्रत्युत कोई अन्य ही पुरुष है ।

अतः ग्रन्थ की भूमिका पढ़ने के लिये उत्सुक जनों को, वाल- काण्ड के दूसरे तीसरे और चौथे सर्ग को पढ़ अपना सन्तोप कर लेना चाहिये। क्योंकि ग्रन्थ की भूमिका में जो आवश्यक वार्ते होनी चाहिये, वे सब इसमें पायी जाती हैं। यथा, ग्रन्थ की उत्कृष्टता का दिग्दर्शन, ग्रन्थ में निरूपित विषयों का संक्षिप्त वर्णन, ग्रन्थ- निर्माण का कारण, ग्रन्थनिर्माण का स्थान, ग्रन्थनिर्माण का समय, ग्रन्थ का प्रकाशनकाल और ग्रन्थ पर लोगों की सम्मति ।

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ये सभी बातें उक्त तीन सर्गों में पायी जाती हैं। अतएव इसमें नयी भूमिका जोड़ने की आवश्यकता नहीं है ।तव हाँ, इस ग्रन्थ के पढ़ने पर ऐतिहासिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, धार्मिक दृष्टि से, राजनीतिक दृष्टि से पढ़ने वाले किन सिद्धान्तों पर उपनीत हो सकते हैं, यह वात दिखलाने की घ्याव श्यकता है । प्राचीन टीकाकारों ने इस प्रयोजनीय विषय की उपेक्षा नहीं की। उन महानुभावों ने भी यथास्थान अपने स्वतंत्र विचार लिपिवद्ध किये हैं।

उन्हींके पथ का अनुसरण कर, इस ग्रन्थ के अनुवादक ने भी यथास्थान अपने स्वतंत्र विचारों को व्यक्त करने में अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं की। किन्तु स्थान स्थान पर ‘जो विचार प्रकट किये गये हैं, वे सूत्ररूप से होने के कारण उनको विशद रूप से व्यक्त करने की आवश्यकता का अनुभव कर, अनुवा दक का विचार, ग्रन्थ के परिशिष्ट भाग में, अपने विचारों को

विषयानुक्रम से विस्तारपूर्वक लिपिवद्ध करने का है । अतएव ग्रन्थ पाठकों को परिशिष्ट भाग छपने तक धैर्य धारण करने अनुवादक की ओर से साग्रह अनुरोध है । अनुवादक को अनुवाद के विषय में विशेष कुछ भी नहीं है। जो कुछ भला बुरा अनुवाद वह कर सकता है, वह प्रका शक महोदय की सहायता से सर्वसाधारण के सन्मुख किया जाता है | Ramayana PDF Book

हिन्दू जाति की इस शोच्य अधःपतित अवस्था में, इस ग्रन्थरत्न के सुलभ मूल्य पर प्रचार करने से हिन्दुओं की प्राचीन सभ्यता, प्राचीन संस्कृति और प्राचीन पद्धतियों क जीर्णोद्वार हो, इस ग्रन्थ को हिन्दी भाषा में अनुवाद कर, प्रकाशित ‘करने का अनुवादक और प्रकाशक, दोनों ही का, यह उद्देश्य है । ब्रह्मा जी का घवड़ाए हुए देवताओं को धीरज बंधाना । . यज्ञीय पशु के न मिलने के कारण महाराज सगर की श्राज्ञा से पुनः सगरपुत्रों द्वारा पृथिवी का खोदा जाना । अन्त में कपिल जी का दर्शन और कपिल के हुँकार शब्द से साठ हज़ार सगरपुत्रों का भस्म होना ।

इकतालीसवाँ सर्ग साठ हजार पुत्रों की खोज में अंशुमान का जाना । सगर- पुत्रों की भस्म को देख उसका दुःखी होना । यज्ञीय पशु का कपिल आश्रम में अंशुमान द्वारा देखा जाना तथा दुग्ध हुए सगरपुत्रों के उद्धारार्थ गङ्गा लाने के लिये गरुड़ जी द्वारा अंशुमान की उपदेश मिलना । यज्ञीय पशु ले जा कर अंशुमान का महाराज को दे कर यज्ञ को पूरा कराना और उनसे अपने पितृव्यों के भस्म होने का वृत्तान्त कहना ।

अंशुमान का कुछ दिनों तक राज्य कर के अपने पुत्र दिलीप की राज्य सौंप स्वयं तप करने के लिये हिमालयभ्टङ्ग पर जाना और वहाँ से स्वर्ग सिधारना । दिलीप का नेक यज्ञ करना और पुरखों के उद्धार के लिये चिन्तित हो, अपने ‘पुत्र ‘भगीरथ को राज्य सौंप, स्वयं स्वर्ग सिधारना । तदनन्तर भगीरथ का उग्रतप कर वर पाना । तेतालीसवाँ सर्ग गङ्गा के वेग को धारण करने के लिये भगीरथ का एक वर्ष तप कर महादेव जी को प्रसन्न करना । गङ्गावतरण | गङ्गा को अपने जटाजूट में शिव जी का लोप कर लेना Ramayana PDF Book

तव भगीरथ का पुनः तप द्वारा शिवजी को प्रसन्न करना । तव शिवजी का गङ्गा को विन्दुसरोवर में छोड़ना । गङ्गा का भगीरथ के पीछे पीछे वह कर उनके पूर्वजों का उद्धार करना ।भगीरथ पर ब्रह्मा जी का अनुग्रह रसातल में गङ्गाजल से भगीरथ का अपने पितरों का तर्पण करना । पैतालीसवाँ सर्ग अगले दिन गङ्गा को पार कर उत्तर तट पर पहुँच कर कौशिकादि का विशालपुरी को देखना । श्रीरामचन्द्र जी के पूंछने पर विश्वामित्र जी का विशालापुरी का इतिहास सुनाना ।

दिनि और प्रदिति के पुत्रों का वृत्तान्त वर्णन । समुद्रमंथन की कथा । समुद्र से निकले हुए हलाहल को शिवजी का अपने कराठ में रखना । धन्वन्तरादि की मेज कर विश्वामित्र का अन्य ऋषियों को बुलवाना । वशिष्ठपुत्रों का तथा महोदय नामक ऋषि का बुलाने पर न याना । यतः विश्वामित्र का उनको शाप देना । साठवाँ सर्ग विशङ्क के यज्ञ का वर्णन । यज्ञभाग लेने के लिये उस यज्ञ में बुलाने पर भी देवताओं का न श्राना। इस पर क्रुद्ध हो विश्वामित्र जी का अपने तपोवल से भिशङ्क को सदेह स्वर्ग भेजना ।

किन्तु इन्द्रादि देवताओं क त्रिशङ्क का सदेह स्वर्ग में आना भला न लगने पर त्रिश ar पृथिवी पर गिरना, और ” बचाइये बचाइये ” कह करें चिल्लाना । तव क्रोध में भर विश्वामित्र का नयी सृष्टि रचने में प्रवृत्त होना । तब घबड़ा कर देवताओं का विश्वा- मित्र जी को मनाना । त्रिश सदा आकाश में सुख पूर्वक रहैं, देवताओं के यह स्वीकार कर लेने पर, नयी सृष्टि रचना से विश्वामित्र का निवृत्त होना । Ramayana PDF Book

दक्षिण दिशा में तप में विन होने पर विश्वामित्र जी का उस दिशा को छोड़ पश्चिम में पुष्कर में जा कर उग्र तप करना । इस बीच में अवरोप राजा का यज्ञ करना। उनके यज्ञपशु का इन्द्र द्वारा चुराया जाना । यज्ञ पूरा करने के लिये पुरोहित का अम्बरीष से किसी यज्ञीय नरपशु को लाने का अनुरोध करना। गौधों के लालच ऋचीक का अपने विचले पुत्र शुनःशेप को राजा के हाथ बेचना । शुनःशेष को ले राजा अम्वरीप का प्रस्थान करना ।

राजा श्रम्बरीष का पुष्कर में धागमन । शुनःशेप का विश्वामित्र के निकट जा प्राण बचाने और अम्वीप का अधूरा यक्ष पूर्ण होने के लिये प्रार्थना करना है। विश्वामित्र का शुनःशेष के बदले अपने पुत्र को नरपशु धन कर राजा के साथ जाने की प्राक्षा देना । श्राक्षा न मानने पर विश्वामित्र का पुत्रों को शाप देना । विश्वामित्र के बतलाये मंत्रों का जप करने से शुनःशेष की यज्ञ में रक्षा और अम्वरीप के महाराज इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न श्रीरामचन्द्र जी को जन जानते हैं।

वे नियतस्वभाव ( मन को वश में रखने वाले बड़े बली, अति तेजस्वी, ध्यानन्दरूप, सब के स्वामी ॥ ८ ॥ ‘बुद्धिमानीतिमान् वामी श्रीमान्शत्रुनिवर्हणः । विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः ॥ ९ ॥ महारस्को महेष्वासेो गूढजत्रुररिंदमः । आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः ॥ १० ॥ सर्वक्ष, मर्यादावान् मधुरभाषी, श्रीमान्, शत्रुनाशक, विशाल, कंधे वाले, और मोटी भुजाओं वाले, शङ्ख के समान गरदन पर तीन रेखा वाले बड़ी छुट्टी ( ठोढ़ी ) वाले, चौड़ी छाती वाले और विशाल धनुषधारी हैं। Ramayana PDF Book Download

उनकी गरदन की हड्डियाँ (हसुली हड्डियाँ) माँस से दी हुई हैं, उनकी दोनों वह घुटनों तक लटकती हैं। उनका सिर और मस्तक सुन्दर है और वे बड़े पराक्रमी हैं ॥६॥ १०॥ समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् । पीoवक्षा विशालाक्षी लक्ष्मीवाञ्शुभलक्षणः ॥ ११ ॥ उनके समस्त अङ्गन बहुत छोटे हैं और न बहुत बड़े हैं, (जो जितना लंबा या छोटा होना चाहिये वह उतना ही लंबा या छोटा है।) उनके शरीर का चिकना सुन्दर रंग है, वे प्रतापी या तेजस्वी हैं ।

उनकी छाती मांसल है, (अर्थात् हड्डियाँ नहीं दिख- लायी पड़ती ) उनके दोनों नेत्र बड़े हैं, उनके सव अङ्ग प्रत्यङ्ग सुन्दर हैं और वे सब शुभ लक्षणों से युक्त हैं ॥ ११ ॥ धर्मज्ञः सत्यसन्धंश्च प्रजानां च हिते रतः । यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् ॥ १२ ॥ घे शरणागत की रक्षा करना, इस अपने धर्म को जानने वाले हैं। प्रतिज्ञा के दृढ़ ( वादे के पक्के ) अपनी प्रजा ( रियाया ) के हितैषी, अपने घ्याश्रितों की रक्षा करने में कीर्ति प्राप्त, सर्वज्ञ, पवित्र, भक्ताधीन, आश्रितों की रक्षा के लिये चिन्तावान् प्रथवा निज तत्व का चिन्तमन करने वाले हैं ॥ १२ ॥

प्रजापतिसमः श्रीमान्धाता रिपुनिषूदनः । रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता । वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ॥ १४ ॥ रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ॥ १३ ॥ ब्रह्मा के समान प्रजा का रक्षण करने वाले प्रति शोभावान् सब के पोषक, शत्रु का नाश करने वाले अर्थात् वेदद्रोही और धर्मद्रोही उनके शत्रु हैं उनका नाश करने वाले, धर्मप्रवर्तक, स्वधर्म* और ज्ञानी जन के रक्षक हैं। वेद वेदाङ्ग के तत्वों को जानने वाले तथा धनुर्विद्या में प्रति प्रवीण हैं । ॥ १३ ॥ १४ ॥ Ramayana PDF Book Download

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान्प्रतिभानवान् । सर्वलेाकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः ॥ १५ ॥ ये सब शाखों के तत्वों को भजी भांति जानने वाले,* अच्छी सारा शकि वाले, मदा प्रतिभाशाली, सर्वप्रिय, परमसाधु, कभी दैन्य प्रदर्शित न करने वाले, अर्थात् वड़े गम्भीर, और लौकिक अजोकिक क्रियाओं में कुशल हैं ॥ १५ ॥ सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः । आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः ॥ १६ ॥

जिस प्रकार सब नदियाँ समुद्र तक पहुँचती है, उसी प्रकार सजन जन उन तक सदा पहुँचते है अर्थात् क्या अखाभ्यास के समय, या भोजन काल में, उन तक अच्छे लोगों को पहुँच सदा रहती है। अच्छे लोगों के लिये उनके पास जाने की मनाई कभी नहीं है। वे परम श्रेष्ठ हैं, ये सबको प्रर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र पशुपती -जो कोई उनका हो, उसको समान दृष्टि से देखने वाले हैं और सदा प्रियदर्शन हैं ॥ २६ ॥

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः । समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ॥ १७ ॥ विष्णुना सह वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः । कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ॥ १८ ॥ वे सब गुणों से युक्त कौशल्या के प्रानन्द को बढ़ाने वाले हैं। वे गम्भीरता में समुद्र के समान, धैर्य में हिमालय की तरह, पराक्रम में विष्णु की तरह, प्रियदर्शनत्व में चन्द्रमा की तरह, क्रोध में कालाग्नि के समान, और क्षमा करने में पृथिवी के समान हैं ॥ १७ ॥ १८ ॥ Ramayana PDF Book Download

धर्मशास्त्रं पुराणंचमीमांसाऽऽन्वीक्षिकी तथा । चावायें तान्युपाक्रानिशाज्ञाः संप्रचक्षते ॥ बालकायडे धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः । तमेवंगुणसंपन्नं रामं सत्यपराक्रमम् ॥ १९ ॥ वे दान देने में कुवेर के समान अर्थात् जब देते हैं तव अच्छी तरह देते हैं, सत्यभाषण में मानों दूसरे धर्म हैं। ऐसे गुणों से युक्त सत्यपराक्रमी श्री रामचन्द्र जी हैं ॥ १६ ॥ ज्येष्ठं श्रेष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथः सुतम् । प्रकृतीनां हितैर्युक्तं प्रकृतिप्रियकाम्यया ॥ २० ॥

यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्मीत्या महीपतिः । तस्याभिषेकसंभारान्दृष्ट्वा भार्याऽथ कैकयी ॥ २१ ॥ (ऐसे) श्रेष्ठ गुणों से युक्त प्यारे तथा प्रजा के हित को चाहने उन्होंने अत्यन्त विनय भाग से प्रार्थना की हे राम ! आप धर्मक्ष हैं (अर्थात् यह धर्म शास्त्र की प्राज्ञा है कि बड़े भाई के सामने छोटा भाई राज्य नहीं पा सकता) अतः आपही राजा होने योग्य हैं ॥ ३५ ॥ रामोऽपि परमोदारः सुमुखः सुमहायशाः ।

यह काव्य पीछे के कवियों का आधर स्वरूप है और यथाक्रम समाप्त किया गया है । यह ग्रन्थ जैसा अद्भुत है वैसा ही गीत- विशारद इन दोनों राजकुमारों ने इसे गाया भी है ॥ २४ ॥ आयुष्यं पुष्टिजनकं सर्वश्रुतिमनोहरम् । प्रशस्यमानौ सर्वत्र कदाचित्तत्र गायनौ ॥ २५ ॥ यह काव्य श्रोताओं की श्रायु वढ़ाने वाला तथा उनकी पुष्टि करने वाला और सुनने से सब के मन को हरने वाला है। इस प्रकार मुनियों से प्रशंसित दोनों राजकुमारों को ॥ २५ ॥ Ramayana PDF Book free

रथ्यासु राजमार्गेषु ददर्श भरताग्रजः । स्ववेश्म चानीय ततो भ्रातरौ च कुशीलवौ ॥ २६ ॥ राजमार्ग पर जाते हुए श्रीरामचन्द्र जी ने देखा और वे उन दोनों भाई कुश और लव को अपने भवन में लिवा ले गये ॥ २६ ॥ पूजयामास पूजाही रामः शत्रुनिवर्हणः । आसीनः काञ्चने दिव्ये स च सिंहासने प्रभुः ॥२७॥ शत्रु का नाश करने वाले श्रीराम जी ने घर पर उन सत्कार करने योग्य दोनों कुमारों का भली भाँति आदर सत्कार किया और आप सुवर्ण के दिव्य सिंहासन पर बैठें ॥ २७ ॥