Charaka Samhita PDF Book in Hindi – संपूर्ण चरक संहिता हिंदी

Charaka-Samhita-PDF

Click here to Download Charaka Samhita PDF Book in Hindi – संपूर्ण चरक संहिता हिंदी PDF in Hindi having PDF Size 95 MB and No of Pages 1255.

श्रीचरकसंहिता आयुर्वेद में एक सर्वमान्य पुस्तक है। इसका पठन पाठन आयुर्वेद के विद्यार्थि के लिये अति आवश्यक है। वास्तव में चरकसंहिता का तथा दूसरे ग्रन्थों का स्पष्टीकरण जितना पढ़ाने में होता है, उतना पढ़ने के समय नहीं होता। यही कारण है कि आयु- वेद सम्प्रदाय के मुख्य आचार्य श्री गंगाधर जी कविराज, श्री योगीन्द्र- नाथ सेन जी श्रीचरकसंहिता पर जल्पकल्पतरु और चरकोपस्कार टीकायें free आयुर्वेद के प्रेमियों का पत उपकार किया।

Charaka Samhita PDF Book

Name of Book Charaka Samhita
PDF Size 95 MB
No of Pages 1255
Language  Hindi
Buy Book From Amazon

About Book – Charaka Samhita PDF Book

इनमें चरकोपस्कार भाष्य तो विद्यार्थियों के लिये बहुत ही उत्तम और लाभ दायक है। पढ़ते समय विद्यार्थी की मनोवृत्ति बहुत ही विचित्र रहती है; खास पर आजकल के आयुर्वेद कॉलेज की जीवन में; जब कि उसको पाधात्य विद्या भी सत्तर प्रतिशत सीखनी होती है। ऐसी अवस्था में तो वह उत्तीर्ण होकर उपाधि ही प्राप्त करने का इच्छुक रहता है। इसमें कोई दो चार अपवाद भी होते हैं।

यह वृति हमारे यहां ही हो-यह बात नहीं; पाश्चात्य देशों में भी इसका – मनुष्य धर्म के स्वभाव के अनुसार परिचय मिलता है। इसके लिये संक्षिम प्रकाशन या सारांश रूप में पुस्तकें छोटी-छोटी प्रकाशित की जाती है। यह पुस्तकें सस्ती, छोटी तथा आवश्यक सब विषयों से पूर्ण रहती । इनमें विद्यार्थी को जहाँ आर्थिक भार से बचत होती है वहाँ श्रेणी में सुना सब विषय समझने में सरलता रहती है।

Click here to Download Charaka Samhita PDF 1 Book
Click here to Download Charaka Samhita PDF 2 Book

इसी कारण से या अन्य कारणों से पंगळा में, मराठी में या तेलगु में जो भी अनुवाद चरकसंहिता या दूसरे आयुर्वेद ग्रन्थोंके हुए हैं, वे सन्ते, तथा मूल के साथ साथ अनुवाद रूप में ही हैं। उनको स्पष्ट करने के लिये किसी भी अयोधीन रूप की सहायता नहीं की गई और इन ग्रन्थों के पढ़ने से सफल बैच बने है, ऐसा हमारे देखने में भी है। मेरी अपनी मान्यता यह है कि आयुर्वेद के विचारों को आयुर्वेद के ही दृष्टि कोण से देखा या समझा जा सकता है।

और इन्दी के दृष्टिकोण से देखने और समझने की कोशिश करनी चाहिये। इस अर्वाचीन चिकित्साशास्त्र से हमारे शास्त्र का समन्वय सिद्धान्तों में हो ही नहीं सकता। दोनों पद्धतियां भिन्न हैं, और भिन्न रहेंगी यह कोई आवश्यक नहीं कि दोनों को एक किया जाय। होम्योपैथ अपनी पद्धति का ऐलोपैथी के साथ गोट जोड़ा नहीं करता ‘आयुर्वेद’
शब्द और ‘एलीपैथी’ ये दोनों शब्द ही भिन्न हैं, और इनके अ में तो जमीन और आसमान का अन्तर है।

इतनाही नहीं अपितु छत्तीस का सम्बन्ध है। फिर दोनों कैसे एक हो सकते हैं। इसलिये इस प्रकार को मिलाकर पुस्तकें डिखना- प्राचीन ग्रन्थों के प्रति न्याय में नहीं समझता। साथ हो आधुनिक विज्ञान प्रति दिन उन्नति पर है, आज से पश्चीस साल के पहले के सिद्धान्त आज बहुत कुछ बदल गये; आज के सिद्धान्त-कल नहीं बदलेंगें यह कोई नहीं कह सकता। ऐसा अवस्था में इन पुस्तकों में केवल अग्रेजी पुस्तकों का उठवा देना युक्तिसंगत में नहीं समझता !

For More PDF Book Click Below Links….!!!

Ganpati Atharvashirsha PDF

Vayu Purana PDF

Shiv Puran PDF

Vishnu Purana PDF

Varaha Purana PDF

Vamana Purana PDF

इन सब धातों का विचार करके मैंने आयुर्वेद के का विचार करते हुए विद्यार्थियों की दृष्टि से उनकी रुचि के अनुसार यह अनुवाद किया है । यह अनुवाद आज से बीस साल पहले का है, इस संस्करण में भी इसकी पुनरावृत्ति नहीं कर सकता केवल कुछ थोड़े से स्थानों को छोड़कर। क्योंकि संस्करण बहुत दिनों से समाप्त था विद्यार्थियों की मांग थी। इसलिये इस प्रकाशित करना ज थी।

प्रथम प्रकाशक- श्री आर्यसाहित्य मण्डल लिमिटेड अजमेर वाली को कई बार इसके लिये वापरन्तु बड़ाई के कारण तथा अन्य असुविधा के कारण वे इसका प्रकाशन नहीं कर सके। कानून के अनुसार पब्लिशर बनने का या परिश करने का पका अधिकार नहीं। इसके सिवाय काम की विधा इस मुझे किसी ऐसे पब्लिशर की इच्छा जो इस सुविधाओं में भी इसका प्रकाशन शीघ्र कर दे।

श्राशनाथी भारी अमर मालिक भार्गव पुस्तकालय काशी वाले से पत्र व्यवहार हुआ और अब तो उन्होंने इसको छापना भी स्वीकार किया जिसका फल यह है कि इस समय में कागज कम्पोजिटर आदि की कठिनाई होते हुए भी यह छप सका। इसके लिये धन्यवाद के पात्र है। अग्रिम संस्करण में सम्भव हुआ तो इसकी पुनरावृत्ति हो सकेगी। आशा है कि जिस प्रकार वैद्य समाज ने विद्यार्थियों ने इसकी पहला संस्करण अपनाया था उसी प्रकार इसका यह भी अपनायेंगे। Charaka Samhita PDF Book

‘दूसरा संस्करण दीर्घञ्जीवितीय: ऋषि भरद्वाज का इन्द्र के पास गमन । रोगों का प्रादुर्भाव । ऋषियों को या रोग शान्ति उपाय पर विचार | इन्द्र के पास जाने के लिये भरद्वाज का निश्चय नरद्वाज का इन्द्र से त्रिक की चण । भरदाज से का आयुर्वेद अध्ययन | आका छः शिष्यों को उपदेश । प्रथम तन्त्र- प्रणेता अग्निवेश । भंड आदि अन्य तरकार|र्वेका लक्षण । अनु का लक्षण आयु के पर्यायवाची शब्द सामान्य और विशेष ।

आयुर्वेद के प्रकाश करने का प्रयोजन । हव्य । गुण । इन्द्रियों के अर्थ । कर्म । सम- चाय । हव्य का लक्षण | गुणों का लक्षण | कर्म का लक्षण | ताजान्य आदि छः कारण उनके कार्य धातुओं के विषम होने का कारण । सुख दुःखों का आश्रय आत्मा का स्वरूप । रोगप्रकृति चि रोगों का प्रतीकार और उनके भेद । वायु का लक्षण पित्त का लक्षण कफ का लक्षण साध्य रोगों की शान्ति स्मों की उत्पत्ति |

रसों द्वारा दोषों की मान्नित्य के भेद जंगम द्रव्य भौन ऋष्य । श्रभि द्रव्य के चार भेद उनके अंग । मूलिनी वनस्पतियां उनकी गणना इनके कर्म । फलिनी वनस्पतियां इनके कर्म । चार प्रकार के स्नेह इनके कर्म आठ प्रकार के सूत्र । सूत्रों के नागान्य उग । आठ प्रकार के दूध उनके सामान्य गुण | दूध के कर्म । दूध वाले वृक्ष उनके गुण । उपसंहार । औषधि ज्ञान का प्रयोजन, न जानी हुइ यों से हानियां । वैद्य के कर्त्तव्य अध्याय संग्रह | Charaka Samhita PDF Book

द्वितीयोऽध्याय: (०२६-३७ ) अपामार्गतण्डुलीय:- तिरोषि – रेचनोपयोगी द्रव्य । वमनकारक उच्य । विरेचन दृष्य | आम्थापन और अनु- चान के हृज्य । मात्रा और काल के विचार को आवश्यकता | रोगियों के लिये विशेष आहार द्रव्य, यवागू और विलेपीपाक । उपसंहार । तृतीयोऽध्यायः ( पृ० ३७-४५ ) आरग्वधीयः — वक्-रोगोंपर ३२ योगों का वर्णन आहार की मात्रा आहार के चार प्रकार । मात्रा में खाने का फल |

स्वस्थवृत्त । धूञ प्रयोग की विधि । स्नैहिक धूम वैरेचनिक धूम | धूम्रपान के गुण । धूम्रपान के आठ काल । ठीक प्रकार से पान किये हुए धूम- पान का लक्षण | अधिक धूम्रपानसेउ त्पन्न उपद्रव और उनकी चिकित्सा | धूम्रपान के अयोग्य जन । धूम पीने की विधि | धूमपान के आसन । नलिका की बना- वट । अयोग्य रूप में पिये धूम के लक्षण । अतियोग के रूप में धूमपान के लक्षण । नस्य प्रयोग ।

अणु तेल की विधि । दन्तधावन की विधि । दातुन करने से लाभ | जीभ को साफ़ करने की विधि । दातुन के लिये उत्तम वृक्ष स्नेहगण्डूष के गुण । शिर पर तैल लगाने से लाभ | कान मे तेल डालने से लाभ । शरीर पर तैल लगाने की विधि | पांव में तैल मर्दन के गुण । उबटन लगाना । स्नान का फल | स्वच्छ वस्त्र पहनने के गुण | गन्ध माला आदि धारण करने के गुण । Charaka Samhita PDF Book

रत्न, आभू- तस्याशितीयः –भोजन पर ! आश्रित आदान और विसर्ग काल का वर्णन | दो अयन । हेमन्तकाल की | परिचय | हेमन्त ऋतु में त्याज्य । वसन्त की ऋतुचर्या । ग्रीनच वर्षाकाल की ऋतु । शरदऋतु की परिचर्या । हंसो का लक्षण | ओकलात्म्य | उपसंहार ! गुण । संक्षेप से स्वस्थवृत्त । उपसंहार । मल सप्तमोऽध्यायः ( पृ० १४-१०६ ) न वेगान्धारणीय. -२ मूत्र आदि के न रोकने का उपदेश । उनके रोकने से हाजियां और चिकित्सा |

मन के निन्दित कार्य । वाणी के निन्दित कर्म-शरीर के निन्दिन कर्म । व्यायाम से लाभ । अधिक व्यायाम से हानियाँ | हितकारी कार्यो के सवन का क्रम । प्रकृति । तदनुसार हित सेवन का उप- देश – कारण से उत्पन्न होने वाले रोगों से बचने के उपाय | आगन्तुज रोगों के प्रतिकार | सेवन करने योग्य मनुष्य | उपसंहार । अट्टमोऽध्यायः ( पृ० १०७-११६ ) इन्द्रियोपक्रमणीयः – इन्द्रिय और उनके अर्थ और मन का वर्णन | पांच इन्द्रिय, उनके ग्राह्य पांच द्रव्य | उनके पांच ग्राह्य अर्थ । अध्यात्म गुण ।

द्रव्या- श्रित कर्म । इन्द्रिय और उनके साथ स्नेहाध्यायः – अग्निवेश का प्रश्न पुनवसु का प्रतिवचन । स्नेहों के दो प्रकार के उत्पत्तिस्थान-स्थावर और जंगम | सब तैलों में सर्वश्रेष्ट तिल तेल और स्नेहों में घृत । स्नेहों के गुण स्नेहपान गुण – उससे हानियाँ | स्नेह की २७ प्रकार की विचारणाएं । स्नेह की तीन मात्रा प्रधान, मध्यम, ह्रस्व | कला स्नेह किसके लिये हितकारी । स्नेह के अयोग्य व्यक्ति । निग्ध, अस्नि ग्व, अति स्निग्ध के लक्षण | स्नेहन कालमें हिताहित: उपसंहार । चतुर्दशोऽध्यायः (०१७-१८) Charaka Samhita PDF Book Download

स्वेदाध्यायः–स्वेदविधि । स्ने- हन, स्वेदन के गुण – उपयोगिता- उसके परिणाम | स्वेदन की अवधि – अतिस्देदन के लक्षण और उपचार | स्पेदन देने योग्य व्यक्ति । स्वेदयोग्य व्यक्ति । स्वेदन जन्य नाही | उपनाहविधि | संकरस्वेद | वेद | जेन्ताकस्वेद ! अश्मयनस्त्रेदविधि। कर्पू- स्वेद | कुन्दविधि । वेदविधि | कुम्भोदविधि | कूपस्वेद । होलाक- स्वेद | अग्निरहित स्वेद | के दो प्रकार, अग्निस्वेद, निरग्नि-इनके नंद । उपसंहार ।

पञ्चदशोऽध्यायः (पु० १५५-५६ ) उपकल्पनीयः – चिकित्सा के पूर्व उचित साधनों के संग्रह का प्रयोजन | अग्निवेश आत्रेय संवाद । संशोधन के  उपयोगी नाना प्रकार के उपकरणों का संग्रह | स्नेहन, स्वेदन की विधि | वमन के अयोग, सम्यकयांग और अतियोग के विशेष लक्षण । उत्तर उपचार- उपसंहार पोडशोऽध्यायः ( पृ० १६५०० ) चिकित्साप्राभृतीयः – द्वैध और सद्य के प्रयोगों में नंद । सम्यग् विरेचन के लक्षण । विरेचने के अतियोग के लक्षण |

गोधन योग्य व्यक्ति । संसोधन का पल अतियोग t होने पर क्या करना चाहिये। धातुओं कीमत और free विचार | उपसंहार | समयः (२०००००.२० । कियन्तरसीप:- शिरोरंग, बात काहि दोषों के संग से उत्पन्न येणारा -और-पिका और दोषी की तस में afra का प्रश्न काय का वचन । निर में उत्पन्न होने वाले पांच के शिरोरोग । दातजन्य शिरी- के लक्षण | पिपजन्य कमजन्य और निकोपजन्य शिरोरोग के लक्षण | पांच प्रकार के हृदय रोग | Charaka Samhita PDF Book Download

वातजन्य, पित्तजन्य, करजन्य, और विशेषजन्य हृदयशूल के लक्षण | कृमिजन्य हृद- यरोग के लक्षण | बात आदि दोषों के संकेत के मधुमेह के कारण । सात पिडकाएं । विधि, पिडका । विधि का निदान स्राव के लक्षण | साध्य – असाध्य विधि के लक्षण | भेद के दोष से उत्पन्न पिड- काएं – शराविका, कच्छपिका, जालिनी । सर्पी, अलजी, विनता आदि इनके उपद्रव दोषों की तीन प्रकार की गति ।

तीन प्रकार की और गति, संचय, प्रकोप और शमन – संचय के दो भेद – प्राकृत और वैकृत | उपसंहार । अष्टादशोऽध्यायः (पृ० २२१-०३१) त्रिशोथीयः – तीन प्रकार का गोथ ( सूजन ) – उसके पुनः दो प्रकार निज और आगन्तु । आगन्तु शोथ का निदान – चिकित्सा | निज शोध के कारण और सामान्य लक्षण | वातजन्य शोफ के लक्षण | शोध के दो, तीन, चार. और सात प्रकार | वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि से उत्पन्न गोव के लक्षण | कष्टसाध्य शोथ। गोथ के उपाय |

उपजिह्निका, गलशुडिका, गलगण्ड, गलग्रह, विसर्प, पटका और शंख के लक्षण । गुल्म, प्रन, उदर, आनाह, का लक्षण | रोहिणी रोग, । मृह, दारुण भेद से साध्य-असाध्य रोग के लक्षण | पीड़ा, वर्ण, समुत्थान, कारण, स्थान, संस्थान नाम भेद आदि के कारण रोग के असंख्य भेद । दोषों के प्राकृत और विकृत के लक्षण | उपसंहार । उनविंशोऽध्याय: उनके भेदों के नाम से निर्देश | आठ प्रकार के उदर रोग । Charaka Samhita PDF Book Download

सात प्रकार के कुष्ठ । छः प्रकार के अतीसार । : पांच प्रकार के गुल्म । चार प्रकार का अपस्मार । तीन प्रकार का शोध । प्रकार का ज्वर । दो प्रकार के व्रण-दो आयाम – दो प्रकार की गृध्रसी – दो प्रकार का कामला दो प्रकारका आन दो प्रकार का वातरक्त- एक प्रकार का उरुस्तम्भ – एक प्रकार का संन्यास- एकप्रकार का महागद । बीन प्रकार की किन जातियाँ- बीस प्रकार के प्रमेह- बीस प्रकार के योनिरोग । उपसंहार । विशोऽध्यायः (५० २३७ – २४६ )

महारोगाः- :- चार प्रकार के रोग, इनकी समानता, लिंग और आयतन भेद से असंख्य रोग- उनका भेदक कारण | दो प्रकार के विकार – सामान्य और नानात्मज । अस्सी प्रकार के बात- विकार । चालीस विविकार | उनके लक्षण | बीस कफजन्य रोग | उनके लक्षण | उपसंहार । एकविंशोऽव्यास (g० २४६ – २५५) जोनिन्द्वितीयः- आठ निन्दित : पुरुष । विशेष रूप से निन्दित दो, जति- : स्थूल और अतिकृश स्थूल पुरुष के दोष, कारण और लक्षण |

अतिकृश के दोष, कारण और लक्षण | आदर्श पुरुष । स्थूल की क्रश बनाने के लिये उपाय | उनको दिन में सोने से लाभ । दिन में सोने का उचित काल-ग्रीष्म ऋतु – अन्य ऋतुओं में दिन में सोने से हानियाँ | रात्रिजागरण के दोष | निहोत्पादक उपाय | अनुचित निद्रा को रोकने के उपाय | उपसंहार द्वाविंशतितमोऽध्यायः (१०२५६-२६१) लंघनबृंहणीयः – वैद्य का लक्षण लंबन, बृंहण, स्नेहन, स्तंभन के सम्ब- व में अग्निवंश का प्रश्न । Charaka Samhita PDF Book Free

आय पुनर्वसु का प्रतिवचन | लंघन, बृंहण स्वेदन, स्तम्भन के लक्षण । लंघन, मुँह आदि कारक द्रव्यों के कारण । लंघन के योग्य व्यक्ति । बृंहण के योग्य द्रव्य और व्यक्ति । विरूक्षण करने योग्य व्यक्ति और द्रव्य | स्तम्भन द्रव्य और स्तंभन योग्य व्यक्ति : सम्यक् और लंघन के अतियोग के लक्षण | सम्यक बृंहण और बृंहण के अतियोग के लक्षण | रूक्षण के सम्यकयोग और अतियोग ।

स्तम्भन के सम्यकयोग और अतियोग के लक्षण : लेवन आदि छः क्रियाओं के अयोग, हीनयोग के दुष्परिणाम | त्रयोविंशतितमोऽध्यायः पृ० २६२-२६६ लंघन सन्तर्पणीयः – सन्तर्पणजन्य रोग के कारण । रोगों के लक्षण – उनकी चिकित्सा | अपतर्पण और तजन्य रोग- उनका उपशमन । अहो साध्विति पोषय छोकीनन्दनादयत् । नमसि स्निग्धगम्भीरो हर्षाद् भूतैरुदीरितः ॥ ३७ ॥ शिवो वायुर्वी सर्वा मरुन्मीलितादिशः । निपेतुः सजनाचैव दिव्याः कुसुमवृष्टयः ॥ ३८ ॥

अथाग्निवेशप्रमुखान् विविशुर्ज्ञानदेवताः । बुद्धिः सिद्धिः स्मृतिर्मेधा धृतिः कीर्तिः क्षमा दया ॥ ३६ ॥ तानि चानुमतान्येषां तन्त्राणि परमर्षिभिः । भवाय भूतसंघानां प्रतिष्टां भुवि लभेरे ॥ ४० ॥ अग्निवेश की बुद्धि विशेष थी, मुनि आत्रेय के उपदेशमें कोई अन्तर नहीं था। अग्निवेश ही सब से प्रथम आयुर्वेद-तंत्र का कत्तो हुवा। इसके पीछे भेड आदि बुद्धिमान् शिष्यों ने भी अपने अपने तंत्र बना कर बहुत से ऋषियों के साथ विराजमान आत्रेय मुनि को सुनाये । Charaka Samhita PDF Book Free

पुण्यकर्मा अग्निवेश आदि ऋषियों द्वारा भली प्रकार से सूत्र रूप से गुंथे हुए आयुर्वेद शास्त्र को सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका प्रसन्नता से अनुमोदन भी किया कि ठीक प्रकार से प्रथित ( गूंगा ) हुआ है। सब प्राणियों पर दयालु उन ऋषियों की सब ने ही प्रशंसा की। सब ने एक साथ उच्चस्वर से कहा ‘अधीतिर्वात विकारा’ एवं ‘वायुरेव भगवान् वायु सबसे है। सर्वेषाञ्च व्याधीनां वातपित्तश्लेष्माण एवं मूर्खात् दृष्टवादा गमाच । यथा हि कृत्स्नं विकारजातं विश्वरूपेणावस्थितं सत्त्वरजस्तमांसि न व्यतिरिच्यते । एवमेव कृत्स्नं विकारजातं विश्वरूपेणावस्थितमव्यतिरिच्य बात- पित्तश्लेष्माणो वर्तन्ते ॥ सुश्रुत ||