Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book in Hindi – संपूर्ण वेदान्त दर्शन ब्रह्म सूत्र हिंदी

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स्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वे मम देवदेव ॥ मूकं करोति वाचालं पयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥ महर्षि वेदव्यासरचित मह्मसूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें से शब्दों पर नाके खरूपका सापाङ्ग निरूपण किया गया है, इसीलिये इसका नाम ‘मसूत्र’ है।

Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book

Name of Book Vedant Darshan Brahma Sutra
PDF Size 37.7 MB
No of Pages 417
Language  Hindi
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About Book – Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book

यह अन्य बेटके चरम सिद्धान्तका निदर्शन कराता है, अतः इसे ‘वेदान्त दर्शन’ भी कहते है वेदके अन्न या शिरोभागमाढा, आरण्यक एवं उपनिषद् के सूक्ष्म तत्त्वका दिग्दर्शन करानेके कारण भी इसकी उक्त नाम सार्थक है । बेदके पूर्वभागको श्रुतियोंमे कर्मकाण्डका विषय है, उसकी समीक्षा आचार्य जैमिनिने पूर्वमीमांसा सूत्र की है। उत्तर भागकी श्रुतियोंमें उपासना एवं ज्ञानकाण्ड है; इन दोनोकी मीमांसा करनेवाले वेदान्त दर्शन यां ब्रह्मसूत्रको ‘उत्तर मीमांसा’ भी कहते हैं।

दर्शनोंमें इनका स्थान सबसे ऊँचा है; क्योंकि इसमें जीवके परम प्राप्य एवं चरम पुरुषार्थका प्रतिपादन किया गया है। प्रायः सभी सम्प्रदायोंके प्रधान प्रधान आचायोंने ब्रह्मसूत्रपर भाष्य लिखे हैं और सबने अपने-अपने सिद्धान्तको इस ग्रन्यका प्रतिपाय बतानेकी चेल की है। इससे भी इस प्रत्यकी महत्ता तथा विद्वानोंमें इसकी समादरणीयता सूचित होती है। प्रस्थानत्रयीमें मासूत्रका प्रधान स्थान है।

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संस्कृत भाषा में इस अन्यपर अनेक भाष्य एवं टीकाएँ उपलब्ध होती है; परंतु हिन्दीमें कोई सरल तथा सर्वसाधारणके समझने योग्य टीका नहीं थी; इससे हिन्दीभाषा-भापियोंके लिये इस गहन ग्रन्थका भाव समझना बहुत कठिन हो रहा था। यद्यपि ‘अभ्युत ग्रन्यमाला’ ने महासूत्र शाङ्करभाष्य एवं रत्नप्रभा व्याख्याका हिन्दीमें अनुवाद प्रकाशित करके हिन्दी जगत्का महान् उपकार किया है।

तथापि भाष्यकारकी व्याख्या शाश्रार्थको शे पर डिली जानेके कारण साधारण बुद्धिवाले पाठकोंको उसके द्वारा सूत्रकारके भावकों समझने मे कठिनाई होती है। इसके सिवा, वह ग्रन्थ भी बहुत बड़ा एवं बहुमूल्य हो गया है। जिससे साधारण जनता उसे प्राप्त भी नहीं कर सकती। अतः हिन्दीमें ब्रह्मसूत्रके एक ऐसे संस्करणको प्रकाशित करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई, जो सर्वसाधारण के लिये समझने में सुगम एवं सस्ता होनेके कारण सुलभ हो।

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इन्हीं बातोंको दृष्टिमे रखकर गतवर्ष वैशाख मासमें, जब मै गोरखपुरमें था, मेरे एक पूज्य स्वामीजी महाराजने मुझे आज्ञा दी कि तुम सरल हिन्दीमें ग्रासूत्रपर संक्षिप्त व्याख्या लिखो ।’ यद्यपि अपनी अयोग्यताको समझकर मै इस महान् कार्यका भार अपने ऊपर लेने का साहस नहीं कर पाता था, तथापि पूज्य स्वामीजीकी आग्रहपूर्ण प्रेरणाने मुझे इस कार्यमें प्रवृत्त कर दिया।

मै उसी समय गोरखपुर से वर्गाश्रम (ऋषिकेश ) चला गया और वहाँ पूज्यपाद भाईजी श्रीजयदयालजी से खामीजीकी उक्त आज्ञा निवेदन को उन्होंने भी इसका समर्थन किया । इससे मेरे मनमे और भी उत्साह और बल प्राप्त हुआ । भगवान्की अव्यक्त प्रेरणा मानकर मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया और उन्हीं सर्वान्तर्यामी परमेश्वरकी सहज कृपासे एक मास इक्कीस दिनमे ब्रह्मसूत्रकी यह व्याख्या पूरी हो गयी।

इसमें व्याकरणकी दृष्टिसे तो बहुत-सी अशुद्धियाँ थीं ही, अन्य प्रकारकी भी त्रुटियों रह गयी थीं, अतः इस व्याख्याकी एक प्रति नकल कराकर मैंने उन्हीं पूज्य स्वामीजीके पास गोरखपुर भेज दी। उन्होंने मेरे प्रति विशेष कृपा और खाभाविक प्रेम होनेके कारण समय निकालकर दो मासतक परिश्रमपूर्वक इस व्याख्याको देखा और इसकी त्रुटियोंका मुझे दिग्दर्शन कराया । Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book

तदनन्तर चित्रकूटमे सत्सङ्गके अवसरपर पूज्यपाद श्रीभाई जयदयालजी तथा पूज्य स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजने भी व्याख्याको आद्योपान्त सुना और उसके संशोधन के सम्बन्धमें अपनी महत्त्वपूर्ण सम्मति देनेकी कृपा की। यह सब हो जानेपर इस ग्रन्यको प्रकाशित करनेकी उत्सुकता हुई। फिर समय मिलते ही मै गोरखपुर आ गया। फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा से इसके पुनः संशोधन और छपाई आदिका कार्य आरम्भ किया गया ।

इस समय पूज्य पण्डित श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्रीने इस व्याख्यामें व्याकरण आदिकी दृष्टिसे जो-जो अशुद्धियाँ रह गयी थीं, उनका अच्छी तरह संशोधन किया और भाषाको भी सुन्दर बनानेकी पूरी-पूरी चेटा को साथ हो आदिसे अन्ततकं साथ रहकर प्रूफ देखने आदिके द्वारा भी प्रकाशनमें पूरा सहयोग किया। पूज्य भाई श्रीहनुमानप्रसादजी पोदार तथा उपर्युक्त पूज्य स्वामीजीन मी प्रूफ देखकर उचित एवं आवश्यक संशोधनमे पूर्ण सहायता की।

इन सर्व महानुभावोंके अथक परिश्रम और सहयोगसे आज यह ग्रन्थ पाठकोंके समक्ष इस रूप में उपस्थित हो सका है। पाठक मेरी अल्पतासे तो परिचित होगे ही; क्योंकि पहले योगदर्शनकी भूमिका में मैं यह बात निवेदन कर चुका हूँ। मैं न तो संस्कृतभाषाका विद्वान् हूँ और न हिन्दी भाषाका ही । अन्य किसी आधुनिक भाषाकी भी जानकारी मुझे नहीं है । इसके सिया, आध्यात्मिक विषयमें भी मेरा विशेष अनुभव नहीं है। Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book

ऐसी दशामें इस गहन शाखपर व्याख्या लिखना मेरे-जैसे अल्पज्ञके लिये सर्वा अनधिकार चेटा है, तथापि अपने आध्यात्मिक विचारोंको दृढ़ बनाने, गुरुजनोंकी आज्ञा का पालन करने तथा मित्रोंको संतोष देनेके लिये अपनी समझके अनुसार यह टीका लिखकर इसे प्रकाशित करानेकी मैने जो दृष्टता की है, उसे अधिकारी विद्वान् तथा संत महापुरुष अपनी सहज उदारतासे क्षमा करेंगे; यह आशा है।

वस्तुतः इसमें जो कुछ भी अच्छापन है, वह सब पूर्वके प्रातःस्मरणीय पूज्य चरण आचायों और भाष्यकारोंका मङ्गलप्रसाद है और जो त्रुटियाँ हैं, वे सब मेरी अल्पज्ञताकी सूचक तथा मेरे अहङ्कारका परिणाम है। जहाँतक सम्भव हुआ है, मैंने प्रत्येक स्थलपर किसी भी आचार्यके ही चरणचिहोका अनुसरण करने- की चेटा की है। जहाँ खतन्त्रता प्रतीत होती है, वहाँ भी किसी-न-किसी 1 प्राचीन महापुरुष या टीकाकारके भावोंका आश्रय लेकर ही वैसे भाव निकाले गये हैं।

अनुभवी विद्वानोंसे मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वे कृपापूर्वक इसमे प्रतीत यहाँ प्रसङ्गवश ब्रह्मसूत्र और उसके प्रतिपाद्य विषयके सम्बन्धमें भी कुछ निवेदन करना आवश्यक प्रतीत होता है । ब्रह्मसूत्र अत्यन्त प्राचीन अन्य है। कुछ आधुनिक विद्वान् इसमें सांख्य, वैशेषिक, बौद्ध, जैन, पाशुपत और पाञ्चरात्र आदि मतोंकी आलोचना देखकर इसे अर्वाचीन बताने का साहस करते हैं और बादरायणको वेदव्याससे भिन्न मानते हैं; परंतु उनकी यह धारणा नितान्त भ्रमपूर्ण है। Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book

ब्रह्मसूत्रमें जिन मतोंकी आलोचना की गयी है, वे प्रवाहरूपसे अनादि हैं। वैदिककालते ही सद्वाद और अमवाद (आस्तिक और नास्तिकमत) का विवाद चला आ रहा है। इन प्रत्राहरूपते चले जाये हुए विचारोंमेंसे किसी एक को अपनाकर भिन्न-भिन्न दर्शनोंका संकलन हुआ है। सूत्रकरने कहीं भी अपने सूत्रमें सांख्य, जैन, बौद्ध या वैशे बैंक मतके आचायोंका नामोल्लेख नहीं किया है।

उन्होंने केवल प्रधानकारणवाद, अणुकारणवाद, विवाद अदि सिद्धान्तोंकी ही समीक्षा की है। सूत्रोंमें बादर ओडुमि, जैमिनि, वाश्मरथ्य. काशकृत्स्न और आत्रेय आदिके नाम आये हैं, जो अत्यन्त प्राचीन है इनमेंसे कितनोंक नाम मीमांसासूत्रोंमें भी उल्लिखित हैं। श्रीमद्भगवङ्गतामें भी “हेतुमद्’ विशेषगसहित ‘ब्रह्मसूत्र’ का नाम आता है, इसने भी इसकी परम प्रचीनता सिद्ध होती है। बादरायण शब्द पुरागकालते ही श्रीवेदव्यासजीके लिये व्यवहृत होता आया है।

अतः ब्रह्मसूत्र वेदव्यासजीकी हो रचना है, यह माननेमें कई बाधा नहीं है। पाणिनिने पाराशर्य व्यासद्वारा रचित ‘भिक्षुसूत्र’ की भी चर्चा अपने सूत्रोमे की है। वह अब उपलब्ध नहीं है। अथवा यह भी सम्मय है, वह ब्रह्मसूत्र जे अभिन्न रहा हो । भाव यह है कि देवता, दैत्य, दानव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक जीवो- से परिपूर्ण, सूर्य, चन्द्रमा, तारा तथा नाना लोक लोकान्तरोसे सम्पन्न इस अनन्त ब्रह्माण्डका कर्ता हर्ता कोई अवश्य है, यह हरेक मनुष्यकी समझमे आ सकता है। Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book Download

वही ब्रह्म है। उसीको परमेश्वर, परमात्मा और भगवान् आदि विविध नामोसे कहते हैं; क्योंकि वह सबका आदि, सबसे बड़ा, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वव्यापी और सर्वरूप है। यह दृश्यमान जगत् उसकी अपार शक्तिके किसी एक अंशका दिग्दर्शनमात्र है। शङ्का-उपनिषदोगे तो ब्रसका वर्णन करते हुए उसे अकर्ता, अभोक्ता, असङ्ग, अव्यक्त, अगोचर, अचिन्त्य, निर्गुण, निरञ्जन तथा निर्विशेष बताया गया है और इस सूत्र में उसे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कर्ता बताया गया है। यह विपरीत बात कैसे !

समाधान-उपनिषदोमे वर्णित परब्रह्म परमेश्वर इस सम्पूर्ण जगत्का कर्ता होते हुए भी अकर्ता है (गीता ४ । १३) । अतः उसका कर्तापन साधारण जीयोकी भाँति नहीं है; सर्वथा अलौकिक है। वह सर्वशक्तिमान् एवं सर्वरूप होनेमे समर्थ होकर भी सबसे सर्वया अतीत और असङ्ग है। सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी निर्गुण है। तथा समस्त विशेषगोसे युक्त होकर भी निर्विशेष है।

इस @ परास शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबहकिया (६८) इस परमेश्वरकी शान और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है।” एको देवः सर्वभूतेषु गूडः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी नेता केवल निर्गुण ॥ ११ यह एक देव ही सब प्राणियोमे छिपा हुआ, सर्वव्यापी और समस्त प्राणियोंका अन्तर्यामी परमात्मा है वही सपके कर्मोंका अभिहाता सम्पूर्ण भूतोका निवास-खान सबका साक्षी, चैतनत्वरूप, सर्वा विशुद्ध और गुणातीत है ।” Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book Download

एष सर्वेश्वर एष सर्वेश एवोऽन्ये योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययी हि भूतानाम्।। (मा० उ० ६) यह सबका ईश्वर है, यह सर्व है, यह का अन्तयामी है, यह सम्पूर्ण जगत्का कारण है क्योंकि समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिः खिति और प्रलयका खान यही है।’ मान्तमहं न बहिष्य नोपन प्रशाननं न प्रनामम् । अष्टमय- बन सकता; क्योकि वह चेतनका धर्म है अतः शब्दप्रमाणरहित प्रधान (जट प्रकृति) को जगत्‌का उपादान कारण नहीं माना जा सकता ।

सम्बन्ध– ईक्षण या सङ्कल्प चेतनका धर्म होनेपर भी गौणीवृत्तिसे अचेतन- के लिये प्रयोग में लाया जा सकता है, जैसे लोकमें कहते है ‘अमुक मकान अब गिरना ही चाहता है । उसी प्रकार यहाँ भी ईक्षण कियाका सम्बन्ध गणरूपसे त्रिगुणात्मिका जड प्रकृतिके साथ मान लिया जाय तो क्या हानि है। इसपर कहते है- गौणन्नात्मशब्दात् ॥ १ । १ । ६ ॥ चेत्यत्रि कहो; गौणः ईक्षणका प्रयोग गोगवृत्तिसे ( प्रकृति के लिये ) हुआ है यह ठीक नहीं है; आत्मशब्दाद क्योकि बहो ‘आत्म’शब्दक प्रयोग है।

व्याख्या- ऊपर उद्घृत की हुई ऐतरेयकी श्रुतिमे ईक्षणका कर्ता आत्माको बनाया गया है। अतः गौण-वृत्ति भी उसका सम्बन्ध प्रकृतिके साथ नहीं हो सकता । इसलिये प्रकृतिको जगत्‌का कारण मानना वेदके अनुकूल नहीं है। सम्बन्ध- ‘आत्म’ शब्दका प्रयोग तो मन, इन्द्रिय और शरीरके लिये भी आता तिनें ‘जारमा’ को गीणरूपसे प्रकृतिका वाचक मानकर उसे जगत्का कारण मान लिया जाय तो क्या आपति है ? इसपर कहते हैं- Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book Download

व्याख्या–छान्दोग्योपनिषद् (६ । ८।१) मे कहा है कि यत्रतत् पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति समपीतो भवति तस्मादेन खपितीत्याचक्षते’ अर्थात ‘हे सोम्य । जिस अवस्था यह पुरुष (जीवात्मा ) सोता है, उस समय यह सत् ( अपने कारण ) से सम्पन्न (संयुक्त) होता है; स्व- अपने में अपीत विलीन होता है, इसलिये इसे ‘स्वपिति’ कहते हैं।’ अभ्यासात् श्रुतिने वरंबार ‘आनन्द’ शब्दका ब्रह्मके लिये प्रयोग होने के कारण; आनन्दमयः=’आनन्दमय’ शब्द ( यहाँ परब्रह्म परमेश्वरका ही याचक है ) ।

व्याख्या- किसी बातको दृढ़ करनेके लिये वारंवार दुहरानेको ‘अभ्यास’ कहते हैं । तैत्तिरीय तथा बृहदारण्यक आदि अनेक उपनिषदोने ‘आनन्द’ शब्द- का ब्रह्मके अर्थमे वारंवार प्रयोग हुआ है; जैसे तैत्तिरीयोपनिषद्की ब्रह्मलोके छठे अनुवाक ‘आनन्दमया का वर्णन आरम्भ करके सातवें अनुवाकमे उसके लिये रसो वै सः । रस होवायं वाऽऽनन्दी भवति को वन्यात् कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ।

एष होचानन्दयाति’ (२७) अर्थात् ह आनन्दमय ही रसस्वरूप है, यह जीवात्मा इस रसस्वरूप परमात्माको पाकर आनन्द- युक्त हो जाता है। यदि वह आकाशकी भाँति परिपूर्ण आनन्दस्वरूप परमात्मा नहीं होता तो कौन जीवित रह सकता, कौन प्राणोंकी किया कर सकता ! सचमुच यह परमात्मा ही सबको आनन्द प्रदान करता है। ऐसा कहा गया है। तथा संपाऽऽनन्दस्य मीमासा भवति एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति ।’  Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book Free

तै० उ० २ । ८) ‘आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विमेति कुतवना’ (०३०२।९) ‘आनन्दी ब्रह्मेति व्यजानात् ‘ ( तै० उ०१६) विज्ञानमानन्द ब्रझ’ (बृह० ३०३।९।२८ ) — इत्यादि प्रकारसे श्रुतियोंमें जगह-जगह परब्रह्म के अर्थमें ‘आनन्द’ एवं ‘आनन्दमय’ शब्दका प्रयोग हुआ है। इसलिये ‘आनन्दमय’ नामसे यहाँ उस सर्वशक्तिमान् समस्त जगत्के परम कारण, सर्वनियन्ता, सर्वव्यापी, सबके आत्मस्वरूप परब्रह्म परमेश्वरका ही वर्णन है, अन्य किसीका नहीं।

सम्बन्ध-यहाँ यह शङ्का होती है कि ‘आनन्दमय’ शब्दमे को ‘म’ प्रत्यय है, यह विकार अर्थका बोधक हे और परवा परमात्मा निर्विकार है । अतः जिस प्रकार अमय आदि शब्द नसके वाचक नहीं है, वैसे ही, उन्ही- के साथ आया हुआ यह ‘आनन्दमय’ शब्द भी परमाका वाचक नहीं होना चाहिये। इसपर कहते हैं– ्याख्या- ‘तत्प्रकृतवचने मयट् (पा० सू० ५। ४ । २१ ) इस पाणिनि- सूत्र के अनुसार प्रचुरताके अर्थमें भी ‘मयद्’ प्रत्यय होता है; अतः यहाँ आनन्द- मय’ शब्दमे जो ‘मयद्’ प्रत्यय है।

वह विकारका नहीं, प्रचुरता अर्थका ही बोधक है अर्थात् वह ब्रह्म आनन्दघन है, इसीका योतक है। इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि ‘आनन्दमय’ शब्द मका वाचक नहीं हो सकता। परब्रह्म परमेश्वर आनन्दघनस्वरूप है, इसलिये उसे ‘आनन्दमय’ कहना सर्वथा उचित है। सम्बन्ध यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि जब ‘गयद्’ प्रत्यय विकारका बोधक भी होता है, तब यहाँ उसे प्रचुरताका ही बोधक क्यों माना जाय ? विकारबोधक क्यों न मान लिया जाय । इसपर कहते है- Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book Free

तद्धेतुव्यपदेशात् = ( उपनिषदोंमे ब्रह्मको) उस आनन्दका हेतु बताया गया है, इसलिये च भी (यहाँ मयर् प्रत्यय विकार अर्थका बोधक नहीं है ) । व्याख्या–पूर्वोक्त प्रकरणमे आनन्दमयको आनन्द प्रदान करनेवाला बताया गया है ( तै० उ०२७) जो सबको आनन्द प्रदान करता है, वह स्वयं आनन्दघन है, इसमें तो कहना ही क्या है; क्योंकि जो अखण्ड आनन्दका भण्डार होगा, यही सदा सबका आनन्द प्रदान कर सकेगा। इसलिये यहाँ मयट् प्रत्ययको विकारका बोधक न मानकर प्रचुरताका बोधक मानना ही ठीक है ।

प्यारा तैत्तिरीयोपनिषद्की ब्रह्मानन्दवली के आरम्ममे जो यह मन्त्र आया है कि सत्यं ज्ञानमनन्तं मा यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽनुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता अर्थात् अझ सत्य, ज्ञानस्वरूप जड प्रकृतिमे अपना अपने ही जैसे परतन्त्र दूसरे किसी जीवमे रूप होना नहीं बन सकता। इसलिये एकमात्र परमा परमेश्वर ही ‘आनन्दमय’ शब्दका याच्यार्थ है और वही सम्पूर्ण जगत्का कारण है; दूसरा कोई नहीं।

सम्बन्ध-तैतिरीय पुतिमें यहाँ जानन्दमयका प्रकरण आया है, यह ‘विज्ञानमय’ गन्द जीवात्माको ग्रहण किया गया है, किन्तु वृहदारण्यक (४।४।२२ ) मे ‘विज्ञानमय’ को हृदयकासमें सपन करनेवाला अन्तरात्मा बताया गया है। अतः निवासा होती है कि वहाँ ‘विज्ञानमय’ शब्द जीवात्मा- कापाचक है अथवा माका इसी प्रकार छान्दोग्य (१६६) में जो सूर्यमण्डला हिरण्मय over जाया है, यहाँ भी यह शक हो सकती है कि इस मन्त्र के अधिदेवताका वर्णन हुआ है या का अतः इसका निर्णय करनेके लिये जागेका प्रकरण आरम्भ किया जाता है—- Vedant Darshan Brahma Sutra PDF Book Free